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श्री भगवत चर्चा
17 December 2025

जीव का स्वरूप-विस्मृति और अहंकार का बंधन।

अहंकार के कारण जीव कैसे अपने आनंदमय स्वरूप को भूलकर संसार चक्र में फँस गया है और उससे मुक्ति का उपाय।

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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Language Selection (Hindi):
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" भगवान से संबंध जोड़ा नहीं जाता है। वह जुड़ी जुड़ाई है। तुम भूल गए हो यह भूल को मिटाना है। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

भगवान (49) आनंद (39) शरीर (36) अहंकार (30) लीला (30) कारण (29) आत्मा (27) संसार (22) स्वरूप (20) संबंध (19)
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भगवान से नित्य संबंध

भगवान से संबंध नित्य है, उसे बनाने की आवश्यकता नहीं

▶ देखें (1:30) ▶ Watch (1:30)
भगवान से संबंध जोड़ा नहीं जाता, वह पहले से ही जुड़ा हुआ है। संसार से संबंध तोड़ा नहीं जाता, क्योंकि वह कभी था ही नहीं। हमें केवल अपनी विस्मृति को मिटाना है। लोग कहते हैं 'भगवान से संबंध जोड़ो, माया से संबंध तोड़ो', परन्तु यह कथन सत्य नहीं है। सदगुरुदेव समझाते हैं कि आत्मा का परमात्मा से संबंध नित्य, अखंड और अविच्छेद्य है। यह कोई बनावटी संबंध नहीं जिसे बनाना पड़े। हम केवल अपने स्वरूप को भूल गए हैं, और इसी भूल को मिटाना ही साधना का मुख्य उद्देश्य है।
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दृष्टांत: संसार एक स्वप्न की तरह है

दृष्टांत: स्वप्न जगत के माध्यम से संसार की असत्यता का बोध

▶ देखें (3:40) ▶ Watch (3:40)
जैसे स्वप्न में हम एक काल्पनिक शरीर से काल्पनिक संसार को सत्य मानकर सुख-दुःख भोगते हैं, वैसे ही जाग्रत अवस्था में हम इस संसार को सत्य मानकर भ्रम में जी रहे हैं। सदगुरुदेव ने संसार की वास्तविकता को स्वप्न के दृष्टांत से समझाया। जैसे स्वप्न में न शरीर होता है, न संसार, फिर भी हम एक काल्पनिक शरीर के माध्यम से काल्पनिक सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। इसका कारण है सोया हुआ जीवात्मा जो आरोप-प्रत्यारोप कर लेता है। ठीक इसी प्रकार, अहंकार के कारण हम इस पंचभौतिक शरीर को 'मैं' मानकर इस मिथ्या संसार में सुख-दुःख का अनुभव कर रहे हैं, जबकि वास्तव में आत्मा का इससे कोई संबंध नहीं है।
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भौतिक आनंद की क्षणभंगुरता

क्रमह्रासमान उपयोग विधि: भौतिक आनंद का सत्य

▶ देखें (7:25) ▶ Watch (7:25)
सांसारिक वस्तुओं से मिलने वाला आनंद स्थायी नहीं होता। जैसे रसगुल्ला खाने पर आनंद क्रमशः घटता जाता है और अंत में अरुचि होने लगती है, यही भौतिक सुख का स्वभाव है। प्रकृति से आनंद प्राप्त करने का प्रयास हमेशा विफल होता है। सदगुरुदेव रसगुल्ले का उदाहरण देते हैं: पहला रसगुल्ला आनंद देता है, दूसरा उससे कम, तीसरा और भी कम, और पाँचवाँ खाने पर उल्टी आ सकती है। यदि वस्तु में सच्चा आनंद होता, तो वह कभी कम नहीं होता। यह सिद्ध करता है कि विषयों में आनंद नहीं है, यह केवल हमारी कल्पना और मान्यता है।
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बंधन का मूल कारण: अहंकार

अहंकार: जीवात्मा और परमात्मा के बीच का आवरण

▶ देखें (9:20) ▶ Watch (9:20)
जीवात्मा और परमात्मा के बीच अहंकार ही एक आवरण बनकर खड़ा है। यही 'मैं कर्ता हूँ' का अभिमान जीव को संसार चक्र में फँसाकर कर्मों का फल भोगने पर विवश करता है। जीव के दुःख और संसार में बार-बार जन्म-मृत्यु का मूल कारण अहंकार है। यह अहंकार ही जीव को कर्ता और भोक्ता होने का मिथ्या अभिमान देता है। गीता के अनुसार, सारे कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, पर अहंकार से मोहित आत्मा स्वयं को कर्ता मान बैठती है। यह कर्तृत्व का भाव ही उसे कर्म बंधन में बाँधता है और अपने वास्तविक आनंदमय स्वरूप से दूर कर देता है।
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ब्रह्मा का मोह और भगवान की मुग्ध लीला

