[Study Guide : Dec 20, 2025] अहंकार: बंधन और मुक्ति का रहस्य | Ego: The Secret of Bondage and Liberation

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श्री भगवत चर्चा
20 December 2025

अहंकार: बंधन और मुक्ति का रहस्य

जीव के दुःख का कारण 'जड़ी अहंकार' है और मुक्ति का मार्ग 'चिद अभिमान' में छिपा है।

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" एक भावना का परिवर्तन लाओ, घर में रहकर जो कर रहा है करने दो... बस जानो कि ये कोई वस्तु हमारी नहीं, इससे हमारा संबंध था नहीं, है नहीं, और होगा नहीं। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

शरीर (84) सत्य (24) जीव (22) भगवान (22) अहंकार (22) अभिमान (22)

📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं

परम कारण गोविंद
गोविंद ही समस्त कारणों के कारण
▶ देखें (02:20) ▶ Watch (02:20)
परम कृष्ण, सच्चिदानंद विग्रह गोविंद, सभी कारणों के कारण हैं। जीव के संसार चक्र में दुख भोगने के मूल कारण की चर्चा करते हुए, सदगुरुदेव बताते हैं कि हालांकि जीव की प्रकृति से खेलने की इच्छा का तात्कालिक कारण अज्ञात हो सकता है, परंतु परम कृष्ण, सच्चिदानंद विग्रह गोविंद ही समस्त कारणों के अनादि कारण हैं।
🔗 यह कृष्ण (गोविंद के रूप में) को परम दिव्य स्रोत और नियंत्रक के रूप में स्थापित करता है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और जीव के दिव्य संबंध को समझने के लिए महत्वपूर्ण है, भले ही अस्थायी माया के बंधन में हो।
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दृष्टांत: पानी के बुलबुले
दृष्टांत: जीव की उत्पत्ति पानी के बुलबुलों के समान
▶ देखें (2:30) ▶ Watch (2:30)
जैसे पानी से अनगिनत बुलबुले बनते हैं, वैसे ही भगवान की माया शक्ति से अनंत कोटि जीव उत्पन्न हो गए हैं। भगवान की खेलने की इच्छा से यह सृष्टि हुई और माया ने इन जीवों को आवृत कर लिया। यह दृष्टांत जीव की उत्पत्ति के रहस्य को समझाता है। सदगुरुदेव ने जीव की उत्पत्ति का रहस्य समझाते हुए कहा कि यह भगवान की लीला का विस्तार है। जैसे पानी में हलचल होने से असंख्य बुलबुले स्वतः बन जाते हैं, उसी प्रकार जब भगवान ने माया की ओर देखा तो अनंत कोटि जीव प्रकट हो गए। प्रत्येक जीव मूल रूप से भगवान का ही अंश है, जैसे हर बुलबुला पानी का ही अंश है। लेकिन माया के आवरण के कारण, जीव अपने स्रोत को भूल गया और खुद को एक अलग इकाई मान बैठा, ठीक वैसे ही जैसे बुलबुला खुद को पानी से अलग समझता है। यह सृष्टि भगवान की 'बहुस्याम प्रजायेय' (मैं एक से अनेक हो जाऊं) की इच्छा का परिणाम है।
🔗 यह दृष्टांत आज के मूल प्रश्न का उत्तर देता है कि जीव कहाँ से आया और कैसे वह भगवान का अंश होते हुए भी अलग प्रतीत होता है।
दृष्टांत: बिजली और मशीन
दृष्टांत: बिजली और मशीन का संयोग
▶ देखें (2:53) ▶ Watch (2:53)
जैसे बिजली स्वयं कुछ नहीं कर सकती, पर मशीन में प्रवेश करते ही उसे क्रियाशील बना देती है, वैसे ही चेतन आत्मा जड़ प्रकृति रूपी शरीर में प्रवेश कर उसे सचेतन बनाती है। सदगुरुदेव समझाते हैं कि आत्मा बिजली की तरह है - स्वयं निष्क्रिय। और शरीर एक मशीन की तरह है - स्वयं जड़। दोनों अलग-अलग कुछ नहीं कर सकते। लेकिन जब बिजली का प्रवाह मशीन में होता है, तो वह मशीन अपने स्वरूप के अनुसार कार्य करने लगती है - पंखा घूमता है, बल्ब जलता है। इसी प्रकार, चेतन आत्मा जब जड़ शरीर में तदात्म होता है, तब यह शरीर सचेतन होकर कर्म करता हुआ प्रतीत होता है। कर्ता न तो केवल आत्मा है और न ही शरीर, बल्कि दोनों का संयोग ही इस संसार के खेल का कारण है।
