श्री भगवत चर्चा
25 December 2025
जड़-अभिमान से चिद-अभिमान की ओर: स्वरूप की पुनःप्राप्ति
जीवात्मा के बंधन का मूल कारण 'जड़-अभिमान' (देहात्मबुद्धि) है, जो माया की आवरण और विक्षेप शक्तियों का परिणाम है। इस सत्संग में सद्गुरुदेव समझाते हैं कि कैसे साधक 'चिद-अभिमान' (मैं राधाजी की सहचरी हूँ) को जागृत करके और 'भूल' को सुधारकर माधुर्य भक्ति के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच सकता है।
Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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संक्षेप
विस्तार
हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
"
भगवान को 'अपनाना' नहीं है, वो तो अपने हैं ही। बस उस 'भूल' को मिटाना है जिसने अपने को पराया और पराए (संसार) को अपना बना रखा है।
"
अहंकार (25)चिद-वृत्ति (12)स्वरूप-विस्मृति (8)माधुर्य-उपासना (6)जड़-चेतन (15)राधा-रानी (10)भ्रम (8)
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महा-भ्रम: जड़ और चेतन की ग्रंथि
सृष्टि रचना के मूल उद्देश्य और जीवात्मा द्वारा शरीर को अपना स्वरूप मान लेने की भ्रांति को स्पष्ट करना।
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सद्गुरुदेव सृष्टि रचना के वैदिक सिद्धांत को समझाते हैं कि भगवान ने खेल के लिए एक से अनेक होने का संकल्प लिया। चेतन आत्मा ने प्रकृति (शरीर) में प्रवेश किया, किन्तु माया के प्रभाव से वह अपना वास्तविक स्वरूप भूल गई।
सद्गुरुदेव विस्तार से बताते हैं कि आत्मा 'अशरीरी चेतन' है, लेकिन खेल के लिए उसे प्रकृति ने शरीर दिया। तदात्मता के कारण चेतन (आत्मा) ने जड़ (शरीर) के धर्मों को अपना मान लिया और जड़ शरीर चेतनवत व्यवहार करने लगा। यह 'उल्टा-पलटा' ही जीव के बंधन का कारण है। माता-पिता केवल शरीर का दान देते हैं, किन्तु जीवात्मा भगवान का अंश है जो इस जड़ मशीन में फंस गया है।
🔗 यह खंड जीव की मूल समस्या 'देह-अभिमान' की उत्पत्ति को दर्शाता है।
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सद्गुरुदेव संसार की तुलना एक स्वप्न से करते हैं। जैसे स्वप्न में हम बिना किसी वास्तविक कारण के रोते या डरते हैं, वैसे ही इस 'मृत्युलोक' में हम नश्वर वस्तुओं के लिए दुखी होते हैं।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जैसे सोये हुए व्यक्ति के लिए स्वप्न का शेर भी भय का कारण होता है, वैसे ही अज्ञानी जीव के लिए यह मिथ्या संसार दुख का कारण बना हुआ है। जब तक ज्ञान रूपी सवेरा नहीं होता और स्वप्न टूटता नहीं, तब तक जीव को सुख-दुख, मान-अपमान के थपेड़े सहने ही पड़ेंगे। मृत्यु ही इस लोक का एकमात्र अटल सत्य है, फिर भी हम अनित्य में सुख खोज रहे हैं।
🔗 संसार की असारता को समझने के लिए यह एक सशक्त पौराणिक रूपक है।
रोग का निदान: भूल और अहंकार
दुख के मुख्य कारण 'अहंकार' को परिभाषित करना और इसे मिटाने के बजाय रूपांतरित करने की विधि बताना।
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साधना क्या है? केवल एक 'भूल' सुधारना
अपना और पराया का विवेक: वास्तविक सम्बन्ध
▶ देखें (9:07)
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सद्गुरुदेव अत्यंत सरल शब्दों में परिभाषित करते हैं कि भजन केवल माला घिसना नहीं है। भजन का अर्थ है उस 'भूल' को सुधारना जिसमें हमने भगवान (अपने) को पराया और संसार (पराये) को अपना मान लिया है।
सद्गुरुदेव चेतावनी देते हैं कि केवल क्रियात्मक भजन (माला फेरना) पर्याप्त नहीं है यदि मन की 'भूल' नहीं सुधरी। जीव का भगवान से नित्य, अखंड और अविच्छिन्न सम्बन्ध है। माया ने हमें भ्रमित कर दिया है कि हमारा सम्बन्ध शरीर और संसार से है। साधना का अर्थ है- शरीर और संसार को 'आगंतुक' (Temporary) मानकर उपेक्षा करना और भगवान को अपना नित्य प्रियतम स्वीकार करना।
🔗 यह शिक्षण 'क्रियात्मक भजन' से 'भावात्मक भजन' की ओर संक्रमण का मार्ग प्रशस्त करता है।
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दृष्टांत: अनंत ब्रह्मांड का सुख बनाम भगवत प्रेम
भगवत प्रियता की महिमा और सांसारिक सुख की तुच्छता
▶ देखें (10:12)
▶ Watch (10:12)
सद्गुरुदेव तुलना करते हैं कि यदि अनंत कोटि ब्रह्मांडों का समस्त सुख एक तराजू पर रखा जाए, तो भी वह भगवान की तनिक सी प्रियता के सामने तुच्छ है। भगवत प्रेम के सामने सांसारिक सुख 'विष्ठा' (मल) समान है।
सद्गुरुदेव बताते हैं कि जिस दिन साधक के हृदय में भगवान की प्रियता का एक कण भी जागृत हो जाएगा, उस दिन उसे संसार का प्रलोभन प्रभावित नहीं कर सकेगा। जैसे कोई मल-मूत्र की ओर लौटकर नहीं देखता, वैसे ही प्रेमी भक्त सांसारिक भोगों की ओर दृष्टि भी नहीं डालता। यह वैराग्य प्रयास से नहीं, बल्कि भगवत-प्रेम के स्वाद से स्वतः सिद्ध होता है।
🔗 यह तुलना भक्ति के सर्वोच्च आनंद को स्थापित करती है।
समाधान: चिद-वृत्ति और स्वरूप सिद्धि
गुरु प्रदत्त 'स्वरूप' (सिद्धा देह) के माध्यम से चिद-अभिमान को जागृत करना और माधुर्य भक्ति में प्रवेश करना।
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दृष्टांत: करेंसी नोट का मूल्य
आरोप-प्रत्यारोप का सिद्धांत: सुख कहाँ है?
