श्री भगवत चर्चा
19 December 2025
सिद्ध श्री कृष्णदास बाबा का जीवन और विरह की अग्नि
रणवारी के सिद्ध श्री कृष्णदास बाबा के जीवन चरित्र द्वारा भगवत् प्रेम और विरह की तीव्रता का वर्णन।
Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
"
वैराग कब होता है? जब अनुराग होता है। राधा रानी के चरण में जब अनुराग होता है तभी जाके वैराग होता है।
"
🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang
राधा (38)
भजन (25)
सिद्ध (20)
विरह (20)
प्रेम (17)
कृपा (17)
एकांत (16)
📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं
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सिद्ध कृष्णदास बाबा का तीव्र वैराग्य
सिद्ध कृष्णदास बाबा का जन्म, तीव्र वैराग्य और गृह त्याग
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सदगुरुदेव बताते हैं कि रणवारी के सिद्ध कृष्णदास बाबा का जन्म वर्तमान बांग्लादेश में हुआ था। बचपन से ही उनमें तीव्र वैराग्य था, जो पूर्व जन्मों के संस्कारों का फल था। उनके माता-पिता उनका विवाह करवाना चाहते थे, ताकि वे संसार में बंध जाएं।
सदगुरुदेव ने रणवारी के सिद्ध कृष्णदास बाबा के पुण्यमय तिथि पर उनके जीवन का वर्णन किया। उनका जन्म वर्तमान बांग्लादेश के जसोर जिले में हुआ था और बचपन का नाम कृष्ण शरण चट्टोपाध्याय था। उनमें जन्म से ही तीव्र वैराग्य था, जो पूर्व जन्मों की साधना का फल होता है, यह केवल पोशाक बदलने से नहीं आता। जब उनके माता-पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया ताकि वे सांसारिक मोह में बंध जाएं, तो उन्होंने घर त्याग कर वृन्दावन की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लिया। यह दर्शाता है कि भगवत् प्राप्ति के लिए संसार के बंधनों से मुक्त होने की तीव्र इच्छा आवश्यक है।
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सिद्ध संतों का स्वयं को छुपाना
सिद्ध संतों और कनिष्ठ साधकों के बीच स्वयं को छुपाने का अंतर
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जो सिद्ध संत हैं, वे अपने भजन और अपनी आध्यात्मिक संपत्ति को दुनिया से छिपाते हैं। इसके विपरीत, हम जैसे कनिष्ठ साधक जो वास्तव में कुछ नहीं हैं, वे लोगों में अपना नाम छपवाने और मान-बड़ाई पाने के लिए व्याकुल रहते हैं।
सदगुरुदेव कहते हैं कि जिन्हें भक्ति देवी की किंचित कृपा प्राप्त हो गई है, वे शांत और तृप्त हो जाते हैं। वे अपनी स्थिति को ऐसे छिपाते हैं जैसे कोई अपने गुप्त धन को लुटेरों से बचाता है, और कभी पागल या मूर्ख बनकर रहते हैं। क्योंकि नहीं तो इससे मान-प्रतिष्ठा और बाहरी हस्तक्षेप बढ़ सकता है। इसके विपरीत, हम जैसे अभिमानी साधक, जिन्हें भक्ति का आनंद नहीं मिला, वे लोगों में अपना नाम छपवाने और 'मैं बड़ा संत हूँ' इस भावना से झूठी खुशी मनाते हैं। उन्हें अपने को 'छिपाने' में आनंद है, और हमें 'छपाने' में।
🔗 यह सच्चे भक्तों की नम्रता, वैराग्य और आंतरिकता पर बल देता है, जो बाहरी प्रदर्शन और मान-सम्मान से दूर रहते हैं।
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सदगुरुदेव समझाते हैं कि वैराग्य कोई बाहरी वेशभूषा या चेष्टा का विषय नहीं है। यह तो स्वाभाविक रूप से हृदय में तब प्रकट होता है जब भगवान, विशेषकर श्री राधा रानी के चरणों में, सच्चा अनुराग या प्रेम उत्पन्न होता है।
