साधक प्रश्नोत्तरी: मन, मोह और समर्पण | Q&A: Mind, Attachment, and Surrender [Satsang : Nov 14, 2025]

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श्री भगवत चर्चा
14-11-2025

साधक प्रश्नोत्तरी (Sadhak Q&A)

साधक प्रश्नोत्तरी: मन, साधना और समर्पण पर विशेष चर्चा

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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संक्षेप विस्तार
हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
भगवान कहते हैं: 'यदि तुम अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनोगे, तो नष्ट हो जाओगे। और यदि मुझे हृदय में धारण करोगे, तो मेरी कृपा से समस्त दुर्गति से पार हो जाओगे।' (गीता 18.58)
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सत्संग की आवश्यकता

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भक्त मुख से हरि कथा सुनना जीवन का परम लाभ है। यह सत्संग हमारे चित्त का शोधन करता है और भ्रांतियों को मिटाता है। बाबा बताते हैं कि निष्किंचन भक्त के मुख से हरि कथा श्रवण करना मनुष्य जीवन में सबसे मंगलकारी है। सत्संग का अर्थ ही है अपने चित्त का शोधन करना। साधक जीवन में अनजाने में कई भूलें हो जाती हैं, जिनका सुधार केवल महत सानिध्य और प्रश्नोत्तर के माध्यम से ही संभव है।
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दृष्टांत: मन और मक्खी

