[Study Guide : Dec 29, 2025] मोह का त्याग, स्वरूप-चिंतन, और अनन्य शरणागति का रहस्य | Renouncing Attachment, Spiritual Self-Realization, and the Secret of Total Surrender

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श्री भगवत चर्चा
29 December 2025

भजन का सार: देह-अभिमान का त्याग और स्वरूप-चिंतन

मोह का त्याग, स्वरूप-चिंतन, और अनन्य शरणागति का रहस्य

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" यह काया ही माया है। यह शरीर में जो आत्म-बुद्धि, मोह, 'मैं हूँ' - इस कारण शरीर संबंधी विषय, शरीर को सुख देने के लिए हमारे समस्त आग्रह, यही है माया। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

भजन (51) चिंतन (43) सत्य (40) राधा (38) माया (37) शरीर (33) घर (31) संसार (26)

📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं

बंधन का मूल: देह में आत्म-बुद्धि
इस खंड में सदगुरुदेव जीव के वास्तविक स्वरूप और उसके वर्तमान भ्रमित अवस्था का विश्लेषण करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे भगवान का दिव्य अंश होते हुए भी जीव इस मल-मूत्र से भरे शरीर को 'मैं' मानकर मोह के बंधन में फँस गया है।
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शरीर: एक गंदगी का पुतला
शरीर की वास्तविकता: सप्तधातु और मल का भंडार
▶ देखें (1:14) ▶ Watch (1:14)
सदगुरुदेव शरीर के यथार्थ स्वरूप का वर्णन करते हैं, जो हड्डियों का ढाँचा, मांस-मिट्टी, और मल-मूत्र जैसी गंदगी से भरा एक यंत्र मात्र है। यह सप्तधातु से बना है और चेतन सत्ता के चले जाने पर अत्यंत दुर्गंधयुक्त होकर सड़ जाता है। इस अपवित्र शरीर में आत्म-बुद्धि ही सबसे बड़ा भ्रम है। सदगुरुदेव विस्तार से बताते हैं कि यह पंचभौतिक शरीर रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र - इन सात धातुओं से बना है। इसके भीतर मल, मूत्र, विष्ठा, कृमि जैसे घृणित पदार्थ भरे हुए हैं। सदगुरुदेव कहते हैं कि यदि कोई दो दिन दाँत न माँजे तो मुँह से ऐसी दुर्गंध आती है कि भूत भी पास न आए। ऐसे घृणित वस्तु में चेतन आत्मा ने तादात्म्य करके इसे 'मैं' मान लिया है, यही समस्त दुःखों का मूल है।
🔗 यह शिक्षा वैराग्य को जाग्रत करती है और शरीर के प्रति आसक्ति को कम करने में सहायक है।
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सबसे बड़ा भ्रम: उल्टी मान्यता
सत्य की उल्टी धारणा: कल्पना को सत्य और सत्य को कल्पना मानना
▶ देखें (4:00) ▶ Watch (4:00)
सदगुरुदेव बताते हैं कि माया के प्रभाव से हमारी समझ उल्टी हो गई है। हम नश्वर शरीर और संसार को 'सत्य' मान बैठे हैं, और जो नित्य, सत्य, सनातन भगवान हैं, उन्हें 'कल्पना' का विषय समझते हैं। भजन का अर्थ है इस उल्टी मान्यता को सीधा करना और सत्य को जानना। सदगुरुदेव समझाते हैं कि साधक की सबसे बड़ी भूल यह है कि उसने माया के कारण वास्तविकता को पलट दिया है। जो शरीर, पुत्र, परिवार क्षणभंगुर और स्वप्न की तरह हैं, उन्हें वह ठोस सत्य मानता है। और जिन भगवान से हमारा नित्य, सत्य और सनातन संबंध है, उन्हें वह एक काल्पनिक सत्ता मानकर उनका 'चिंतन' और 'भावना' करने का प्रयास करता है। वास्तव में भगवान ही एकमात्र सत्य हैं और यह जगत कल्पना है। इस भ्रम को दूर करना ही भजन है।
🔗 यह शिक्षा आत्म-ज्ञान और वैराग्य की नींव रखती है, जो साधक को वास्तविक सत्य की ओर मोड़ती है।
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बंधन का कारण 'मोह' है, संसार नहीं
दुःख का मूल: 'कश्यप के पति पुत्रा मोह एव ही कारणम'
▶ देखें (5:04) ▶ Watch (5:04)
सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि हमारे बंधन का कारण स्त्री, पुत्र या सांसारिक पदार्थ नहीं हैं, बल्कि उनके प्रति हमारा 'मोह' अर्थात् हृदय का दृढ़ लगाव है। संसार को हटाना नहीं है, इस मोह को हटाना ही भजन है। यही संसार चक्र में दुःख भोगने का एकमात्र कारण है। सदगुरुदेव बल देकर कहते हैं कि हमें संसार या परिवार को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे बंधन का मूल कारण नहीं हैं। असली जड़ 'मोह' है - शरीर और शरीर से संबंधित वस्तुओं में 'मैं' और 'मेरापन' की गहरी भावना। इस मोह को मिटाना ही सच्चा भजन है। जब तक यह मोह है, व्यक्ति जंगल में जाकर भी मोह-मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि मोह तो उसके साथ ही जाता है। मोह ही संसार चक्र में बार-बार गोता लगाने और दुःख भोगने का एकमात्र कारण है।
🔗 यह शिक्षा गृहस्थ साधकों को दिशा प्रदान करती है कि उन्हें बाहरी त्याग से पहले आंतरिक त्याग पर ध्यान देना चाहिए।
भजन का यथार्थ स्वरूप और माया का प्रपंच
यह खंड भजन की सही परिभाषा और अभ्यास के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर प्रकाश डालता है। सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि केवल स्थान बदलने से (घर से जंगल जाने से) कुछ नहीं होता, क्योंकि माया सर्वव्यापी है और साधक का पीछा नहीं छोड़ती।
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जंगल जाना समाधान नहीं
एकांत का स्वप्न: घर छोड़ने की भ्रांति
▶ देखें (7:29) ▶ Watch (7:29)
सदगुरुदेव इस भ्रम का खंडन करते हैं कि घर छोड़कर जंगल जाने से भजन हो जाएगा। वे कहते हैं कि असली संसार शरीर में आत्म-बुद्धि है, जो व्यक्ति के साथ ही जंगल जाती है। आंतरिक शुद्धि के बिना एकांत में एक घंटा भी बैठना असंभव हो जाता है। सदगुरुदेव चेतावनी देते हैं कि जो साधक यह सोचते हैं कि संसार भजन में बाधक है और जंगल में जाकर वे मुक्त हो जाएँगे, वे एक स्वप्न देख रहे हैं। संसार का मूल जड़ दृश्यमान जगत नहीं, बल्कि शरीर में आत्म-बुद्धि है, जिसे हम अपने साथ ले जाते हैं। वे एक प्रयोग करने की सलाह देते हैं: 15 दिन के लिए वृंदावन जाकर एकांत में भजन करें, मोबाइल साथ न लाएँ और मान लें कि संसार में कोई नहीं रहा। वे कहते हैं कि तीसरे दिन ही व्यक्ति पागल होकर घर भाग जाएगा, क्योंकि मोह और अज्ञानता उसके साथ ही हैं। माया साधक का पीछा नहीं छोड़ती और नाना प्रकार के रूप बदलकर उसे मोहित करने का प्रयास करती है।
🔗 यह उपदेश साधकों को बाहरी वैराग्य से पहले आंतरिक वैराग्य पर केंद्रित होने की प्रेरणा देता है।
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माया कहाँ है? काया ही माया है!
माया का वास्तविक स्वरूप: न कामिनी, न कांचन, यह काया ही माया
▶ देखें (12:15) ▶ Watch (12:15)
सदगुरुदेव एक गहन प्रश्न उठाते हैं - माया क्या है? यह कामिनी, कांचन या दृश्य जगत नहीं है। वास्तविक माया यह 'काया' (शरीर) ही है, जिसमें आत्म-बुद्धि रखकर हम इसे और इससे संबंधित लोगों को सुखी करने के प्रयास में लगे रहते हैं। यही मूल माया है। सदगुरुदेव माया की प्रचलित धारणाओं का खंडन करते हैं। वे तर्क देते हैं कि यदि कामिनी-कांचन माया होती, तो दरिद्र और अविवाहित व्यक्ति माया-मुक्त होते, पर ऐसा नहीं है। यदि दृश्य जगत माया होता, तो जन्मांध व्यक्ति माया-मुक्त होता, पर उसके भीतर भी विषय वासनाएँ भरी होती हैं। अंत में सदगुरुदेव रहस्योद्घाटन करते हैं कि असली माया यह 'काया' ही है। इस शरीर में 'मैं' पन का मोह ही हमें सांसारिक विषयों की ओर खींचता है और यही बंधन का कारण है। अतः, इस आत्म-बुद्धि को परिवर्तित करने के लिए गुरु हमें चेतन करते हैं कि 'तुम शरीर नहीं, तुम चेतन हो'।