वास्तविक वैराग्य किसी साधन या प्रयास से नहीं पाया जा सकता। यह एक आंतरिक अवस्था है जो भगवद-अनुराग का परिणाम है। जैसे कमरे में रोशनी आने पर अंधकार अपने आप चला जाता है, वैसे ही जब हृदय में श्री राधा रानी के प्रति प्रेम का प्रकाश होता है, तो सांसारिक विषयों से आसक्ति रूपी अंधकार स्वतः ही मिट जाता है। बिना अनुराग के वैराग्य का दिखावा केवल अहंकार है। सच्चा वैरागी वह है जिसे भगवान के अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु प्रिय ही नहीं लगती।
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साधुओं की संख्या बनाम गुणवत्ता
आधुनिक युग में साधुता का ह्रास: संख्या अधिक, गुणवत्ता कम
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सदगुरुदेव टिप्पणी करते हैं कि वर्तमान समय में साधुओं की संख्या (Quantity) तो बहुत बढ़ गई है, पर उनमें पहले जैसी गुणवत्ता (Quality) नहीं रही। असली साधुता, जिसमें निष्क्रियता, निर्लिप्तता और एकांतता हो, अब दुर्लभ हो गई है।
पहले के समय की तुलना करते हुए सदगुरुदेव कहते हैं कि उस समय भजन करने वाले सच्चे साधु कम थे, लेकिन वे उच्च कोटि के होते थे। आज के समय में बाबा और साधुओं की संख्या तो बहुत अधिक है, लेकिन उनमें वह आध्यात्मिक गुणवत्ता दुर्लभ हो गई है। सच्ची साधुता के लक्षण हैं - निष्क्रियता (सांसारिक कर्मों से), निर्लिप्तता (आसक्ति से रहित), उदासीनता (मान-अपमान में सम) और एकांतता। सदगुरुदेव अपने पर यह बात लेते हुए कहते हैं कि यह हमारे जैसे साधकों की दुर्दशा है कि गुणवत्ता की कमी आ गयी है, जो कि भगवत प्राप्ति के लक्ष्य के लिए आवश्यक है।
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भजन के लिए एकांतता का महत्व
भगवत् प्राप्ति के लिए एकांत साधना क्यों अनिवार्य है?
▶ देखें (12:47)
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सदगुरुदेव समझाते हैं कि भजन कोई बाहरी क्रिया नहीं, बल्कि एक भावनात्मक परिवर्तन है। इस आंतरिक जगत में प्रवेश करने के लिए एकांतता अनिवार्य है। बिना एकांत के भगवत् सानिध्य प्राप्त करना संभव नहीं है।
सदगुरुदेव बताते हैं कि भजन केवल एक बाहरी क्रिया नहीं, बल्कि अंतर्जगत में होने वाला एक भावनात्मक परिवर्तन है। इस आंतरिक भाव-जगत में प्रवेश करने के लिए एकांतता अत्यंत आवश्यक है। श्री गीता का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि योगी को रहस्य (एकांत स्थान) में, अकेले, बिना किसी आशा (निरसी) और संग्रह (अपरिग्रह) के भजन करना चाहिए। आज के समय में जंगल जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि घर में ही एक कोठी में स्वयं को सांसारिक संपर्क से शून्य करके एकांत साधना करनी चाहिए।
🔗 सिद्ध बाबा ने भी तीव्र भजन करने के लिए रणवारी के भयंकर जंगल में एकांतवास को चुना था।
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दृष्टांत: श्री सौभरि ऋषि की जल-तपस्या
बाहरी एकांत की सीमा: श्री सौभरि ऋषि का जल के नीचे तपस्या का दृष्टांत
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एकांत की खोज में श्री सौभरि ऋषि हज़ारों वर्षों तक पानी के नीचे तपस्या करते रहे। फिर भी उनके मन में संसार की वासना जागृत हो गई। इससे यह सिद्ध होता है कि बाहरी एकांत से मन का मंगल होना निश्चित नहीं है।