06:10
मन मक्खी जैसा है, जहाँ रुचि होती है वहीं बैठता है। जबरदस्ती हटाने से नहीं हटेगा, इसे हरि-कथा में रुचि बढ़ाकर ही जीता जा सकता है। बाबा समझाते हैं कि मन मक्खी के समान है। जैसे मक्खी को बार-बार उड़ाने पर भी वह वहीं लौटती है जहाँ उसकी रुचि (गंदगी या मिठाई) हो, वैसे ही मन आसक्ति के विषयों पर लौटता है। इसे रोकने के लिए बल प्रयोग काम नहीं आता, बल्कि सत्संग और हरि-कथा श्रवण द्वारा भगवान में रुचि बढ़ाना ही एकमात्र उपाय है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: व्यर्थ चिंतन से कैसे बचें? 06:10
उत्तर: मन मक्खी जैसा है, जहां रुचि होती है वहीं जाता है। इसे जबरदस्ती नहीं रोका जा सकता, हरि-कथा से रुचि बदलें। उत्तर: बाबा कहते हैं कि मन का स्वभाव है वहां जाना जहां आसक्ति है। इसे बलपूर्वक नहीं रोका जा सकता। उपाय यह है कि सत्संग और हरि-कथा सुनकर भगवान में रुचि बढ़ाई जाए, जिससे मन स्वतः संसार से हटने लगेगा।
प्रश्न: नाम जप में व्यर्थ चिंतन से मन न लगे तो क्या करें? 12:04
उत्तर: जोर-जोर से कीर्तन (उच्चारण) करें। नाम और नामी अभिन्न हैं, इसलिए उच्चारण भी चिंतन ही है। उत्तर: बाबा समाधान देते हैं कि यदि मन बहुत भटक रहा है और जप में नहीं लग रहा, तो जोर-जोर से नाम कीर्तन करना चाहिए। चूंकि भगवान का नाम और स्वयं भगवान (नामी) में कोई भेद नहीं है, इसलिए जिह्वा से नाम का स्पष्ट उच्चारण करना भी श्रेष्ठ भगवत-चिंतन ही माना जाता है।
प्रश्न: क्या रोना/आंसू बहाना चेष्टा (Effort) से होता है? 14:05
उत्तर: नहीं, आंसू प्रेम और अभाव-बोध में स्वाभाविक आते हैं। बनावटी रोने का कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं है। उत्तर: बाबा स्पष्ट करते हैं कि आंसू बहाना कोई व्यायाम नहीं है। जैसे प्रियजन के वियोग में रोना स्वाभाविक आता है, वैसे ही जब हृदय में प्रभु के प्रति तीव्र अभाव बोध जागृत होता है, तो अश्रुधारा स्वतः बहती है। जबरदस्ती 'राधे-राधे' कहकर रोने का नाटक करने से कोई लाभ नहीं है।
प्रश्न: दोबारा जन्म न हो इसके लिए क्या करना चाहिए? 16:20
उत्तर: हृदय में रंच मात्र भी संसारिक आसक्ति नहीं होनी चाहिए। यदि किसी वस्तु या व्यक्ति में मोह है, तो वापस आना पड़ेगा। उत्तर: दोबारा जन्म न लेने का एक ही उपाय है—हृदय में राधा रानी के चरणों को छोड़कर अन्य किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति न रहे। यदि अंत समय में पुत्र, परिजन या किसी भोग्य पदार्थ में थोड़ी भी स्पृहा (इच्छा) रह गई, तो जीव को अपने संस्कारों के वश होकर पुनः संसार चक्र में आना ही पड़ता है।
प्रश्न: नाम जप या आरती में शरीर में झटके क्यों लगते हैं? 19:25
उत्तर: यह चित्त शुद्धि का शुभ लक्षण है। भागवत के अनुसार, बिना रोमांच और अश्रु के चित्त पूर्ण शुद्ध नहीं माना जाता। उत्तर: यह बहुत ही शुभ लक्षण है। बाबा श्रीमद्भागवत (11.14.23) का प्रमाण देते हुए कहते हैं कि यदि भगवान के नाम-गुणानुवाद से हृदय द्रवित नहीं होता, रोमांच नहीं होता और आनंद के आंसू नहीं आते, तो समझना चाहिए कि अभी चित्त पूरी तरह शुद्ध नहीं हुआ है। अतः यह पूर्व संस्कारों का फल है।
प्रश्न: नाम जप को गुरु को कैसे समर्पित करें? 21:55
उत्तर: "मैंने किया" का अभिमान त्यागना ही समर्पण है। यह भाव रखें कि प्रभु ही कृपा करके मुझसे नाम करवा रहे हैं। उत्तर: केवल नाम जप करके अंत में कह देना कि "मैं आपको सौंपता हूँ", यह समर्पण नहीं है, क्योंकि इसमें कर्तापन का अभिमान है। सच्चा समर्पण है निराभिमान होकर यह मानना कि प्रभु की शक्ति और कृपा से ही जिह्वा नाम ले पा रही है।
प्रश्न: क्या भक्ति में आने वाली प्रतिकूलता हटाने की प्रार्थना करें? 24:43
उत्तर: नहीं, प्रार्थना करने की बजाय "तमेव शरणं गच्छ" (पूर्ण शरणागति) का भाव लाएं। भगवान अहंकार तोड़ने के लिए ही बाधाएं लाते हैं। उत्तर: बाबा कहते हैं कि प्रतिकूलता को हटाने की प्रार्थना न करें। भगवान साधक के अहंकार को नष्ट करने के लिए ही प्रतिकूल परिस्थितियां लाते हैं। साधक को चाहिए कि वह "तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन" (गीता 18.62) के अनुसार सर्वभाव से भगवान की शरण में जाए, वे स्वयं कृपा करके शांति प्रदान करेंगे।
प्रश्न: संसार में रहकर बिना मोह के जिम्मेदारी कैसे निभाएं? 30:00
उत्तर: "मैं राधा रानी की हूँ, यह शरीर मेरा नहीं" - इस भाव से कर्तव्य करें। उत्तर: परिवार और जिम्मेदारियों को निभाते समय यह भाव रखना सर्वोत्तम है कि "मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर और संबंधी मेरे नहीं हैं, मैं केवल राधा रानी की हूँ"। यद्यपि यह कठिन है, परन्तु निरन्तर नाम-जप और शरणागति से भगवान स्वयं भीतर से ऐसी बुद्धि (ददामि बुद्धियोगं तं) प्रदान कर देते हैं।
करें (Do's)
  • मन न लगने पर भी जोर-जोर से कीर्तन (उच्चारण) करें, यह मन को एकाग्र करने का अचूक उपाय है।
  • प्रतिकूल परिस्थितियों को भगवान की कृपा मानें और "तमेव शरणं गच्छ" के भाव से पूर्ण समर्पित रहें।
  • हर समय यह अभ्यास करें कि "मैं शरीर नहीं हूँ, मैं राधा रानी की हूँ" (अहम अज्ञानजम तमः नाशयामि)।
न करें (Don'ts)
  • व्यर्थ चिंतन से लड़ें नहीं, उसे जबरदस्ती हटाने का प्रयास न करें, बल्कि हरि-कथा से रुचि बदलें।
  • भक्ति मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाने की प्रार्थना न करें, क्योंकि वे अहंकार तोड़ने आती हैं।
  • नाम-जप या साधन का "कर्तापन" (Doership) का अभिमान न रखें कि "मैंने इतना जप किया"।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited) किए गए हैं।
Srimad Bhagavatam 11.14.23 सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
चित्त शुद्धि के लक्षण (रोमांच और अश्रु) पर बाबा द्वारा दिया गया प्रमाण।
कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।
विनानन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाशयः ॥
भावार्थ: यदि रोमांच न हो, चित्त पिघल न जाय और आनन्द के आँसू न छलक आयें, तो चित्त का मैल कैसे धुल सकता है?
Bhagavad Gita 10.10 सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
बाबा समझाते हैं कि समर्पित भक्त को भगवान स्वयं बुद्धियोग (ज्ञान) देते हैं।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
भावार्थ: जो नित्य-निरन्तर मुझमें लगे रहकर प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उनको मैं वह 'बुद्धियोग' (तत्वज्ञान रूपी बुद्धि) प्रदान करता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं।
Bhagavad Gita 10.11 सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
भगवान भक्त के हृदय में स्थित अज्ञान के अंधकार को कैसे नष्ट करते हैं, इसका वर्णन।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
भावार्थ: उन पर विशेष अनुग्रह करने के लिए, मैं उनके हृदय में स्थित होकर अज्ञानजनित अन्धकार को देदीप्यमान ज्ञान रूपी दीपक द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
Bhagavad Gita 18.62 सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited)
प्रतिकूलताओं में "तमेव शरणं गच्छ" का उपदेश।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
भावार्थ: हे अर्जुन! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को प्राप्त होगा।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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