मैं कौन हूँ? जीव या आत्मा? (Who am I ? Soul or Body?) [Satsang : Dec 13, 2025]

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श्री भगवत चर्चा
13 Dec 2025

जीव और अहंकार (Jiva & Ego)

जीव दुःख क्यों भोगता है? स्वरूप विस्मृति और अहंकार

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba Ji Maharaj
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संक्षेप विस्तार

💤 स्वरूप विस्मृति (Nature of Soul) देखें

जीव भगवान का अंशी होकर भी 'स्वरूप विस्मृति' (स्वयं को भूलने) के कारण दुखी है, जैसे स्वप्न में राजा भी भिखारी बनकर रोता है。

सद्गुरुदेव समझाते हैं कि यद्यपि जीव भगवान का नित्य, अखंड और आनंदमय अंश है, फिर भी वह दुखी है। इसका कारण है 'स्वरूप विस्मृति'। जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न में भयंकर दृश्य देखकर रोता है, जबकि वह सुरक्षित बिस्तर पर सोया है, वैसे ही आत्मा माया के प्रभाव से स्वयं को शरीर मानकर संसार के सुख-दुःख भोग रही है。

🎂 जन्मदिन किसका? (Whose Birthday?) देखें

हम जन्मदिन मनाते हैं, पर जन्म तो शरीर का हुआ है, आत्मा का नहीं। आत्मा अजन्मा और नित्य है। यह अज्ञान है。

गुरुदेव कहते हैं कि जब लोग जन्मदिन मनाते हैं तो उन्हें हंसी आती है। "किसका जन्मदिन मना रहे हो?" आत्मा तो पहले भी थी और आगे भी रहेगी। जन्म केवल शरीर का हुआ है, जिसे हमने 'मैं' मान लिया है। यह अज्ञान ही संसार में फंसने का कारण है。

🔋 जड़ और चेतन (Matter vs Spirit) देखें

शरीर पंखे की तरह जड़ है, जो केवल बिजली (आत्मा) के संयोग से चलता है। हम गलती से इस जड़ शरीर को ही 'मैं' मान बैठते हैं。

शरीर और आत्मा का संबंध समझाने के लिए गुरुदेव बिजली और पंखे का उदाहरण देते हैं। पंखा (शरीर) जड़ है, वह स्वयं नहीं चल सकता। बिजली (आत्मा) भी निराकार शक्ति है। जब दोनों मिलते हैं, तो पंखा घूमने लगता है। हम गलती यह करते हैं कि घूमने वाले पंखे (शरीर) को ही कर्ता मान लेते हैं, जबकि शक्ति आत्मा की है。

🎭 अहंकार का खेल (Game of Ego) देखें

अहंकार इतना सूक्ष्म है कि गोवर्धन लीला में क्षमा मांगने के बाद भी इन्द्र दोबारा पारिजात वृक्ष के लिए भगवान से लड़ने को तैयार हो गया。

यह अहंकार की बहुत बड़ी शिक्षा है। इन्द्र ने गोवर्धन पूजा के समय भगवान से क्षमा मांगी थी, सुरभि गाय भेंट की थी। लेकिन वही इन्द्र, जब सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष मांगा गया, तो फिर से भगवान से युद्ध करने लगा। इसका अर्थ है कि अहंकार आसानी से नहीं मरता, यह बार-बार लौटकर आता है。

❓ प्रश्न-उत्तर (Question & Answer)

प्रश्न: यदि हम भगवान के अंश हैं, तो 'जीव' क्यों कहलाते हैं? देखें

जब आत्मा भूत, इन्द्रियाँ, और अंतःकरण (मन-बुद्धि-अहंकार) के साथ तादात्म्य कर लेती है, तब उसे 'जीव' कहा जाता है。

यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। गुरुदेव कपिल मुनि के वचनों का उद्धरण देते हुए समझाते हैं: "भूतेंद्रिय अंतःकरण प्रधानात जीव संगीतात"। अर्थात, यद्यपि हम मूल रूप से चेतन आत्मा हैं, परंतु जब हम पंचमहाभूत (शरीर), इन्द्रियों और अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) को 'मैं' मानकर उनमें रम जाते हैं, तब इस मिश्रित अवस्था को 'जीव' या 'जीवात्मा' की संज्ञा दी जाती है। शुद्ध अवस्था में हम केवल आत्मा (दृष्टा) हैं。

गुरुदेव की वाणी
"मैं शरीर हूँ और शरीर सम्बन्धी वस्तु मेरी है - यह 'जड़ वृत्ति' है। यह अहंकार बड़ा खतरनाक है, यह आसानी से जाता नहीं। जब तक जीव अपने स्वरूप में स्थित नहीं होता, तब तक यह नाटक चलता रहेगा।"
⚡ बिजली (चेतना) / Electricity
जैसे बिजली अदृश्य होकर भी पंखे को घुमाती है, वैसे ही आत्मा (चेतन) शरीर (जड़) को चलाती है। बिजली ही शक्ति है, पंखा नहीं。

VS
🌀 पंखा (जड़ शरीर) / Fan
बिजली के बिना पंखा मात्र लोहे का टुकड़ा है। वैसे ही आत्मा के बिना शरीर शव (मुर्दा) है। हम गलती से पंखे (शरीर) को ही कर्ता मान लेते हैं。