सदगुरुदेव समझाते हैं कि सच्चा भजन मन के एकांत पर निर्भर करता है, न कि बाहरी स्थान पर। इसका उदाहरण देते हुए वे श्री सौभरि ऋषि का प्रसंग बताते हैं। श्री सौभरि ऋषि ने परम एकांत की खोज में हज़ारों वर्षों तक पानी के नीचे तपस्या की, जहाँ कोई सांसारिक कोलाहल नहीं था। इतने कठोर साधन के बाद भी, उनके मन में सांसारिक वासना पुनः जागृत हो गई। यह दृष्टांत सिखाता है कि केवल जंगल या जल में जाने से मन शांत नहीं हो जाता। जब तक मन में कामना-वासना है, बाहरी एकांत व्यर्थ है।
🔗 यह दृष्टांत सिद्ध करता है कि भजन के लिए बाहरी एकांत से अधिक मन का एकांत महत्वपूर्ण है, जिस पर सदगुरुदेव बल दे रहे हैं।
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श्रीकृष्णदास बाबा ने गुरु कृपा प्राप्त की, लेकिन उनके गुरुदेव का नाम अज्ञात है, वे महाप्रभु के अनुयायी गौड़ीय वैष्णव थे।
रणवारी के सिद्ध बाबा (श्रीकृष्णदास बाबा) ने वृंदावन में आकर गुरुकरण किया और गुरु कृपा प्राप्त की। हालांकि, सदगुरुदेव बताते हैं कि उनके गुरुदेव का नाम ज्ञात नहीं है। केवल इतना पता है कि वे महाप्रभु के उपासक और गौड़ीय परंपरा से संबंधित थे।
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साधक की आध्यात्मिक परीक्षाएं
भगवत् पथ पर आने वाली विभिन्न आध्यात्मिक परीक्षाएं
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सदगुरुदेव चेतावनी देते हैं कि भगवत् कृपा सहज ही पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं होती। साधक को अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। ये परीक्षाएं विषय-वासना, कामिनी-कांचन, मान-प्रतिष्ठा और अष्ट-सिद्धियों के रूप में आती हैं।
सदगुरुदेव समझाते हैं कि भजन करने मात्र से ही कृपा पूर्ण रूप से प्रकट नहीं हो जाती। भगवान साधक की निष्ठा को परखने के लिए विभिन्न परीक्षाएं लेते हैं। पहले विषय-वासना और कामिनी-कांचन की परीक्षा आती है। यदि साधक इसमें उत्तीर्ण हो जाता है, तो आगे मान-प्रतिष्ठा की परीक्षा आती है, जहाँ लोग उसे भगवान और अवतारी मानने लगते हैं। इसमें भी उत्तीर्ण होने पर अष्ट-सिद्धियाँ सामने आकर ललचाती हैं। इन सभी कठिन परीक्षाओं को केवल अनन्य शरणागति और गुरु कृपा से ही पार किया जा सकता है।
🔗 सिद्ध बाबा को भी तीर्थ यात्रा की इच्छा के रूप में एक परीक्षा का सामना करना पड़ा था।
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श्री राधा रानी का स्वप्नादेश
तीर्थ यात्रा की इच्छा और श्री राधा रानी का स्वप्नादेश
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बहुत दिन भजन करने के बाद सिद्ध बाबा के मन में तीर्थ यात्रा, विशेषकर द्वारका जाने की इच्छा जागी। श्री राधा रानी ने स्वप्न में उन्हें ब्रज छोड़कर न जाने का आदेश दिया। किन्तु बाबा ने इसे साधारण स्वप्न समझकर तीर्थ यात्रा पर जाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने स्वयं को समझाया कि वे भगवान के ही धाम जा रहे हैं और श्री राधा रानी तो उनके हृदय में ही हैं। यह लीला दर्शाती है कि कभी-कभी साधक अपनी बुद्धि से भगवान के आदेश की भी अवहेलना कर सकता है।