🔗 यह उपदेश माया के सूक्ष्म स्वरूप को उजागर करता है और साधक को आत्म-निरीक्षण के लिए प्रेरित करता है।
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दृष्टांत: लोहे की श्रृंखला बनाम सोने की श्रृंखला
दृष्टांत: बंधन का स्वरूप परिवर्तन - लोहे से सोने की जंजीर
▶ देखें (18:45) ▶ Watch (18:45)
सदगुरुदेव विरक्तों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि घर-परिवार (लोहे की श्रृंखला) छोड़कर आश्रम और चेला-चाटी (सोने की श्रृंखला) में मन लगाना भी बंधन ही है। बंधन का स्वरूप बदल जाता है, पर बंधन बना रहता है। दोनों ही साधक को बाँधने का काम करते हैं। सदगुरुदेव अपनी विरक्ति की यात्रा का उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि साधक अक्सर एक प्रकार के बंधन से छूटकर दूसरे में फँस जाता है। घर-बार, जो लोहे की जंजीर की तरह थे, उन्हें छोड़कर वह आश्रम, मंदिर, चेले और प्रतिष्ठा में आसक्त हो जाता है। ये सोने की जंजीर की तरह आकर्षक लगते हैं, पर इनका काम भी बंधन का ही है। वे कहते हैं कि वहाँ घर-बार छोड़कर आए, यहाँ आश्रम में मन लग गया; वहाँ विषय-वैभव से मन हट गया, यहाँ मान-प्रतिष्ठा में मन लग गया। सच्चा वैराग्य दोनों प्रकार की श्रृंखलाओं से मुक्ति है।
🔗 यह दृष्टांत साधकों को सूक्ष्म अहंकार और मान-प्रतिष्ठा की आसक्ति से सावधान करता है।
साधना का मर्म: स्वरूप-चिंतन की प्रक्रिया
इस चरण में, सदगुरुदेव बंधन से मुक्ति का व्यावहारिक उपाय बताते हैं, जो है 'स्वरूप-चिंतन'। यह केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि अपनी वास्तविक आध्यात्मिक पहचान को पुनः प्राप्त करने की एक गहन प्रक्रिया है, जो सभी संप्रदायों के लिए अनिवार्य है।
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साधना का सार: स्वरूप चिंतन
भजन की कुंजी: 'मैं राधा रानी की सहचरी हूँ' का चिंतन
▶ देखें (13:12) ▶ Watch (13:12)
सदगुरुदेव भजन का रहस्य बताते हैं: गुरु द्वारा दिए गए अपने चिन्मय स्वरूप का चिंतन करना। साधक को यह भावना करनी चाहिए कि 'मैं यह शरीर नहीं, बल्कि राधा रानी की नित्य सहचरी हूँ'। यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि अपने भूले हुए सत्य का स्मरण है। सदगुरुदेव भजन की व्यावहारिक विधि बताते हुए कहते हैं कि गुरु ने हमें हमारा वास्तविक परिचय दिया है, उसे चिंतन में लाना होगा। साधक को भावना करनी चाहिए कि 'मैं यह नश्वर देह नहीं, बल्कि एक 12-13 वर्षीय बालिका के चिन्मय, दिव्य स्वरूप में राधा रानी की सहचरी हूँ। युगल किशोर ही मेरे सर्वस्व हैं।' यह चिंतन धीरे-धीरे देह के जड़-अभिमान को मिटाकर चिद-अभिमान को जाग्रत करता है। यह भावना करते-करते ही भीतर अनुराग पैदा होता है और संसार के विषय जहर जैसे लगने लगते हैं।
🔗 यह उपदेश गौड़ीय वैष्णव साधना के 'मंजरी भाव' या 'सहचरी भाव' के मर्म को स्पष्ट करता है।
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अनुराग का प्रभाव: संसार विष जैसा लगता है
आसक्ति का स्वतः परिवर्तन
▶ देखें (16:24) ▶ Watch (16:24)
सदगुरुदेव बताते हैं कि जब भगवान के चरणों में सच्चा अनुराग उत्पन्न होता है, तब सांसारिक विषय स्वतः ही विष के समान लगने लगते हैं। उन्हें विचार करके छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे स्वयं ही छूट जाते हैं। सदगुरुदेव समझाते हैं कि भजन की उन्नति का एक निश्चित संकेत है - जिन वस्तुओं में पहले अत्यधिक प्रियता थी, वे अब भयानक विष जैसी लगने लगती हैं। जब भगवद्-आसक्ति बढ़ती है, तब कुटुंब, परिवार, धन, वैभव, इंद्रिय भोग्य विषय स्वतः ही अरुचिकर हो जाते हैं। इसके लिए अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, यह अनुराग का स्वाभाविक परिणाम है।
