जीव, अहंकार और अर्जुन का मोह
जीव तत्व: अर्जुन का अहंकार और द्वारका लीला
🦢 संसार और 'अंधेरे का मित्र' देखें ▶
संसार स्वप्नवत है। जैसे अँधेरे में मित्र को गले लगाने पर आनंद आता है, पर पता चलने पर कि वह दूसरा है, आनंद गायब हो जाता है। यह सब 'आरोप' है।
महाराज जी 'अंधेरे में मित्र' का दृष्टान्त देते हैं: हम किसी को अपना मित्र समझकर गले मिलते हैं और सुख पाते हैं, पर रोशनी होते ही पता चलता है वह अजनबी है और सुख गायब हो जाता है। इसी प्रकार हम नश्वर संसार में सुख का 'आरोप' (Imposition) करते हैं, जो वास्तविक नहीं है।
⚔️ अहंकार और कर्तापन का भ्रम देखें ▶
जड़ अहंकार 'मैं शरीर हूँ, यह मेरा है' का भाव देता है, जिससे जीव कर्मों का फल भोगता है। यह संसार चक्र का मूल कारण है।
जड़ अहंकार के कारण जीव मानता है कि 'मैं कर्ता हूँ' (गीता 3.27)। अहंकार के दो रूप हैं: **जड़ अहंकार** (देहाभिमान), जो बंधन देता है, और **चिद् अहंकार** (स्वरूप-अभिमान), जो मोक्ष की ओर ले जाता है। साधन करते समय भी सूक्ष्म रूप में यह अहंकार छिपा रहता है।
दर्द न शरीर को होता है (वह जड़ है), न आत्मा को। यह दर्द 'अहंकार' को होता है।
शरीर जड़ है, उसे दर्द महसूस नहीं हो सकता। आत्मा चेतन है, उसे चोट नहीं लगती। यह 'अहंकार' (Ego) है जो शरीर और आत्मा के बीच ग्रंथि है। जब हम शरीर को 'मैं' मानते हैं, तो शरीर का कष्ट हमें अपना कष्ट प्रतीत होता है।
परिणाम: नित्य सेवा और आनंद।
परिणाम: 84 लाख योनियों में भ्रमण।
- संसार का स्वरूप: यहाँ सुख-दुःख केवल मन की कल्पना (आरोप) है, जैसे स्वप्न में शेर का डर।
- कर्तापन का भ्रम: कार्य प्रकृति के गुणों द्वारा होते हैं (Gita 3.27), लेकिन अहंकार के कारण जीव मानता है 'मैं कर रहा हूँ'।
- सूक्ष्म अहंकार: अर्जुन जैसे महापुरुष को भी अपनी वीरता का गर्व हुआ, जिसे भगवान ने द्वारका लीला द्वारा दूर किया।
- स्वयं को 'चिद्-वस्तु' (आत्मा) मानें और भगवान से सम्बन्ध जोड़ें।
- सुख-दुःख को शरीर का धर्म मानकर सहन करें (तितिक्षा)।
- शरीर में 'मैं' और संसार में 'मेरा' (Mamata) का भाव न रखें।
- अपनी साधना, तपस्या या शक्ति का घमंड न करें।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
ahaṅkāra-vimūḍhātmā kartāham iti manyate ||
द्वारका में एक ब्राह्मण के लगातार पुत्र जन्म लेते ही मर जाते थे। ब्राह्मण ने इसके लिए कृष्ण को दोष दिया। तब अर्जुन ने क्रोधावेश में आकर अपनी वीरता पर भरोसा करते हुए प्रतिज्ञा ली कि वह उन पुत्रों की रक्षा करेंगे। जब वे अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी असफल हुए, तो कृष्ण उन्हें अपने साथ लेकर भगवान (महाविष्णु) के धाम गए और उन्हें पुत्र दिखाए। इस लीला के माध्यम से भगवान ने अर्जुन का सूक्ष्म अहंकार तोड़ा।
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