सदगुरुदेव बताते हैं कि तीव्र भजन के बाद सिद्ध बाबा के मन में तीर्थ यात्रा करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वे द्वारकापुरी जाना चाहते थे। उसी रात्रि श्री राधा रानी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर ब्रज न छोड़ने का आदेश दिया और कहा कि जो मिलना है, यहीं मिलेगा। बाबा ने इस चेतावनी को एक सामान्य स्वप्न मानकर अनदेखा कर दिया। उन्होंने स्वयं को समझाया कि वे भगवान के ही धाम जा रहे हैं और श्री राधा रानी तो उनके हृदय में ही हैं। यह लीला दर्शाती है कि कभी-कभी साधक अपनी बुद्धि से भगवान के आदेश की भी अवहेलना कर सकता है।
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दृष्टांत: दल-छोड़ा बंदर और आसन-छोड़ा साधु
दृष्टांत: दल-छोड़ा बंदर और आसन-छोड़ा साधु
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जैसे अपने दल से बिछड़ा हुआ बंदर बहुत दुर्दशा भोगता है, वैसे ही अपना भजन का आसन छोड़कर घूमने वाले साधु की भी विशेष दुर्दशा होती है। उसका भजन, नियम और शुद्धता सब नष्ट हो जाता है।
सदगुरुदेव बताते हैं कि बंदर अपने समूह और क्षेत्र में ही सुरक्षित रहते हैं; यदि कोई बंदर दल से छूट जाए तो दूसरे बंदर उसे मार देते हैं और वह अकेला भटकता है। ठीक इसी प्रकार, जब साधु अपना निश्चित भजन-आसन छोड़कर तीर्थयात्रा या अन्य कारणों से भटकता है, तो उसका भजन छूट जाता है। उसे न तो रहने का ठिकाना मिलता है, न शुद्ध आहार, और न ही भजन के लिए उपयुक्त स्थान, जिससे उसकी आध्यात्मिक स्थिति का पतन हो जाता है।
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विरह के दो प्रकार: शुष्क और सिक्त
सिक्त विरह और शुष्क विरह का भेद और स्वरूप
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सदगुरुदेव विरह के दो प्रकार बताते हैं - सिक्त (गीला) और शुष्क (सूखा)। सिक्त विरह में भक्त भगवान के लिए रोता है और आँसू बहते हैं, जिसमें एक दिव्य आनंद और तृप्ति होती है। शुष्क विरह में हृदय सूख जाता है, कोई भाव या अनुभूति नहीं होती, जो अनंत ब्रह्मांड के कष्टों से भी बढ़कर है।
सदगुरुदेव विरह की दो अवस्थाओं का मार्मिक वर्णन करते हैं। पहली है 'सिक्त विरह', जिसमें भक्त भगवान की याद में व्याकुल होकर रोता है, अश्रुधारा बहती है, और इस रुदन में भी एक अद्भुत आनंद और तृप्ति का अनुभव होता है। साधक चाहता है कि यह रुदन कभी बंद न हो। दूसरी अवस्था 'शुष्क विरह' है, जो अत्यंत भयानक है। इसमें भक्त का हृदय पूरी तरह सूख जाता है, नाम-जप या चिंतन में कोई भाव, आनंद या स्फूर्ति नहीं होती, जैसे सब कुछ एक काले पर्दे से ढक गया हो। यह पीड़ा जन्म-मृत्यु के कष्ट से भी बढ़कर होती है।
🔗 सिद्ध बाबा ने श्री राधा रानी द्वारा त्यागे जाने पर 'शुष्क विरह' की चरम पीड़ा का अनुभव किया था।
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द्वारका में शंख-चक्र का छप्पा (चिन्ह) धारण
द्वारकापुरी में शंख-चक्र का छप्पा (चिन्ह) धारण
▶ देखें (34:10)
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कृष्णदास बाबा द्वारकापुरी की तीर्थयात्रा करके और वहां शंख-चक्र का छप्पा (चिन्ह) धारण करके वापस आते हैं। द्वारकापुरी की तीर्थयात्रा के बाद उनका भजन ही छूट गया। श्रीराधारानी स्वप्न में आये की अब तू हमारा किंकरी नहीं रहा तू द्वारका चला जा।
कृष्णदास बाबा द्वारकापुरी की तीर्थयात्रा करके और वहां शंख-चक्र का छप्पा (चिन्ह) धारण करके वापस आते हैं। द्वारकापुरी की तीर्थयात्रा के बाद उनका भजन ही छूट गया। श्रीराधारानी स्वप्न में आये की अब तू हमारा किंकरी नहीं रहा तू द्वारका चला जा। जब वह गोवर्धन के सिद्ध बाबा और काम्यवन के सिद्ध बाबा से मिलते हैं, तो उन्होंने बताया की हम ग्वालिन के दासी है, आप तो सत्यभामा रुक्मणि के सहचरी हो गए अब। हम आपके स्पर्श के लायक नहीं| कृष्णदास बाबा के लिए यह सब घटनाएं एक महत्वपूर्ण मोड़ बन जाती है, जिससे उनके हृदय में गहरा विरह उत्पन्न होता है