🔗 यह भक्ति की परिपक्व अवस्था का लक्षण है, जहाँ वैराग्य सहज और स्वाभाविक हो जाता है।
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स्वरूप चिंतन: सभी मार्गों में अनिवार्य
देह-बुद्धि का त्याग: सर्व-सांप्रदायिक अनिवार्यता
▶ देखें (24:00) ▶ Watch (24:00)
सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि 'मैं शरीर नहीं हूँ' यह चिंतन केवल वैष्णवों के लिए नहीं, बल्कि सभी आध्यात्मिक मार्गों के लिए अनिवार्य है। चाहे ब्रह्मज्ञानी 'सोऽहम्' का चिंतन करें या रामानंदी सखी-स्वरूप का, सभी को पहले देह-बुद्धि का त्याग करना ही पड़ता है। इसके बिना भजन संभव नहीं है। सदगुरुदेव बताते हैं कि अपने स्वरूप का चिंतन एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक सिद्धांत है। गौड़ीय वैष्णव सहचरी स्वरूप का चिंतन करते हैं। मिथिला के उपासक सखी-स्वरूप का चिंतन करते हैं। ज्ञान मार्ग के उपासक 'मैं शरीर, मन, बुद्धि से परे शुद्ध ब्रह्म हूँ' (सोऽहम्) का चिंतन करते हैं। रूप अलग हो सकते हैं, लेकिन मूल सिद्धांत एक ही है: इस जड़ शरीर से तादात्म्य को तोड़ना। यह भजन का प्रथम और अनिवार्य चरण है। इसके बिना भजन में प्रगति असंभव है।
🔗 यह शिक्षा विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं के बीच मूलभूत एकता को उजागर करती है।
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भजन का अभ्यास: 'दो घंटे के लिए मर जाओ'
एकाग्र भजन का सूत्र: 'संसार के लिए मृत हो जाना'
▶ देखें (25:29) ▶ Watch (25:29)
सदगुरुदेव भजन में गहराई लाने का एक व्यावहारिक सूत्र देते हैं। वे कहते हैं कि जब भजन करने बैठो, तो यह मान लो कि 'मैं दो घंटे के लिए संसार के लिए मर गया हूँ'। इस अवधि में कोई भी सांसारिक घटना, चाहे घर में आग ही क्यों न लग जाए, आपको विचलित नहीं करनी चाहिए। सदगुरुदेव भजन में आने वाले विक्षेपों से बचने का एक शक्तिशाली उपाय बताते हैं। वे कहते हैं कि साधक को दिन में कम से कम दो घंटे के लिए यह दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि 'अब मैं संसार का नहीं, केवल ठाकुर जी का हूँ। मैं मर चुका हूँ।' जैसे मृत व्यक्ति का संसार से कोई लेना-देना नहीं रहता, वैसे ही साधक को उस समय मोबाइल, बच्चे और अन्य सभी चिंताओं को त्याग देना चाहिए। वे कहते हैं कि इसके बिना भजन में प्रगति असंभव है, क्योंकि मन द्वैत में फँसा रहता है - एक ओर माला जप रहा है, दूसरी ओर बच्चे को संभाल रहा है। इस दृढ़ता के बिना भजन नहीं होगा।
🔗 यह उपदेश भजन में आवश्यक तीव्र वैराग्य और एकाग्रता के महत्व को दर्शाता है।
प्रतिष्ठा की माया और वैराग्य की परीक्षा
यह खंड साधकों के लिए एक गंभीर चेतावनी है। सदगुरुदेव बताते हैं कि स्थूल माया से बचने के बाद भी मान-प्रतिष्ठा की सूक्ष्म माया साधक को फँसा सकती है, जिसे शास्त्रों में सूअर की विष्ठा के समान त्याज्य बताया गया है।
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प्रतिष्ठा: सूअर की विष्ठा के समान
तीन त्याज्य वस्तुएँ: अभिमान, गौरव और प्रतिष्ठा
▶ देखें (21:54) ▶ Watch (21:54)