✨ सार-संक्षेप (Summary)
  • आत्म-विस्मृति: हम भगवान के अंश हैं, लेकिन शरीर मानकर संसार में फंस गए हैं。

  • अहंकार का बंधन: 'मैं' और 'मेरा' का भाव (जड़ वृत्ति) ही पुनर्जन्म का कारण है。

  • इन्द्र की दूसरी गलती: गोवर्धन लीला में क्षमा मिलने के बाद भी इन्द्र का अहंकार नहीं गया, उसने फिर से भगवान का विरोध किया。

✅ क्या करें (Do's)
  • स्वयं को भगवान का अंश (आत्मा) मानें, शरीर नहीं。

  • चित् अहंकार (मैं दास हूँ) को जागृत करें。

  • साक्षात् भगवान 'गिरिराज जी' की उपासना करें。

❌ क्या न करें (Don'ts)
  • जन्मदिन आदि में अत्यधिक आसक्ति न रखें (यह केवल शरीर का है)。

  • संसार की वस्तुओं (मेरा घर, मेरा पैसा) में 'मेरेपन' का अहंकार न करें。

  • पद-प्रतिष्ठा का अभिमान न करें (देवताओं का भी अभिमान टूट जाता है)。

📜 शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)
इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित किए गए हैं, साथ ही विषय को स्पष्ट करने के लिए अन्य पूरक सन्दर्भ भी दिए गए हैं।
श्रीमद्भागवत (3.26 - कपिल-देवहूति संवाद) सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित
जीव (Jiva) और आत्मा (Soul) का भेद और परिभाषा बताते हुए गुरुदेव ने कपिल मुनि के सांख्य योग सिद्धांत का उल्लेख किया:
भूतेन्द्रियान्तःकरण-प्रधानात् जीवसंज्ञितात् । आत्मा तथा पृथग्द्रष्टा भगवान् ब्रह्मसंज्ञितः ॥
bhūtendriyāntaḥ-karaṇa-pradhānāt jīva-saṁjñitāt | ātmā tathā pṛthag draṣṭā bhagavān brahma-saṁjñitaḥ ||
पंचमहाभूत, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) और प्रधान (प्रकृति) - इन सबके संयोग को 'जीव' कहते हैं। आत्मा इन सबसे अलग, इनका साक्षी (दृष्टा) और ब्रह्म रूप है।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7 सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित
जीव के वास्तविक स्वरूप (अंश) और उसके संघर्ष (प्रकृति-स्थानी) का वर्णन करते हुए गुरुदेव कहते हैं:
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
mamaivāṁśo jīva-loke jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi prakṛti-sthāni karṣati
इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, परन्तु प्रकृति में स्थित होकर वह मन सहित पाँचों इन्द्रियों को (विषयों की ओर) आकर्षित करता है (संघर्ष करता है)।
रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड 117.2) पूरक संदर्भ (Supplementary)
गुरुदेव के इस कथन की "जीव भगवान का अभिन्न अंश है", पुष्टि गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में:
ईश्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
īśvara aṁsa jīva abināsī | cetana amala sahaja sukha rāsī ||
यह जीव ईश्वर का अंश है, (अतः) अविनाशी है, चेतन है, निर्मल है और स्वभाव से ही सुख की राशि है।
चैतन्य चरितामृत (मध्य 20.108) गौड़ीय सिद्धांत (Doctrine)
गुरुदेव ने 'चित् अहंकार' (मैं दास हूँ) को जागृत करने की बात कही। महाप्रभु चैतन्य देव जीव के इसी स्वरूप को बताते हैं:
जीवेर ‘स्वरूप’ हय—कृष्णेर ‘नित्य-दास’ । कृष्णेर ‘तटस्था-शक्ति’ ‘भेदाभेद-प्रकाश’ ॥
jīvera ‘svarūpa’ haya—kṛṣṇera ‘nitya-dāsa’ | kṛṣṇera ‘taṭasthā-śakti’ ‘bhedābheda-prakāśa’ ||
जीव का वास्तविक स्वरूप यही है कि वह श्रीकृष्ण का नित्य दास है। वह भगवान की तटस्था शक्ति है और उनसे भेदाभेद (एक होकर भी अलग) प्रकाश है।
श्रीमद्भागवत पुराण कथा (10.59) कथा प्रसंग
अहंकार कितना सूक्ष्म और खतरनाक होता है, इसे समझाने के लिए सत्यभामा और इन्द्र का प्रसंग:
प्रसंग: पारिजात हरण और इन्द्र का मोह

भगवान श्रीकृष्ण ने पहले गोवर्धन पूजा में इन्द्र का मान मर्दन किया था, जिसके बाद इन्द्र ने लज्जित होकर क्षमा मांगी थी। लेकिन जब बाद में सत्यभामा की जिद्द पर भगवान पारिजात वृक्ष लेने स्वर्ग गए (स्कंध 10, अध्याय 59), तो वही इन्द्र फिर से वृक्ष के मोह में भगवान से लड़ने को तैयार हो गए। यह प्रसंग सिद्ध करता है कि एक बार क्षमा मांगने पर भी 'अहंकार' पूरी तरह नष्ट नहीं होता, यह दोबारा हावी हो जाता है。

⚠️ स्पष्टीकरण: यह सारांश AI द्वारा गुरु सेवा में तैयार किया गया है।

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