🔗 यह प्रसंग विभिन्न भक्ति मार्गों (द्वारका की ऐश्वर्यपूर्ण भक्ति बनाम ब्रज की अंतरंग माधुर्य भक्ति) के बीच की स्थिति को दर्शाता है और अपने चुने हुए इष्टदेव के प्रति अटूट निष्ठा के महत्व को उजागर करता है।
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विरह अग्नि में सिद्ध बाबा का देह त्यागा
श्री राधा रानी के विरह की अग्नि में सिद्ध बाबा का देह त्याग
▶ देखें (35:53)
▶ Watch (35:53)
तीर्थ यात्रा से लौटकर जब सिद्ध बाबा ने भजन करने का प्रयास किया, तो उन्हें कोई अनुभूति नहीं हुई। श्री राधा रानी ने स्वप्न में उन्हें अपनी सेवा से बहिष्कृत कर दिया। इस विरह को सहन न कर पाने के कारण, वे तीन महीने तक अन्न-जल त्याग कर अपनी कुटिया में विरह की अग्नि में जलकर भस्म हो गए।
सदगुरुदेव उस भयानक विरह का वर्णन करते हैं जो सिद्ध बाबा को सहना पड़ा। द्वारका से लौटने के बाद, श्री राधा रानी ने स्वप्न में कहा, "तुम तो अब महिषियों की किंकर हो गए हो, हमारे पास तुम्हारे लिए स्थान नहीं।" यह सुनते ही बाबा का हृदय सूख गया, भजन में कोई भाव नहीं रहा। यह 'शुष्क विरह' सबसे भयानक कष्ट है। इस असहनीय पीड़ा में उन्होंने तीन महीने तक अन्न-जल त्याग दिया और उनकी कुटिया में उनके शरीर में विरह की अग्नि प्रज्वलित हो गई। जब श्री जगन्नाथ दास बाबा ने दरवाज़ा तुड़वाया, तो देखा कि उनका शरीर जलकर राख हो चुका था। यह लीला विरह की सर्वोच्च और भयानक अवस्था को दर्शाती है। उन्होंने ग्राम वासीओ को आशीर्वाद दिया।
✨ विशेष उल्लेख
📋 ब्रज के चार प्रसिद्ध सिद्ध बाबा
▶ 2:30
▶ देखें (2:30)
- रणवारी के सिद्ध बाबा
- गोवर्धन के सिद्ध बाबा
- सूर्यकुण्ड के सिद्ध बाबा
- कामवन के सिद्ध बाबा
📋 गीता के अनुसार भजन की शर्तें
▶ 13:09
▶ देखें (13:09)
- रहसि स्थितः (एकांत में रहना)
- एकाकी (अकेला रहना)
- निराशी (कोई आशा न रखना)
- अपरिग्रह (संग्रह न करना)
📋 साधक की आध्यात्मिक परीक्षाएं
▶ 19:40
▶ देखें (19:40)
- विषय वासना (कामिनी-कांचन)
- मान-प्रतिष्ठा
- अष्टसिद्धि-नवनिधि
📋 अष्ट-सिद्धियाँ: एक आध्यात्मिक परीक्षा
▶ 20:32
▶ देखें (20:32)
- अणिमा
- लघिमा
- गरिमा
- प्राप्ति
- प्राकाम्य
- ईशित्व
- वशित्व
- महिमा
📋 दो प्रकार के विरह (Two Types of Separation)
- शुष्क विरह (Dry separation)
- शिक विरह (Wet/Tearful separation)
🤫 सिद्ध संत
स्वयं को छिपाते हैं, अपनी साधना को गुप्त रखते हैं। उन्हें लोक-मान की कोई इच्छा नहीं होती।
बनाम
📢 कनिष्ठ साधक
स्वयं को छपाते हैं (प्रचारित करते हैं)। थोड़ा भजन करके भी लोगों से मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं।
💧 सिक्त विरह (आनंदमय)
इसमें भगवान की याद में अश्रु बहते हैं। यह कष्टदायक होते हुए भी एक दिव्य आनंद और तृप्ति प्रदान करता है।
बनाम
🔥 शुष्क विरह (अत्यंत कष्टप्रद)
इसमें हृदय सूख जाता है, कोई भाव या अनुभूति नहीं होती। यह अनंत ब्रह्मांड के सभी दुखों से बढ़कर कष्टकारी है।
जिज्ञासा (Q&A)
प्रश्न: भगवान का अंश होते हुए भी जीव इस दुखमय सागर में क्यों डूब रहा है?