🔗 यह दृष्टांत समझाता है कि जीव का कर्तापन और भोक्तापन एक भ्रम है, जो चेतन आत्मा और जड़ शरीर के संयोग से उत्पन्न होता है।
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दृष्टांत: मृग मरीचिका
दृष्टांत: संसार एक मृग मरीचिका
▶ देखें (5:04) ▶ Watch (5:04)
जैसे प्यासा हिरण रेगिस्तान में पानी के भ्रम (मरीचिका) के पीछे भागता है पर उसे पानी नहीं मिलता, वैसे ही जीव संसार के विषयों में सुख खोजता है जो वास्तव में हैं ही नहीं। सदगुरुदेव कहते हैं कि जीव आनंद का अंश है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से आनंद की खोज करता है। लेकिन माया के प्रभाव से वह इस संसार में आनंद खोजता है, ठीक वैसे ही जैसे एक प्यासा मृग रेगिस्तान में सूर्य की किरणों से उत्पन्न हुए जल के आभास के पीछे भागता है। उसे दूर से लगता है कि वहाँ तालाब है, पर पास जाने पर केवल रेत ही मिलती है। इसी प्रकार, जीव सांसारिक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध में आनंद खोजते हुए भटकता रहता है और अंत में धोखा ही पाता है, क्योंकि सच्चा आनंद तो उसके अपने स्वरूप में ही है।
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अहंकार: बंधन का मूल कारण
अहंकार ही जीव के बंधन का मूल कारण है
▶ देखें (8:47) ▶ Watch (8:47)
भगवान और जीवात्मा के बीच अहंकार ही एकमात्र आवरण है। यह 'मैं शरीर हूँ' और 'यह मेरा है' का भाव ही जीव को संसार चक्र में बांधकर रखता है। सदगुरुदेव ने स्पष्ट किया कि जीव के दुःख का मूल कारण अहंकार है। यह कर्त्तृत्व अभिमान और भोक्तृत्व अभिमान ही है जो भोगायतन शरीर को 'मैं' मानने पर विवश करता है। इसी जड़ी अहंकार के कारण जीव कामना-वासनाओं में फंसकर अपने कर्म संस्कार अनुसार 84 लाख योनियों में भटकता है। जिस दिन यह अहंकार रूपी आवरण मिट जाता है, उसी दिन जीव अपने नित्य, शुद्ध, आनंदमय स्वरूप को पहचान लेता है और उसे अनुभव होता है कि भगवान ही उसके सबसे निकटतम और प्रियतम हैं।
🔗 यह शिक्षा आज के सत्संग का केंद्रीय बिंदु है, जो बताती है कि समस्त दुःखों की जड़ अहंकार है।
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मैं ही अपना मित्र, मैं ही अपना शत्रु
आत्म-विजय: मित्रता और शत्रुता का निर्णय
▶ देखें (21:54) ▶ Watch (21:54)
जो व्यक्ति अपनी भोग वृत्तियों और जड़ अभिमान पर विजय पा लेता है, वह स्वयं का मित्र है। जो इन वृत्तियों के अधीन रहता है, वह स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु बनकर खुद को संसार चक्र में धकेलता है। सदगुरुदेव समझाते हैं कि हम स्वयं ही अपने उद्धार और पतन के लिए जिम्मेदार हैं। जब हम अपनी इंद्रियों, मन, और अहंकार (मैं शरीर हूँ का भाव) को जीत लेते हैं और उन्हें भजन में लगाते हैं, तो हम अपने सबसे अच्छे मित्र बन जाते हैं। इसके विपरीत, जब हम अपनी भोग-वृत्ति, मोह-ममता और जड़ अभिमान पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, तो हम स्वयं के शत्रु बन जाते हैं। यही शत्रुतापूर्ण 'मैं' आत्मा को बंधन में डालकर 84 लाख योनियों के दुःख में धकेल देता है।
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घर में प्रेम की परीक्षा: केवल भजन करने का उदाहरण
गृहस्थ जीवन में प्रेम की वास्तविकता: भजन करने का उदाहरण
▶ देखें (16:40) ▶ Watch (16:40)
