जीव और अहंकार (Jiva & Ego)
जीव दुःख क्यों भोगता है? स्वरूप विस्मृति और अहंकार
💤 स्वरूप विस्मृति (Nature of Soul) देखें ▶
जीव भगवान का अंशी होकर भी 'स्वरूप विस्मृति' (स्वयं को भूलने) के कारण दुखी है, जैसे स्वप्न में राजा भी भिखारी बनकर रोता है。
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि यद्यपि जीव भगवान का नित्य, अखंड और आनंदमय अंश है, फिर भी वह दुखी है। इसका कारण है 'स्वरूप विस्मृति'। जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न में भयंकर दृश्य देखकर रोता है, जबकि वह सुरक्षित बिस्तर पर सोया है, वैसे ही आत्मा माया के प्रभाव से स्वयं को शरीर मानकर संसार के सुख-दुःख भोग रही है。
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हम जन्मदिन मनाते हैं, पर जन्म तो शरीर का हुआ है, आत्मा का नहीं। आत्मा अजन्मा और नित्य है। यह अज्ञान है。
गुरुदेव कहते हैं कि जब लोग जन्मदिन मनाते हैं तो उन्हें हंसी आती है। "किसका जन्मदिन मना रहे हो?" आत्मा तो पहले भी थी और आगे भी रहेगी। जन्म केवल शरीर का हुआ है, जिसे हमने 'मैं' मान लिया है। यह अज्ञान ही संसार में फंसने का कारण है。
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शरीर पंखे की तरह जड़ है, जो केवल बिजली (आत्मा) के संयोग से चलता है। हम गलती से इस जड़ शरीर को ही 'मैं' मान बैठते हैं。
शरीर और आत्मा का संबंध समझाने के लिए गुरुदेव बिजली और पंखे का उदाहरण देते हैं। पंखा (शरीर) जड़ है, वह स्वयं नहीं चल सकता। बिजली (आत्मा) भी निराकार शक्ति है। जब दोनों मिलते हैं, तो पंखा घूमने लगता है। हम गलती यह करते हैं कि घूमने वाले पंखे (शरीर) को ही कर्ता मान लेते हैं, जबकि शक्ति आत्मा की है。
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अहंकार इतना सूक्ष्म है कि गोवर्धन लीला में क्षमा मांगने के बाद भी इन्द्र दोबारा पारिजात वृक्ष के लिए भगवान से लड़ने को तैयार हो गया。
यह अहंकार की बहुत बड़ी शिक्षा है। इन्द्र ने गोवर्धन पूजा के समय भगवान से क्षमा मांगी थी, सुरभि गाय भेंट की थी। लेकिन वही इन्द्र, जब सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष मांगा गया, तो फिर से भगवान से युद्ध करने लगा। इसका अर्थ है कि अहंकार आसानी से नहीं मरता, यह बार-बार लौटकर आता है。
❓ प्रश्न-उत्तर (Question & Answer)
जब आत्मा भूत, इन्द्रियाँ, और अंतःकरण (मन-बुद्धि-अहंकार) के साथ तादात्म्य कर लेती है, तब उसे 'जीव' कहा जाता है。
यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। गुरुदेव कपिल मुनि के वचनों का उद्धरण देते हुए समझाते हैं: "भूतेंद्रिय अंतःकरण प्रधानात जीव संगीतात"। अर्थात, यद्यपि हम मूल रूप से चेतन आत्मा हैं, परंतु जब हम पंचमहाभूत (शरीर), इन्द्रियों और अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) को 'मैं' मानकर उनमें रम जाते हैं, तब इस मिश्रित अवस्था को 'जीव' या 'जीवात्मा' की संज्ञा दी जाती है। शुद्ध अवस्था में हम केवल आत्मा (दृष्टा) हैं。
- आत्म-विस्मृति: हम भगवान के अंश हैं, लेकिन शरीर मानकर संसार में फंस गए हैं。
- अहंकार का बंधन: 'मैं' और 'मेरा' का भाव (जड़ वृत्ति) ही पुनर्जन्म का कारण है。
- इन्द्र की दूसरी गलती: गोवर्धन लीला में क्षमा मिलने के बाद भी इन्द्र का अहंकार नहीं गया, उसने फिर से भगवान का विरोध किया。
- स्वयं को भगवान का अंश (आत्मा) मानें, शरीर नहीं。
- चित् अहंकार (मैं दास हूँ) को जागृत करें。
- साक्षात् भगवान 'गिरिराज जी' की उपासना करें。
- जन्मदिन आदि में अत्यधिक आसक्ति न रखें (यह केवल शरीर का है)。
- संसार की वस्तुओं (मेरा घर, मेरा पैसा) में 'मेरेपन' का अहंकार न करें。
- पद-प्रतिष्ठा का अभिमान न करें (देवताओं का भी अभिमान टूट जाता है)。
भगवान श्रीकृष्ण ने पहले गोवर्धन पूजा में इन्द्र का मान मर्दन किया था, जिसके बाद इन्द्र ने लज्जित होकर क्षमा मांगी थी। लेकिन जब बाद में सत्यभामा की जिद्द पर भगवान पारिजात वृक्ष लेने स्वर्ग गए (स्कंध 10, अध्याय 59), तो वही इन्द्र फिर से वृक्ष के मोह में भगवान से लड़ने को तैयार हो गए। यह प्रसंग सिद्ध करता है कि एक बार क्षमा मांगने पर भी 'अहंकार' पूरी तरह नष्ट नहीं होता, यह दोबारा हावी हो जाता है。
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