▶ देखें (1:22)
▶ देखें (1:22)
उत्तर: सदगुरुदेव बताते हैं कि जीव भगवान का ही आनंद अंश है, लेकिन वह संसार चक्र में इसलिए फंसा है क्योंकि वह भगवान से विमुख हो गया है। जब तक हृदय में सांसारिक कामनाएं और आसक्ति रहती है, तब तक यह दुख बना रहता है।
उत्तर: सत्संग के आरंभ में सदगुरुदेव ने यह मूल प्रश्न उठाया कि जीव भगवान का अभिन्न अंश होते हुए भी त्रिविध तापों से पीड़ित क्यों है और संसार चक्र में क्यों घूम रहा है। इसका कारण है भगवान से विमुखता और माया के प्रति आसक्ति। जब तक जीव के हृदय में दृश्यमान जगत के प्रति किंचित मात्र भी आसक्ति या कामना शेष है, तब तक वह इस दुख सागर से पार नहीं हो सकता। सिद्ध पुरुषों का जीवन हमें दिखाता है कि इस आसक्ति को त्यागकर और एकांत में तीव्र भजन करके ही इस चक्र से निकला जा सकता है।
प्रश्न: भगवत् प्रेम और सानिध्य प्राप्त करने का उपाय क्या है?
▶ देखें (1:56)
▶ देखें (1:56)
उत्तर: इसका उपाय है एकांत में रहकर तीव्र भजन करना, अनन्य शरणागति और गुरु कृपा प्राप्त करना। साधक को हर प्रकार की सांसारिक और सात्विक कामनाओं का भी त्याग करना पड़ता है।
उत्तर: सदगुरुदेव बताते हैं कि भगवत् प्रेम प्राप्त करने के लिए एकांतता, निरसी (आशा रहित) और अपरिग्रह (संग्रह रहित) होना अनिवार्य है। साधक को केवल सांसारिक ही नहीं, बल्कि "मंदिर बनाएंगे, प्रचार करेंगे" जैसी सात्विक कामनाओं से भी मुक्त होना पड़ता है, क्योंकि कोई भी संकल्प जन्म का कारण बन सकता है। श्री कृष्णदास बाबा का जीवन यह दिखाता है कि तीव्र वैराग्य, एकांत वास, और अनन्य भाव से श्री राधा रानी का चिंतन ही प्रेम प्राप्ति का मुख्य उपाय है। इन सबके ऊपर गुरु की कृपा अत्यंत आवश्यक है जो साधक को सभी परीक्षाओं से पार कराती है।
✅ करें (Do's)
- भगवत् प्राप्ति के लिए एकांत में भजन करने का अभ्यास करें।
- संतों के जीवन चरित्र का श्रवण और मनन करें ताकि भजन में प्रेरणा मिले।
- गुरु कृपा और अनन्य शरणागति को ही आध्यात्मिक उन्नति का एकमात्र साधन मानें।
❌ न करें (Don'ts)
- अपने भजन या वैराग्य का दिखावा न करें।
- तीर्थ यात्रा आदि के संकल्प को श्री गुरु और भगवान के आदेश से बड़ा न समझें।
- मान, प्रतिष्ठा या सिद्धियों के प्रलोभन में न पड़ें।
शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)
इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
भगवद् गीता 16.1-3
Bhagavad Gita 16.1-3
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक उन दैवी गुणों का वर्णन करता है जिन्हें लेकर सिद्ध बाबा जैसे महापुरुष संसार में जन्म लेते हैं।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।
abhayaṁ sattva-sanśhuddhir jñāna-yoga-vyavasthitiḥ
dānaṁ damaśh cha yajñaśh cha svādhyāyas tapa ārjavam
ahiṁsā satyam akrodhas tyāgaḥ śhāntir apaiśhunam
dayā bhūteṣhv aloluptvaṁ mārdavaṁ hrīr achāpalam
tejaḥ kṣhamā dhṛitiḥ śhaucham adroho nāti-mānitā
bhavanti sampadaṁ daivīm abhijātasya bhārata