ब्रह्मा मोह लीला: भगवान की सर्वज्ञता और मुग्धता का रहस्य

▶ देखें (20:50) ▶ Watch (20:50)
जब ब्रह्माजी ने भगवान कृष्ण को ग्वालबालों का जूठा खाते देखा तो वे भ्रमित हो गए। यह समझने के लिए कि यह पूर्णब्रह्म कैसे हो सकते हैं, उन्होंने ग्वालबालों और बछड़ों का हरण कर लिया। द्वापर युग में, जब भगवान कृष्ण अपने सखाओं के साथ भोजन कर रहे थे और उनका जूठा खा रहे थे, तब ब्रह्माजी यह देखकर मोहित हो गए। उन्हें संदेह हुआ कि क्या यही पूर्ण ब्रह्म सनातन हैं जो ऐसा प्राकृत व्यवहार कर रहे हैं। उनकी परीक्षा लेने के लिए, ब्रह्माजी ने सभी ग्वालबालों और बछड़ों को अपनी योगमाया से अदृश्य कर एक गुफा में छिपा दिया। भगवान कृष्ण तुरंत समझ गए कि यह ब्रह्माजी का कार्य है। तब उन्होंने अपने ही स्वरूप से उतने ही ग्वालबाल और बछड़े प्रकट कर दिए और एक वर्ष तक लीला चलती रही, जिसका किसी को पता नहीं चला। यह लीला भगवान की अचिन्त्य शक्ति और उनकी योगमाया के प्रभाव को दर्शाती है, जिसके द्वारा वे भक्तों के साथ आनंद के लिए मुग्ध (अनजान) होने का भी नाटक करते हैं।
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योगमाया और महामाया

योगमाया और महामाया: बंधन और लीला की शक्तियाँ

▶ देखें (25:40) ▶ Watch (25:40)
महामाया जीव को संसार में बांधती है, जबकि योगमाया भगवान की अंतरंग शक्ति है जो उनकी दिव्य लीलाओं को संभव बनाती है और उन्हें आनंद प्रदान करती है। सदगुरुदेव ने भगवान की दो प्रमुख शक्तियों के बीच अंतर स्पष्ट किया। महामाया (अविद्या माया) जीव पर आवरण डालकर उसे स्वरूप की विस्मृति कराती है और अहंकार के द्वारा संसार चक्र में घुमाती है। इसके विपरीत, योगमाया भगवान की चिन्मय, दिव्य शक्ति है। यह उनकी अंतरंग लीला शक्ति है, जो वृंदावन की लीलाओं में भगवान को मुग्धता प्रदान करती है ताकि वे लीला रस का आस्वादन कर सकें। यह शक्ति भक्तों को भगवान की लीला में प्रवेश कराती है।

✨ विशेष उल्लेख (Special Mentions)