सदगुरुदेव घर में प्रेम की वास्तविकता जानने के लिए एक प्रयोग बताते हैं: अगर कोई व्यक्ति घर में केवल भजन करने और काम न करने का फैसला करे, तो परिवार का 'प्रेम' समाप्त हो जाएगा। सदगुरुदेव श्रोताओं को गृहस्थ जीवन में 'प्रेम' की सच्चाई का एक प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति घर जाकर कहे कि वह अब कोई काम नहीं करेगा, केवल भजन करेगा और उसे दो रोटी दे दी जाएं, तो शुरुआत में शायद कुछ दिन ठीक रहेगा, लेकिन जल्द ही परिवार वाले उससे तंग आ जाएंगे। वे उसे हिमालय या वृंदावन जाने को कहेंगे और धीरे-धीरे उसका अनादर करने लगेंगे, क्योंकि उनका 'प्रेम' उसके काम करने या योगदान देने पर आधारित था। यह उदाहरण दर्शाता है कि सांसारिक रिश्ते लेनदेन पर आधारित होते हैं और सच्चे, निःस्वार्थ प्रेम की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
🔗 यह कहानी जीव के सांसारिक मोह और बंधनों की भ्रामक प्रकृति को उजागर करती है, यह दर्शाते हुए कि सांसारिक 'सुख' कितना क्षणिक और स्वार्थ पर आधारित है।
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सांसारिक प्रेम एक लेनदेन का खेल है
सांसारिक संबंधों की परीक्षा: एक व्यावहारिक दृष्टांत
▶ देखें (19:18) ▶ Watch (19:18)
परिवार में जो प्रेम दिखता है, वह अक्सर स्वार्थ पर आधारित होता है। सदगुरुदेव ने कहा कि आप घर में जाकर कहो कि मैं अब काम नहीं करूँगा, सिर्फ भजन करूँगा, तो कुछ दिन बाद कोई आपको रोटी भी नहीं देगा। यह दिखाता है कि जब तक आप सुख देते हैं, तभी तक अपने हैं। लोग मानते हैं कि उनका परिवार उनसे बहुत प्रेम करता है, लेकिन यह प्रेम अक्सर सशर्त होता है। सदगुरुदेव ने इसकी परीक्षा करने का एक उपाय बताया। घर जाकर घोषणा कर दो, "मैं अब कोई काम-धाम नहीं करूँगा, केवल भजन करूँगा, मुझे बस दो रोटी दे देना।" पहले दिन, दूसरे दिन शायद सब ठीक रहेगा। लेकिन धीरे-धीरे ताने शुरू हो जाएंगे, सूखी रोटी मिलेगी, फिर बासी रोटी और अंत में गाली-गलौज करके घर से निकालने की नौबत आ जाएगी। इससे यह सिद्ध होता है कि सांसारिक संबंध सुख और उपयोगिता के लेनदेन पर टिके हैं, यह निस्वार्थ प्रेम नहीं है।
🔗 यह व्यावहारिक शिक्षा जड़ी अहंकार को तोड़ती है, जो हमें सांसारिक संबंधों को सत्य और स्थायी मानने के लिए प्रेरित करता है।
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साधना का सार: भावना का परिवर्तन
सच्ची साधना स्थान नहीं, भावना परिवर्तन है
▶ देखें (27:39) ▶ Watch (27:39)
वास्तविक साधना घर-बार छोड़ना नहीं, बल्कि अपनी भावना को बदलना है। संसार में रहते हुए भी यह जानना कि 'इस संसार में कोई भी वस्तु या व्यक्ति हमारा नहीं है। यह सब आगंतुक है, जो पहले था नहीं और बाद में रहेगा नहीं।', यही असंगता सच्चा भजन है। सदगुरुदेव ने एक क्रांतिकारी विचार दिया कि भजन के लिए घर, परिवार या संसार छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सब झूठी बातें हैं। असली साधना केवल एक भावना का परिवर्तन है। आप जो कर रहे हैं, करते रहें; जो खा रहे हैं, खाते रहें, बस भीतर से यह दृढ़तापूर्वक जानें कि इस संसार में कोई भी वस्तु या व्यक्ति हमारा नहीं है। यह सब आगंतुक है, जो पहले था नहीं और बाद में रहेगा नहीं। इस डिटैचमेंट या असंगता के भाव को दृढ़ करना ही सबसे बड़ा भजन है।
🔗 यह शिक्षा आज के मुख्य विषय का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करती है कि अहंकार को कैसे परास्त किया जाए।
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साधना का परम लक्ष्य: श्री राधा रानी
भजन का सार: राधा रानी के चरण-कमलों की प्राप्ति
▶ देखें (34:35) ▶ Watch (34:35)