श्री भगवान ने कहा: हे भरतवंशी! निर्भयता, अंतःकरण की शुद्धि, ज्ञानयोग में स्थिति, दान, इंद्रिय-दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, निंदा न करना, प्राणियों पर दया, अलोलुपता, कोमलता, लज्जा, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, शुद्धि, अद्रोह और अभिमान का अभाव - ये सब दैवी सम्पदा से युक्त पुरुष के लक्षण हैं।
भगवद् गीता 7.28
Bhagavad Gita 7.28
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव ने इस श्लोक का उल्लेख यह बताने के लिए किया कि केवल पूर्व जन्मों के पुण्य और संस्कारों से ही कोई दृढ़तापूर्वक भजन कर सकता है।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।
yeṣhāṁ tvanta-gataṁ pāpaṁ janānāṁ puṇya-karmaṇām
te dvandva-moha-nirmuktā bhajante māṁ dṛiḍha-vratāḥ
जिन पुण्यकर्म करने वाले मनुष्यों के पाप नष्ट हो गए हैं, वे द्वंद्व और मोह से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय के साथ मेरा भजन करते हैं।
श्रीमद् भागवतम् 11.20.17
Srimad Bhagavatam 11.20.17
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सिद्ध बाबा के मन के भाव को व्यक्त करने के लिए यह श्लोक उद्धृत किया गया, कि मानव जीवन पाकर भजन न करना आत्महत्या के समान है।
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा।।
nṛ-deham ādyaṁ sulabhaṁ sudurlabhaṁ
plavaṁ sukalpaṁ guru-karṇadhāram
mayānukūlena nabhasvateritaṁ
pumān bhavābdhiṁ na taret sa ātma-hā
यह मनुष्य शरीर सभी साधनाओं का मूल, सुलभ और अत्यंत दुर्लभ है। यह एक सुदृढ़ नौका के समान है, जिसमें गुरु रूपी कर्णधार (नाविक) है और मेरी कृपा रूपी अनुकूल वायु इसे चला रही है। जो मनुष्य ऐसा सुअवसर पाकर भी भवसागर को पार करने का प्रयत्न नहीं करता, वह आत्मघाती है।
भगवद् गीता 6.10
Bhagavad Gita 6.10
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक भजन के लिए एकांतता, आशा-शून्यता और अपरिग्रह के महत्व को समझाने के लिए उद्धृत किया गया।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।
yogī yuñjīta satatam ātmānaṁ rahasi sthitaḥ
ekākī yata-cittātmā nirāśīr aparigrahaḥ
योगी को चाहिए कि वह अपने मन और शरीर को नियंत्रित करके, कामनाओं और संग्रह की भावना से रहित होकर, एकांत स्थान में अकेला रहते हुए निरंतर आत्मा को (परमात्मा में) लगाए।
भगवद् गीता 7.14
Bhagavad Gita 7.14
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
साधक के लिए आध्यात्मिक परीक्षाओं को पार करना कितना कठिन है, यह बताने और शरणागति के महत्व को दर्शाने के लिए इस श्लोक का उल्लेख किया गया।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
daivī hy eṣā guṇa-mayī mama māyā duratyayā
mām eva ye prapadyante māyām etāṁ taranti te
मेरी यह त्रिगुणमयी दैवी माया पार करने में बहुत कठिन है। परन्तु जो केवल मेरी ही शरण में आ जाते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।
स्पष्टीकरण (Clarification)
यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।
सिद्ध कृष्णदास बाबा का जीवन और विरह की अग्नि, रणवारी के सिद्ध कृष्णदास बाबा के जीवन चरित्र द्वारा भगवत् प्रेम और विरह की तीव्रता का वर्णन।
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