📋 जीवात्मा के दो स्वरूप ▶ 13:40 ▶ Watch
  • जड़ स्वरूप: 'मैं यह शरीर हूँ' - यह अविद्याजनित अहंकार है जो बंधन का कारण है।
  • चित् स्वरूप: 'मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ, भगवान का अंश हूँ' - यह वास्तविक स्वरूप है जो मुक्ति का मार्ग है।
📋 उपासना के तीन प्रकार ▶ 28:50 ▶ Watch
  • ब्रह्म उपासना: निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना।
  • ऐश्वर्य ज्ञानमय उपासना: भगवान के ऐश्वर्य और ज्ञान से युक्त स्वरूप की उपासना।
  • माधुर्यमय उपासना: भगवान के मधुर, प्रेममय स्वरूप की उपासना (जैसे वृंदावनी उपासना)।
✨ श्री रामकृष्ण परमहंस का दृष्टांत ▶ 20:10 ▶ Watch
"सदगुरुदेव ने श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का दृष्टांत देते हुए समझाया कि जैसे एक ही तालाब के अनेक घाट होते हैं और लोग अलग-अलग घाट से जल लेते हैं, वैसे ही विभिन्न उपासना पद्धतियाँ एक ही सच्चिदानंद सागर तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं। सभी मार्ग अंततः एक ही भगवान तक ले जाते हैं।"
🧱 जड़ अहंकार (अविद्या)
इसका स्वरूप है 'मैं शरीर हूँ, और शरीर से जुड़ी वस्तुएँ मेरी हैं'। यह बंधन और त्रिताप का मूल कारण है।
VS
🪔 चिद् अहंकार (विद्या)
इसका स्वरूप है 'मैं शरीर नहीं, मैं राधारानी की दासी हूँ, राधारानी मेरी हैं'। यह मुक्ति और दिव्य प्रेम का सोपान है।
⛓️ महामाया (बहिरंगा शक्ति)
यह जीव को संसार चक्र में फँसाती है। यह स्वरूप को भुलाकर 'मैं कर्ता हूँ' का अभिमान देती है।
VS
🌸 योगमाया (अंतरंगा शक्ति)
यह भगवान की दिव्य लीलाओं को प्रकट करती है। यह भगवान को भी मुग्ध करके लीला रस का आस्वादन कराती है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: आज परम पूज्य श्री प्रेमानंद महाराज जी पधारे थे तो आप कैसा महसूस किए? ▶ देखें (30:22) ▶ Watch (30:22)
उत्तर: सदगुरुदेव ने कहा कि वे स्वयं को बहुत धन्य और कृतार्थ मानते हैं। ऐसे महापुरुषों का आगमन राधारानी की अहैतुकी कृपा का ही फल है, जो हमें कृतार्थ करने और हमारे हृदय को निर्मल करने के लिए आते हैं। उत्तर: सदगुरुदेव ने अत्यंत विनम्रता से उत्तर दिया कि महापुरुष 'जड़ अभिमान' से मुक्त होते हैं। श्री प्रेमानंद महाराज जी का आगमन स्वयं राधारानी की प्रेरणा और अहैतुकी कृपा है। सदगुरुदेव ने कहा, 'हम तो उस लायक नहीं कि ऐसे महापुरुष हमारे यहाँ आएँ'। उन्होंने महाराज जी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया और राधारानी से प्रार्थना की कि वे उन्हें स्वस्थ रखें ताकि वे लंबे समय तक संसार का कल्याण करते रहें और राधा-प्रेम की वर्षा करते रहें। उनके सानिध्य को पाकर वे स्वयं को कृतकृत्य मानते हैं।
✅ करें (Do's)
  • गुरु, संत और शास्त्र की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करें।
  • यह मनन और चिंतन करें कि 'मैं शरीर नहीं, बल्कि चिन्मय, दिव्य, आनंदमय आत्मा हूँ'।
  • 'मैं राधारानी का हूँ, राधारानी मेरी हैं' - इस चिद् अहंकार को अपने जीवन में धारण करें।
❌ न करें (Don'ts)
  • 'मैं यह शरीर हूँ और मैं ही कर्ता हूँ' - इस जड़ अभिमान में न रहें।
  • सांसारिक विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में स्थायी आनंद खोजने की व्यर्थ चेष्टा न करें।
  • आध्यात्मिक मार्ग में कठिनाई आने पर यह न सोचें कि 'मुझसे नहीं होगा' या निराश न हों।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित (Recited) किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
भगवद् गीता 3.27 Bhagavad Gita 3.27 ▶ देखें (9:55) ▶ Watch (9:55) सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित Recited by Sadgurudev
यह श्लोक यह समझाने के लिए उद्धृत किया गया है कि जीव के बंधन का मूल कारण उसका कर्तृत्व अभिमान (अहंकार) है, जबकि वास्तव में वह कर्ता नहीं है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
prakṛteḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ | ahaṅkāravimūḍhātmā kartāham iti manyate ||
सारे कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किये जाते हैं, परन्तु अहंकार से मोहित हुआ मूर्ख व्यक्ति 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेता है।