साधना का सार है यह जानना कि 'मैं श्री राधा रानी का हूँ और श्री राधा रानी मेरी हैं'। जीवन का एकमात्र उद्देश्य उनके चरण कमलों की प्राप्ति करना है। इस निश्चय के साथ भक्त दुनिया के मेले में अकेला होते हुए भी सदा अपने आराध्य के चिंतन में मग्न रहता है। सभी साधनों, जप, तप और वैराग्य का अंतिम लक्ष्य क्या है? सदगुरुदेव ने बताया कि यह है 'चिद अभिमान' की पराकाष्ठा, जहाँ साधक यह अनुभव करता है कि 'मैं राधा रानी का हूँ, और राधा रानी मेरी हैं'। यही सच्चा त्याग है जहाँ मन में सांसारिक वासनाओं का लेश मात्र भी नहीं रहता। जीवन का एकमात्र उद्देश्य श्री राधा रानी के चरणों की सेवा प्राप्त करना बन जाता है। तब भक्त 'दुनिया का मेला, मैं हूँ अकेला' की भावना में स्थित होकर, सांसारिक लेनदेन से ऊपर उठकर, अपने आराध्य के प्रेम में सदा मग्न रहता है।
दृष्टांत: प्रकाश और अंधकार
चिद अभिमान रूपी प्रकाश से जड़ी अभिमान रूपी अंधकार का नाश
▶ देखें (37:10) ▶ Watch (37:10)
जैसे-जैसे साधक चिद अभिमान ('मैं भगवान का हूँ') रूपी प्रकाश की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे जड़ी अभिमान ('मैं शरीर हूँ') रूपी अंधकार स्वतः ही मिटता जाता है। साधना का अर्थ है प्रकाश की ओर यात्रा करना। अंधकार से लड़ना नहीं, बल्कि प्रकाश को बढ़ाना है। सदगुरुदेव साधना की प्रक्रिया को प्रकाश और अंधकार के दृष्टांत से समझाते हैं। जड़ी अभिमान, यानी 'मैं शरीर हूँ' का भाव, एक घना अंधकार है जो जीव को ढके हुए है। चिद अभिमान, यानी 'मैं भगवान का अंश हूँ' का भाव, एक प्रकाश है। जैसे-जैसे हम साधना द्वारा चिद अभिमान को बढ़ाते हैं, वैसे-वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है। प्रकाश के बढ़ने से अंधकार अपने आप मिट जाता है। हमें अंधकार से लड़ना नहीं है, हमें केवल प्रकाश को बढ़ाना है। जितना यह चिद अभिमान बढ़ता जाएगा, उतना ही माया का अंधकार हटता जाएगा।
🔗 यह दृष्टांत परम प्राप्ति के उपाय को स्पष्ट करता है; नकारात्मकता से लड़ने की बजाय सकारात्मक स्वरूप-चिंतन को बढ़ाने से ही कल्याण होता है।

✨ विशेष उल्लेख

📋 जीवात्मा के पुनर्जन्म की प्रक्रिया ▶ 11:28 ▶ देखें (11:28)
  • मृत्यु के बाद जीवात्मा सूक्ष्म शरीर में कर्म संस्कार लेकर उत्क्रांत होता है।
  • पितृ लोक में शुभाशुभ कर्म भोगने के बाद वायुमंडल में आ जाता है।
  • वर्षा के जल के साथ पृथ्वी पर आकर वृक्ष, लता आदि में आश्रय लेता है।
  • फल के माध्यम से मनुष्य या पशु के शरीर में प्रवेश करता है।
  • शरीर में सप्तधातु (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) में परिवर्तित होता है।
  • शुक्राणु रूप में स्थित होकर, मिलन प्रक्रिया द्वारा मातृ गर्भ में प्रवेश कर नया शरीर धारण करता है।
📋 अहंकार की दो वृत्तियाँ ▶ 17:29 ▶ देखें (17:29)
  • जड़ वृत्ति (जड़ी अभिमान): 'मैं यह शरीर हूँ और शरीर संबंधी वस्तुएं मेरी हैं'। यह बंधन और 84 लाख योनियों में भ्रमण का कारण है।
  • चित् वृत्ति (चिद अभिमान): 'मैं शरीर नहीं, मैं भगवान का नित्य अंश हूँ, भगवान मेरे हैं'। यह मुक्ति और परमानंद का कारण है।
📋 तीन शरीर (Three Bodies)
  • स्थूल शरीर (Gross Body)
  • सूक्ष्म शरीर (Subtle Body)
  • कारण शरीर (Causal Body)
📋 पंचभूत (Five Elements)
  • अग्नि (Fire)
  • जल (Water)
  • आकाश (Space)
  • वायु (Air)
  • पृथ्वी (Earth)
📋 सप्त धातु (Seven Dhatus)
  • रस (Plasma/Lymph)
  • रक्त (Blood)
  • मांस (Muscle)
  • मेद (Fat)
  • अस्थि (Bone)