सदगुरुदेव शास्त्रों का प्रमाण देते हुए कहते हैं कि मान-प्रतिष्ठा साधक के लिए सूअर की विष्ठा के समान घृणित और त्याज्य है। वे बताते हैं कि अभिमान, गौरव और प्रतिष्ठा - इन तीनों का त्याग करके ही हरि-भजन संभव है। सदगुरुदेव समझाते हैं कि भजन के मार्ग में तीन बड़े शत्रु हैं। 'अभिमान' (मैं पंडित हूँ, विद्वान हूँ, साधु हूँ) मदिरापान के समान है, जो जीव को मदहोश कर देता है। 'गौरव' (बड़प्पन की भावना) रौरव नरक के समान है। और 'प्रतिष्ठा' (सम्मान की चाह) सूअर की विष्ठा के समान है, जिसे हम अमृत मानकर स्वीकार करते हैं। साधक को इन तीनों का पूर्णतः त्याग करके ही हरि भजन करना चाहिए, जबकि आज बाजार में इसी प्रतिष्ठा के लिए होड़ मची है।
🔗 यह वैष्णव सदाचार का एक कठोर किंतु आवश्यक सिद्धांत है, जो साधक को पतन से बचाता है।
शरणागति की परीक्षा और प्रभु का आश्वासन
अंतिम खंड में सदगुरुदेव शरणागति के सर्वोच्च सिद्धांत और उसके साथ आने वाली परीक्षाओं पर प्रकाश डालते हैं। वे कथाओं और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से यह सिद्ध करते हैं कि जो साधक अनन्य भाव से भगवान पर निर्भर हो जाता है, उसकी समस्त जिम्मेदारी स्वयं भगवान उठाते हैं।
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कथा: राजा का भजन और मदन मोहन का युद्ध
कथा: बांकुड़ा के राजा और साक्षात युद्ध करते मदन मोहन
▶ देखें (27:20) ▶ Watch (27:20)
सदगुरुदेव बंगाल के एक राजा की सत्य कथा सुनाते हैं, जो भजन के समय किसी भी विघ्न की परवाह नहीं करते थे। जब शत्रुओं ने आक्रमण किया, तो वे भजन में लीन रहे और स्वयं भगवान मदन मोहन ने योद्धा का वेश धारण कर उनके राज्य की रक्षा की। यह अनन्य भक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सदगुरुदेव एक प्रेरक सत्य घटना सुनाते हैं। बंगाल के बांकुड़ा जिले में एक भक्त राजा का नियम था कि प्रातःकाल भजन के समय उन्हें कोई नहीं बुलाएगा, चाहे राज्य पर आक्रमण ही क्यों न हो जाए। शत्रुओं ने इसी समय का लाभ उठाकर आक्रमण कर दिया। राजा भजन में अविचल बैठे रहे। कुछ घंटों बाद जब युद्ध शांत हुआ, तो देखा कि बाहरी सेना भाग गई थी और मंदिर में भगवान मदन मोहन की मूर्ति के वस्त्र जले हुए थे, केश बिखरे हुए थे और मुख पर कालिमा थी, जैसे वे स्वयं युद्ध करके लौटे हों। उन्होंने ही तोपें दागकर राज्य को बचाया था। यह 'अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्' के वचन को अक्षरशः सत्य सिद्ध करता है।
🔗 यह कथा गीता के 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' के वचन को सत्य सिद्ध करती है।
🙏
प्रभु की शरण: योग्यता-अयोग्यता का विचार नहीं
शरणागति का द्वार सबके लिए खुला है
▶ देखें (38:41) ▶ Watch (38:41)
सदगुरुदेव आश्वासन देते हैं कि भगवान की शरण लेने के लिए भजननिष्ठ, पुण्यात्मा या शुद्ध होना आवश्यक नहीं है। भगवान कहते हैं कि कितना भी दुराचारी व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से उनकी शरण में आ जाए, तो वे उसे अपना मानकर उसकी रक्षा करते हैं और उसे कभी नष्ट नहीं होने देते। सदगुरुदेव गीता के श्लोकों का प्रमाण देते हुए कहते हैं कि प्रभु अपने शरणागत की योग्यता या अयोग्यता का विचार नहीं करते। वे यह नहीं देखते कि वह पापी है या पुण्यात्मा, भजन करने वाला है या नहीं। उनकी प्रतिज्ञा है कि 'मेरा भक्त नष्ट नहीं होता'। कोई भी पापाचारी, व्यभिचारी, कदाचारी व्यक्ति यदि सच्चे मन से, अनन्य भाव से उनकी शरण में आ जाए, तो वे उसे समस्त पापों से मुक्त करके उसकी रक्षा करते हैं और उसके योग-क्षेम का वहन करते हैं। शर्त केवल सच्ची और अनन्य शरणागति की है।
🔗 यह शिक्षा साधकों को निडर होकर भगवान की शरण लेने के लिए प्रेरित करती है, चाहे वे कितने भी पतित क्यों न हों।
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कथा: जेब में ₹200 और राधा रानी का उपालंभ
