श्री भगवत चर्चा
05-12-2025
गृहस्थ और वैराग्य: सत्य क्या है?
गृहस्थ में रहकर वैराग्य: घर छोड़ें या मन को बदलें? (साधक प्रश्नोत्तरी)
पूज्य श्री विनोद बाबा जी महाराज
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संक्षेप
विस्तार
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घर ही किला है
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घर छोड़ने से वैराग्य नहीं आता। घर एक किले की तरह है, जहाँ रहकर शत्रु (इंद्रियों) से सुरक्षित लड़ा जा सकता है।
साधक अक्सर सोचते हैं कि जंगल जाने से वैराग्य हो जाएगा, पर मन की आसक्ति वही रहती है। घर एक 'किले' (Fort) के समान है। किले के भीतर रहकर इंद्रियों रूपी शत्रुओं से लड़ना, खुले मैदान (जंगल) में लड़ने की अपेक्षा अधिक सुरक्षित और बुद्धिमानी है।
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वैराग्य का शस्त्र
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संसार रूपी वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसे केवल 'तीव्र वैराग्य' रूपी हथियार से ही काटा जा सकता है।
इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ें अनादि काल से फैली हुई हैं। केवल घर छोड़ देने से यह नहीं कटतीं। इसे काटने के लिए 'असंग शस्त्र' (Weapon of Detachment) अर्थात 'तीव्र वैराग्य' की आवश्यकता है, जो निरंतर भगवत चिंतन से प्राप्त होता है।
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नए साधक और विवाह
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विवाह न करना भी जोखिम भरा है। यदि संग अच्छा न मिला तो पतन निश्चित है। साधक को बहुत सावधानी से निर्णय लेना चाहिए।
नवीन साधक डरते हैं कि विवाह से भक्ति नष्ट हो जाएगी। यह सत्य है कि गलत संगति (पत्नी/पति) जीवन नरक बना सकती है, परन्तु केवल डर कर भागना भी सही नहीं। यदि वैराग्य परिपक्व नहीं है, तो गृहस्थ में 'नित्य संन्यासी' बनकर रहना ही श्रेयस्कर है।
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साधना और हिमालय
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साधना में कभी ऊँचाई तो कभी गिरावट आती है। इससे घबराना नहीं चाहिए, बस चलते रहना चाहिए।
साधना हिमालय चढ़ने जैसी है। कभी हम ऊँची चोटी पर होते हैं (भाव की स्थिति), तो कभी घाटी में उतरना पड़ता है (संघर्ष की स्थिति)। यह उतार (पतन) भी यात्रा का हिस्सा है। इससे निराश होकर बैठें नहीं, बल्कि पुनः चढ़ाई आरम्भ करें।
❓ जिज्ञासा (Q&A)
प्रश्न: घर में रहकर और सुख-सुविधाओं के बीच तीव्र वैराग्य कैसे संभव है?
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उत्तर: घर छोड़ना समाधान नहीं है। वस्तु में दोष नहीं, हमारी 'स्पृहा' (चाहत) में है। भगवान के चरणों में प्रेम होने से वैराग्य स्वतः आ जाता है।
उत्तर: गुरुदेव समझाते हैं कि घर या वस्तुएँ बंधन का कारण नहीं हैं; हमारी 'स्पृहा' (भोगने की इच्छा) बंधन है। यदि मन में इच्छा नहीं, तो रसगुल्ले का ढेर भी आपको नहीं बांध सकता। वैराग्य त्याग से नहीं, भगवान के चरणों में 'अनुराग' (प्रेम) होने से स्वतः घटित होता है।
प्रश्न: क्या पाप कर्म करने से आत्मा दूषित हो जाती है?
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उत्तर: नहीं, आत्मा सदैव निर्दोष है। पाप केवल मन और संस्कारों का मैल है, जो भगवान की कृपा से पल भर में मिट सकता है।
उत्तर: आत्मा सर्वथा निर्दोष और पवित्र है। जिसे हम पाप कहते हैं, वह केवल मन पर पड़े हुए संस्कारों की धूल है। जैसे लाखों वर्षों का अंधेरा एक दीपक जलाने से पल भर में नष्ट हो जाता है, वैसे ही भगवत कृपा से अनंत जन्मों के पाप क्षण भर में मिट जाते हैं।
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जहाज का पक्षी (अनन्य आश्रय)
"जैसे समुद्र के बीच जहाज के मस्तूल पर बैठा पक्षी उड़कर जमीन खोजने जाता है, पर चारों ओर केवल खारा पानी देखकर वापस जहाज पर ही आता है। वैसे ही जीव सुख खोजने भटकता है, पर शांति केवल प्रभु चरणों में मिलती है।"
📜 शास्त्र प्रमाण: इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित किए गए हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 18, श्लोक 66)
सिद्धांत संदर्भ (Reference)
सद्गुरुदेव ने कहा कि "मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता मत करो"। यह गीता के इस शरणागति श्लोक का भाव है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
Sarva-dharman parityajya mam-ekam sharanam vraja |
Aham tvam sarva-papebhyo mokshayishyami ma shuchah ||
Aham tvam sarva-papebhyo mokshayishyami ma shuchah ||
"सब धर्मों को (भरोसों को) त्यागकर केवल एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।"
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 3, श्लोक 36)
सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
सद्गुरुदेव ने अर्जुन के उस प्रश्न का उल्लेख किया जहाँ वह पूछते हैं कि मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
Atha kena prayukto'yam papam charati purushah |
Anichchhann-api varshneya balad-iva niyojitah ||
Anichchhann-api varshneya balad-iva niyojitah ||
"अर्जुन बोले— हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?"
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 5, श्लोक 3)
सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
सच्चा संन्यासी वह है जो द्वेष और आकांक्षा से रहित है, चाहे वह घर में हो।
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
Jñeyaḥ sa nitya-sannyāsī yo na dveṣṭi na kāṅkṣati...
हे महाबाहो! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न आकांक्षा करता है, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि राग-द्वेष से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 15, श्लोक 3-4)
सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
संसार रूपी वृक्ष को काटने का एकमात्र उपाय 'तीव्र वैराग्य' रूपी शस्त्र है।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम् असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ॥
Aśvattham-enaṁ su-virūḍha-mūlam asaṅga-śastreṇa dṛḍhena chittvā...
इस सुदृढ़ मूल वाले संसार वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा काटकर, उस परम पद (परमेश्वर) की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने पर फिर लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता।
⚠️ स्पष्टीकरण (Clarification)
यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।
Gita 3.36, Gita 18.66, Gita 5.3, Gita 15.3, Home vs Renunciation, Sadhak Q&A, Vinod Baba Ji Maharaj, Vairagya, Soul and Sin
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