  • मज्जा (Bone Marrow)
  • शुक्र (Reproductive Fluid/Semen)
📋 अहंकार की दो वृत्ति (Two Tendencies of Ego)
  • चित्त वृत्ति (Conscious Tendency)
  • जड़ वृत्ति (Material Tendency)
📋 श्री रामकृष्ण परमहंस देव के अनुसार दो 'आमी' (Two 'I's according to Ramakrishna Paramahansa Deva)
  • काचा आमी (Kacha Aami - Raw 'I' / Material Ego)
  • पाका आमी (Paka Aami - Ripe 'I' / Spiritual Ego)
⛓️ जड़ी अहंकार (काचा आमी)
इसका अर्थ है 'मैं शरीर हूँ और यह संसार मेरा है'। यह बंधन, दुःख और 84 लाख योनियों में भ्रमण का कारण है।
बनाम
🪔 चिद अभिमान (पाका आमी)
इसका अर्थ है 'मैं भगवान का नित्य दास/अंश हूँ, भगवान मेरे हैं'। यह मुक्ति, परमानंद और भगवत् प्राप्ति का साधन है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: गृहस्थी में रहकर भजन कैसे करें? समय ही नहीं मिलता। ▶ देखें (32:54) ▶ देखें (32:54)
उत्तर: आपको कुछ भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। केवल अपनी भावना बदलें कि यह संसार और इसके लोग मेरे नहीं हैं। यही सबसे बड़ा भजन है। उत्तर: सदगुरुदेव कहते हैं कि यह कहना कि 'समय नहीं मिलता' स्वयं को धोखा देना है। आपको संसार, काम या परिवार छोड़ने के लिए कोई नहीं कह रहा। आप सब कुछ पहले जैसा ही करते रहें, बस अपने मन में यह बोध जगाएं कि यह सब कुछ अस्थायी है। शरीर, स्त्री, पुत्र, धन - कुछ भी आपका नहीं है। इस असक्ति के भाव को बनाए रखना ही गृहस्थ में रहकर भजन करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
प्रश्न: सच्चा त्यागी कौन है? ▶ देखें (34:02) ▶ देखें (34:02)
उत्तर: सच्चा त्यागी वह नहीं जो बाहरी वेश बदलता है, बल्कि वह है जिसके मन में सांसारिक वस्तुओं के प्रति किंचित भी आसक्ति या वासना नहीं है। उत्तर: सदगुरुदेव कहते हैं कि 'मैं बड़ा त्यागी हूँ' यह कहना भी एक झूठा अभिमान है। जब शरीर तक अपना नहीं है तो त्याग किस वस्तु का किया? सच्चा त्याग बाहरी नहीं, आंतरिक होता है। जिसके मन में दृश्यमान जगत के प्रति कोई आकर्षण या वासना शेष नहीं है, और जो यह जानता है कि 'मैं केवल राधा रानी का हूँ और वे ही मेरी हैं', वही यथार्थ में त्यागी है।
✅ करें (Do's)
  • अपनी भावना में परिवर्तन लाएं और समझें कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
  • यह दृढ़ निश्चय करें कि 'मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं'।
  • संसार में रहते हुए भी सभी वस्तुओं और संबंधों को अस्थायी और आगंतुक जानें।
  • निरंतर अपने स्वरूप का चिंतन करें कि आप नित्य, शुद्ध, सनातन और आनंदमय हैं।
❌ न करें (Don'ts)
  • शरीर को 'मैं' और शरीर से संबंधित वस्तुओं को 'मेरा' मानने का भ्रम न पालें।
  • सांसारिक विषयों में स्थायी सुख खोजने की व्यर्थ चेष्टा न करें।
  • यह न सोचें कि भजन करने के लिए घर-परिवार त्यागना आवश्यक है।
  • अपने को कर्ता या भोक्ता मानकर झूठे अहंकार में न पड़ें।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
ब्रह्म संहिता 5.1 Brahma Samhita 5.1 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक यह स्थापित करने के लिए उद्धृत किया गया है कि समस्त सृष्टि, जिसमें जीवों का प्राकट्य भी शामिल है, का मूल कारण भगवान गोविंद ही हैं।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥
īśvaraḥ paramaḥ kṛṣṇaḥ sac-cid-ānanda-vigrahaḥ। anādir ādir govindaḥ sarva-kāraṇa-kāraṇam॥