कथा: ऋषिकेश में मिली सीख - अनन्य आश्रय का अर्थ
▶ देखें (41:10) ▶ Watch (41:10)
सदगुरुदेव अपना अनुभव बताते हैं कि एक बार ऋषिकेश में द्वादशी के दिन उन्हें भोजन नहीं मिला। जब उन्होंने राधा रानी से शिकायत की, तो भीतर से प्रेरणा हुई कि 'तेरी जेब में अभी ₹200 हैं, फिर मुझसे क्यों अपेक्षा करता है?' इस घटना ने उन्हें सिखाया कि जब तक हम अपना कोई सहारा बनाकर रखते हैं, तब तक भगवान पूरी तरह दायित्व नहीं लेते। सदगुरुदेव एक व्यक्तिगत और मार्मिक घटना सुनाते हैं। एक बार वे ऋषिकेश में थे और द्वादशी के दिन उन्हें भोजन नहीं मिला। किसी ने प्रसाद के लिए नहीं पूछा। दुखी होकर जब उन्होंने राधा रानी से प्रार्थना की, तो उन्हें आंतरिक स्फुरणा हुई कि 'जब तक तुम्हारी जेब में अभी ₹200 का सहारा है, तब तक राधा रानी तुम्हें क्यों खिलाएँगी? उस पैसे से खा लो।' इस घटना से सदगुरुदेव को गहरा धक्का लगा और उन्होंने उसी दिन से पैसे का स्पर्श न करने का संकल्प ले लिया। वे वृंदावन आकर अपने पैसे मुरारी मोहन के पास फेंक दिए। यह घटना सिखाती है कि अनन्य आश्रय का अर्थ है अपना कोई भी भौतिक या मानसिक सहारा त्याग देना।
🔗 यह कथा अनन्य शरणागति के सूक्ष्म और व्यावहारिक पक्ष को उजागर करती है।

✨ विशेष उल्लेख

📋 माया के विविध भ्रम ▶ 11:07 ▶ देखें (11:07)
  • कामिनी माया नहीं है।
  • कांचन माया नहीं है।
  • दृश्यमान जगत माया नहीं है।
  • वास्तव में, यह 'काया' ही माया है - शरीर में आत्म-बुद्धि ही माया का मूल है।
📋 भक्ति-पथ की प्रगति के चरण ▶ 14:51 ▶ देखें (14:51)
  • भावना: भगवद्विषयक चिंतन का आरंभ।
  • आसक्ति: चिंतन से भगवान में लगाव का बढ़ना।
  • कामना: भगवान को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा।
  • क्रोध: प्राप्ति में बाधा रूप सांसारिक वृत्तियों पर अपने ही ऊपर क्रोध।
  • संमोह: 'क्या करूँ' की व्याकुलता।
  • स्मृति-भ्रंश: सांसारिक आसक्तिमूलक स्मृति का नाश।
  • बुद्धि-नाश: 'मैं और मेरा' वाली प्राकृत बुद्धि का अंत।
📋 भजन के लिए त्याज्य तीन वस्तुएं ▶ 21:50 ▶ देखें (21:50)
  • अभिमान (सुरापान सम): 'मैं साधु, विद्वान, भजनंदी हूँ' का अहंकार, जो मदिरापान के नशे जैसा है।
  • गौरव (रौरव नरक सम): सांसारिक बड़प्पन की चाह, जो रौरव नरक के समान है।
  • प्रतिष्ठा (शूकर विष्ठा सम): मान, सम्मान, और पूजा की इच्छा, जो सूअर की विष्ठा के समान त्याज्य है।
✨ सदगुरुदेव का व्यक्तिगत अनुभव: ऋषिकेश की द्वादशी ▶ 41:00 ▶ देखें (41:00)
"द्वादशी के दिन ऋषिकेश में जब सदगुरुदेव को कहीं भोजन नहीं मिला, तो उन्हें अपनी जेब में रखे ₹200 का स्मरण हुआ। उन्हें प्रेरणा हुई कि जब तक उनके पास अपना अवलंब है, राधा रानी क्यों कृपा करेंगी? इस घटना के बाद उन्होंने जीवन भर पैसे का स्पर्श न करने का संकल्प लिया, यह समझते हुए कि अनन्य शरणागति ही सच्ची निर्भरता है।"
✨ सदगुरुदेव का व्यक्तिगत अनुभव: अगरबत्ती की घटना ▶ 34:26 ▶ देखें (34:26)
"सदगुरुदेव ने अपने जीवन की एक घटना सुनाई जब भानुखोर में उनके पास अगरबत्ती नहीं थी और उन्होंने गीता के 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' श्लोक पर संदेह व्यक्त किया। तुरंत ही एक गृहस्थ ने उन्हें बहुत सारी अगरबत्तियाँ लाकर दीं, जिससे उनका विश्वास दृढ़ हो गया कि प्रभु अपने शरणागत का ध्यान रखते हैं, चाहे वह योग्य हो या अयोग्य।"
⛓️ जड़-अभिमान (बंधन)
यह 'मैं शरीर हूँ' की भ्रांति है। यह मोह, ममता और सांसारिक आसक्ति को जन्म देता है। यह बंधन और दुःख का मूल कारण है।
बनाम
🕊️ चिद-अभिमान (मुक्ति)