भगवद् गीता 18.17 Bhagavad Gita 18.17 ▶ देखें (10:48) ▶ Watch (10:48) सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित Recited by Sadgurudev
सदगुरुदेव ने इस श्लोक के माध्यम से अहंकार की समाप्ति को ही वास्तविक मुक्ति बताया। जब अहंकार का खेल समाप्त हो जाता है, तो कर्म का कोई बंधन नहीं रहता।
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
yasya nāhaṅkṛto bhāvo buddhir yasya na lipyate | hatvāpi sa imāṃl lokān na hanti na nibadhyate ||
जिस व्यक्ति में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं होती, वह इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही कर्मबंधन में बँधता है।
भगवद् गीता 6.5 Bhagavad Gita 6.5 ▶ देखें (11:13) ▶ Watch (11:13) सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित Recited by Sadgurudev
इस श्लोक को समझाते हुए सदगुरुदेव कहते हैं कि जो आत्मा अहंकार रूपी जीवात्मा बनकर शरीर में फँसा है, उसका उद्धार स्वयं आत्मा के द्वारा ही करना होगा।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
uddhared ātmanātmānaṁ nātmānam avasādayet | ātmaiva hyātmano bandhur ātmaiva ripur ātmanaḥ ||
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपना पतन न करे, क्योंकि यह आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।
भगवद् गीता 10.42 Bhagavad Gita 10.42 ▶ देखें (19:15) ▶ Watch (19:15) सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित Recited by Sadgurudev
भगवान की अनंत विभूतियों का वर्णन करते हुए यह श्लोक यह बताने के लिए प्रयोग किया गया है कि भगवान का स्वरूप और उनकी लीला अनंत है, जिसका कोई वर्णन नहीं कर सकता।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
athavā bahunaitena kiṁ jñātena tavārjuna | viṣṭabhyāham idaṁ kṛtsnam ekāṁśena sthito jagat ||
अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
भगवद् गीता 7.25 Bhagavad Gita 7.25 ▶ देखें (26:11) ▶ Watch (26:11) सद्गुरुदेव द्वारा उच्चारित Recited by Sadgurudev
यह श्लोक यह समझाने के लिए कहा गया है कि भगवान अपनी योगमाया शक्ति के द्वारा अपनी लीलाओं को आवृत रखते हैं, जिस कारण साधारण लोग उनके दिव्य स्वरूप को नहीं समझ पाते।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
nāhaṁ prakāśaḥ sarvasya yogamāyāsamāvṛtaḥ | mūḍho 'yaṁ nābhijānāti loko mām ajam avyayam ||
मैं अपनी योगमाया से ढका होने के कारण सबके लिए प्रकट नहीं होता। इसलिए यह मूर्ख संसार मुझ अजन्मा और अविनाशी परमेश्वर को नहीं जान पाता।
श्रीमद् भागवतम् Canto 10, Chapter 13 Srimad Bhagavatam Canto 10, Chapter 13 ▶ देखें (20:50) ▶ Watch (20:50) कथा प्रसंग Story Context
इस कथा के माध्यम से सदगुरुदेव ने भगवान की अचिन्त्य लीला शक्ति और योगमाया के प्रभाव को समझाया, जिसके द्वारा वे भक्तों के साथ आनंद के लिए स्वयं को 'अनजान' या 'मुग्ध' भी प्रकट करते हैं।
प्रसंग: एक बार ब्रह्मा जी भगवान कृष्ण की परीक्षा लेने के लिए वृंदावन आए। उन्होंने देखा कि कृष्ण अपने ग्वाल-सखाओं के साथ भोजन कर रहे हैं और उनका जूठा खा रहे हैं। यह देखकर ब्रह्मा जी भ्रमित हो गए कि क्या यह बालक सचमुच पूर्ण ब्रह्म है। उनके मन में संदेह उत्पन्न हुआ। भगवान की शक्ति को परखने के लिए, उन्होंने अपनी योगमाया से सभी बछड़ों और ग्वालबालों का हरण कर लिया और उन्हें एक पर्वत की गुफा में सुला दिया। जब कृष्ण ने देखा कि उनके सखा और बछड़े नहीं हैं, तो वे तुरंत समझ गए कि यह ब्रह्मा जी का काम है। लीला को अबाध रखने के लिए, कृष्ण ने स्वयं को उतने ही नए बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में विस्तारित कर लिया। एक वर्ष तक यह लीला चलती रही और किसी को, यहाँ तक कि बलराम जी को भी, इस बात का आभास नहीं हुआ। एक वर्ष बाद जब ब्रह्मा जी लौटे, तो उन्होंने उन्हीं ग्वालबालों और बछड़ों को कृष्ण के साथ खेलते देखा। जब उन्होंने गुफा में जाकर देखा तो वहाँ भी सभी सो रहे थे। यह देखकर उनका अहंकार चूर-चूर हो गया और उन्होंने भगवान कृष्ण की स्तुति कर क्षमा माँगी।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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