श्री कृष्ण, जो गोविन्द के नाम से जाने जाते हैं, वे ही परम ईश्वर हैं। उनका शरीर सत्-चित्-आनंदमय है। वे सबके आदि हैं, यद्यपि उनका कोई आदि नहीं है, और वे ही समस्त कारणों के कारण हैं।
भगवद् गीता 15.7 Bhagavad Gita 15.7 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव ने इस श्लोक का उल्लेख यह समझाने के लिए किया कि जीवात्मा मूल रूप से भगवान का ही अविनाशी अंश है, परन्तु प्रकृति में स्थित होकर वह अपने को कर्ता-भोक्ता मानकर संघर्ष करता है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
mamaivāṁśo jīva-loke jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ। manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi prakṛti-sthāni karṣati॥
इस संसार में प्रत्येक जीव मेरा ही सनातन अंश है। लेकिन माया में बद्ध होने के कारण, वह मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के गुणों से संघर्ष कर रहा है।
भगवद् गीता 13.21 Bhagavad Gita 13.21 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
इस श्लोक के माध्यम से यह समझाया गया है कि संसार के समस्त क्रियाकलापों का कारण प्रकृति है, जबकि जीवात्मा केवल प्रकृति के गुणों के संग के कारण सुख-दुःख का भोक्ता बनता है।
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
kārya-kāraṇa-kartṛtve hetuḥ prakṛtir ucyate। puruṣaḥ sukha-duḥkhānāṁ bhoktṛtve hetur ucyate॥
कार्य और कारण को उत्पन्न करने में प्रकृति को हेतु कहा जाता है, और पुरुष (जीवात्मा) को सुख-दुःख के भोगने में हेतु कहा जाता है।
भगवद् गीता 13.22 Bhagavad Gita 13.22 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि जीवात्मा का अच्छी और बुरी योनियों में जन्म लेना उसके प्रकृति के गुणों के साथ संग करने का ही परिणाम है।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
puruṣaḥ prakṛti-stho hi bhuṅkte prakṛti-jān guṇān। kāraṇaṁ guṇa-saṅgo 'sya sad-asad-yoni-janmasu॥
प्रकृति में स्थित पुरुष (जीवात्मा) प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों को भोगता है। इन गुणों का संग ही उसके अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।
भगवद् गीता 6.5 Bhagavad Gita 6.5 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव ने यह बताया कि हम स्वयं ही अपने मित्र और शत्रु हैं। जब हम मन को जीत लेते हैं तो वह मित्र है, अन्यथा वह शत्रु बनकर हमें संसार में फंसाता है।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
uddhared ātmanātmānaṁ nātmānam avasādayet। ātmaiva hy ātmano bandhur ātmaiva ripur ātmanaḥ॥
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन के द्वारा अपना उद्धार करे और अपना पतन न करे। क्योंकि यह मन ही आत्मा का मित्र है और यही आत्मा का शत्रु भी है।
भगवद् गीता 9.31 Bhagavad Gita 9.31 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान के इस आश्वासन को उद्धृत करते हुए सदगुरुदेव ने कहा कि जो सब ओर से हारकर भगवान की शरण में आता है, भगवान उसे अभय प्रदान करते हैं और उसका कभी नाश नहीं होने देते।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
kṣipraṁ bhavati dharmātmā śaśvac-chāntiṁ nigacchati। kaunteya pratijānīhi na me bhaktaḥ praṇaśyati॥
वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शांति को प्राप्त होता है। हे कुंतीपुत्र! तुम निश्चयपूर्वक जान लो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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