यह 'मैं भगवान का नित्य अंश, आत्मा हूँ' का यथार्थ बोध है। यह प्रेम, सेवा और भगवदीय संबंध को जाग्रत करता है। यह मुक्ति और आनंद का सोपान है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: माया कहाँ है? क्या यह कामिनी, कांचन या संसार में है? ▶ देखें (12:15) ▶ देखें (12:15)
उत्तर: सदगुरुदेव के अनुसार, माया बाहर कामिनी, कांचन या दृश्य जगत में नहीं है। असली माया तो यह 'काया' ही है, अर्थात् शरीर में जो आत्म-बुद्धि है, वही माया है। उत्तर: सदगुरुदेव समझाते हैं कि यदि माया बाहरी वस्तुओं में होती तो जो उनके संपर्क में नहीं हैं, वे माया-मुक्त होते, पर ऐसा नहीं है। असली माया हमारे भीतर है - यह दृढ़ विश्वास कि 'मैं यह शरीर हूँ'। इसी एक विश्वास के कारण हम शरीर को सुख देने के लिए और शरीर से संबंधित लोगों को सुखी करने के लिए अनंत कर्मों के जाल में फँस जाते हैं। अतः, माया काया में स्थित मोह-बुद्धि ही है।
✅ करें (Do's)
  • अपने वास्तविक चिन्मय स्वरूप का नित्य चिंतन करें।
  • भजन करते समय संसार से पूरी तरह मन हटाकर भगवान में समर्पित हो जाएँ।
  • सांसारिक वस्तुओं को नहीं, बल्कि उनके प्रति अपने 'मोह' को हटाने का प्रयास करें।
  • भगवान के 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' वचन पर पूर्ण विश्वास रखें।
  • घर में रहकर भी अपनी भावना को बदलकर भजन में उन्नति करें।
❌ न करें (Don'ts)
  • इस नश्वर शरीर को 'मैं' मानने की भूल न करें।
  • यह न सोचें कि केवल घर छोड़कर जंगल जाने से भजन हो जाएगा।
  • भजन के मार्ग में मान, प्रतिष्ठा और पूजा की इच्छा न करें।
  • भगवान पर आश्रित रहते हुए अपनी भौतिक आवश्यकताओं की चिंता न करें।
  • भगवान की पूर्ण शरण में तो अन्य सांसारिक सहारे (जैसे बैंक बैलेंस) का भी आसक्ति नहीं।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
वैष्णव वंदना श्री-गुरु-गौरङ्ग-प्रणाम (Sri Guru-Gauranga Pranam) वैष्णव वंदना श्री-गुरु-गौरङ्ग-प्रणाम (Sri Guru-Gauranga Pranam) सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव ने सत्संग का आरंभ इस पवित्र प्रणाम मंत्र के साथ किया, जो गुरु, गौर-निताई, राधा-कृष्ण और उनके भक्तों के प्रति आदर और समर्पण व्यक्त करता है।
गुरुवे गौरचन्द्राय राधिकायै तदालये। कृष्णाय कृष्णभक्ताय तद्भक्ताय नमो नमः॥
gurave gaura candrāya rādhikā tadaya kṛṣṇāya kṛṣṇa bhaktāya taktāya namo namaḥ jaya jaya śrī rādhe śyāma jaya jaya śrī rādhe śyāma jaya jaya śrī rādhe śyāma nitāi gaura hari bol
श्री गुरुदेव, श्री गौरचन्द्र, श्री राधिका, और उनके प्रिय श्री कृष्ण, तथा श्री कृष्ण के भक्तों को मेरा बारम्बार प्रणाम। जय जय श्री राधे श्याम, जय जय श्री राधे श्याम, जय जय श्री राधे श्याम, निताई गौर हरि बोल।
प्रेम-भक्ति-चन्द्रिका श्री नरोत्तम दास ठाकुर, प्रेम-भक्ति-चन्द्रिका प्रेम-भक्ति-चन्द्रिका श्री नरोत्तम दास ठाकुर, प्रेम-भक्ति-चन्द्रिका सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव ने इस पद को यह समझाने के लिए उद्धृत किया कि अपने चिन्मय सहचरी स्वरूप का चिंतन करना कोई कल्पना नहीं, बल्कि गौड़ीय वैष्णव साधना की प्रामाणिक विधि है। इसी भावना के परिपक्व होने पर सिद्ध-देह की प्राप्ति होती है।
साधने भावे जहां, सिद्ध देह पावे तहां। पक्कापक्क मात्र से विचार। अपक्क साधन रीति, पाक प्रेम-भक्ति-नीति, भगति लक्षण तत्व सार॥
sādhane bhābive jāhā, siddha-dehe pābe tāhā. pakkāpakki mātra se vicāra. apakke sādhana-rīti, pākile prema-bhakti. bhakati-lakṣaṇa-tattva-sāra.
साधना अवस्था में साधक जिस भाव का चिंतन करता है, वही उसे सिद्ध अवस्था में प्राप्त होता है। कच्ची और पक्की अवस्था में केवल यही भेद है। कच्ची अवस्था में साधन-रीति का पालन होता है, और जब वह पक जाती है, तब प्रेम-भक्ति प्रकट होती है - यही भक्ति के लक्षणों का सार है।
वैष्णव उक्ति शास्त्र वचन वैष्णव उक्ति शास्त्र वचन सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव ने इस श्लोक का उल्लेख साधकों को, विशेषकर त्यागियों को, मान-प्रतिष्ठा के सूक्ष्म जाल से सावधान करने के लिए किया है। वे बताते हैं कि यह भजन के मार्ग में एक बहुत बड़ा अवरोध है।
अभिमानं सुरापानं गौरवं रौरवं समम्। प्रतिष्ठा सूकरी विष्ठा त्रयं त्यक्त्वा हरिं भजेत्॥
abhimānaṁ surāpānaṁ gauravaṁ rauravaṁ samam. pratiṣṭhā sūkarī viṣṭhā trayaṁ tyaktvā hariṁ bhajet.
अभिमान (घमंड) मदिरापान के समान है, गौरव (बड़प्पन) रौरव नरक के समान है, और प्रतिष्ठा (मान-सम्मान) सूअर की विष्ठा के समान है। इन तीनों का त्याग करके ही श्री हरि का भजन करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.22 श्रीमद्भगवद्गीता 9.22 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
राजा मदन मोहन की कथा और अपने व्यक्तिगत अनुभवों को सुनाने के बाद, सदगुरुदेव भगवान के इस परम आश्वासन को उद्धृत करते हैं। वे यह सिद्ध करते हैं कि यह वचन अक्षरशः सत्य है और जो कोई भी अनन्य भाव से भगवान पर निर्भर होता है, प्रभु उसकी समस्त जिम्मेदारी स्वयं ले लेते हैं।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
ananyāś cintayanto māṁ ye janāḥ paryupāsate। teṣāṁ nityābhiyuktānāṁ yoga-kṣemaṁ vahāmyaham॥
जो अनन्य भक्तजन अन्य समस्त कामनाओं से रहित होकर निरंतर मेरा चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य-निरंतर मुझमें लगे हुए भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु की रक्षा) मैं स्वयं वहन करता हूँ।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.30 श्रीमद्भगवद्गीता 9.30 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव यह स्पष्ट करने के लिए इस श्लोक का उल्लेख करते हैं कि भगवान की शरण में आने के लिए पहले से पुण्यात्मा या शुद्धाचारी होना आवश्यक नहीं है। भगवान पापी से पापी व्यक्ति को भी स्वीकार करते हैं, बशर्ते वह अनन्य भाव से उनकी शरण में आ जाए।
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः॥
api cet su-durācāro bhajate mām ananya-bhāk। sādhur eva sa mantavyaḥ samyag vyavasito hi saḥ॥
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भक्तिभाव से मेरा भजन करता है तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.31 श्रीमद्भगवद्गीता 9.31 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान की प्रतिज्ञा को दोहराते हुए सदगुरुदेव साधकों को आश्वस्त करते हैं कि जो भी भगवान की शरण लेता है, उसका आध्यात्मिक पतन कभी नहीं होता। प्रभु उसे स्वयं शुद्ध करके शाश्वत शांति प्रदान करते हैं।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
kṣipraṁ bhavati dharmātmā śaśvac-chāntiṁ nigacchati। kaunteya pratijānīhi na me bhaktaḥ praṇaśyati॥
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त होता है। हे कुंतीपुत्र! तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता।
भगवद् गीता 15.7 Bhagavad Gita 15.7 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव भगवान का सनातन अंश है, जो शरीर धारण करके स्वयं को शरीर मानता है, जबकि उसका भगवान से अखंड, नित्य, सत्य और आनंदमय संबंध है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
mamaivāṁśo jīva-loke jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ | manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi prakṛti-sthāni karṣati ||
इस संसार में जीव मेरा ही सनातन अंश है। वह प्रकृति में स्थित होकर मन सहित छहों इंद्रियों को आकर्षित करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 2.62 श्रीमद्भगवद्गीता 2.62 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव बताते हैं कि विषयों का चिंतन करने से आसक्ति, फिर कामना, और कामना पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, जो आध्यात्मिक पतन का मार्ग है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
dhyāyato viṣayān puṁsaḥ saṅgas teṣūpajāyate | saṅgāt sañjāyate kāmaḥ kāmāt krodho ’bhijāyate ||
विषयों का चिन्तन करते हुए पुरुष की उनमें आसक्ति हो जाती है; आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
भगवद् गीता 2.63 Bhagavad Gita 2.63 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवत्-विषयक चिंतन से प्रगति होती है, लेकिन संसार विषयक आसक्ति से क्रोध उत्पन्न होता है, जिससे सम्मोह, स्मृति-भ्रंश और अंततः बुद्धि का नाश होता है।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
krodhād bhavati sammohaḥ sammohāt smṛti-vibhramaḥ | smṛti-bhraṁśād buddhi-nāśo buddhi-nāśāt praṇaśyati ||
क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति का नाश होता है, स्मृति के नाश से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य पतन को प्राप्त होता है।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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