▶ देखें (21:16)
▶ Watch (21:16)
सद्गुरुदेव कागज के नोट का उदाहरण देते हैं। जैसे कागज के टुकड़े में स्वयं कोई आनंद नहीं है, हम उस पर मूल्य का 'आरोप' करते हैं। वैसे ही संसार में सुख नहीं है, हम अपनी मान्यता से उसे सुखद मानते हैं।
सद्गुरुदेव विश्लेषण करते हैं कि जड़ वस्तु (रुपया, शरीर) कभी चेतन आत्मा को आनंद नहीं दे सकती। आनंद आत्मा का धर्म है। हम भ्रमवश जड़ वस्तुओं पर आनंद का आरोपण करते हैं। जिस प्रकार नोट खो जाने पर दुख कागज के लिए नहीं, बल्कि हमारे आरोपित मूल्य के लिए होता है, उसी प्रकार संसार का सुख-दुख केवल हमारी मानसिक मान्यता का खेल है।
🔗 यह तर्क 'जड़-अभिमान' की व्यर्थता को वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध करता है।
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सद्गुरुदेव भगवान के तीन स्वरूपों का वर्णन करते हैं: १) ज्ञानमय (निराकार ब्रह्म), २) ऐश्वर्यमय (वैकुंठ के नारायण), और ३) माधुर्यमय (वृंदावन)। ज्ञानी ब्रह्म में लीन होकर अपनी सत्ता खो देता है। 'ऐश्वर्यमय उपासना' में भगवान अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक हैं, वहां भय और संकोच है। लेकिन 'माधुर्यमय उपासना' (वृंदावन) सबसे विलक्षण है। वहां भगवान भगवान नहीं, बल्कि हमारे 'अपने' हैं। वहां ऐश्वर्य प्रेम में दब जाता है—ठाकुरजी को भूख भी लगती है और ठंड भी, ताकि भक्त उनकी सेवा कर सके। यह रस केवल व्रज में है।
सद्गुरुदेव भगवान के तीन स्वरूपों का वर्णन करते हैं: १) ज्ञानमय (निराकार ब्रह्म), २) ऐश्वर्यमय (वैकुंठ के नारायण), और ३) माधुर्यमय (वृंदावन)। ज्ञानी ब्रह्म में लीन होकर अपनी सत्ता खो देता है। 'ऐश्वर्यमय उपासना' में भगवान अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक हैं, वहां भय और संकोच है। लेकिन 'माधुर्यमय उपासना' (वृंदावन) सबसे विलक्षण है। वहां भगवान भगवान नहीं, बल्कि हमारे 'अपने' हैं। वहां ऐश्वर्य प्रेम में दब जाता है—ठाकुरजी को भूख भी लगती है और ठंड भी, ताकि भक्त उनकी सेवा कर सके। यह रस केवल व्रज में है।
🔗 यह खंड गौड़ीय सिद्धांत (अचिंत्य भेदाभेद) की सर्वोच्चता दर्शाता है।
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ज्ञान मार्ग में साधक 'सूक्ष्म शरीर' और 'कारण शरीर' (बीज/इच्छा) दोनों को जलाकर ब्रह्म में लीन होता है। परन्तु भक्त अपनी 'सेवा की इच्छा' (चिन्मय शरीर) को जीवित रखता है ताकि वह नित्य धाम में सेवा कर सके।
सद्गुरुदेव एक गूढ़ तत्त्व स्पष्ट करते हैं। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर छूटता है, पर सूक्ष्म और कारण शरीर (वासनाओं का बीज) रह जाता है, जिससे पुनर्जन्म होता है। ज्ञानी इस 'कारण शरीर' को भी नष्ट कर 'मोक्ष' पाता है (शून्यवत स्थिति)। लेकिन प्रेमी भक्त को भगवान एक 'चिन्मय शरीर' देते हैं, क्योंकि भक्त को मुक्ति नहीं, सेवा चाहिए। वह अपनी 'सेवेच्छा' को कभी मरने नहीं देता।
🔗 यह मोक्ष और प्रेमा-भक्ति के बीच का तात्विक अंतर है।
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चिद-वृत्ति का जागरण: मैं राधा की सहचरी हूँ
स्वरूप सिद्धि: अहंकार का दिव्य रूपांतरण
▶ देखें (22:49)
▶ Watch (22:49)
सद्गुरुदेव गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत का गूढ़ रहस्य खोलते हैं। 'जड़-वृत्ति' (मैं शरीर हूँ) को काटने के लिए गुरु साधक को 'चिद-वृत्ति' (स्वरूप) प्रदान करते हैं- जैसे 'तू राधा रानी की दासी/सहचरी है'।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि अहंकार को मिटाना कठिन है, इसलिए उसे बदल देना चाहिए। गुरुदेव दीक्षा के समय साधक को उसका चिन्मय स्वरूप (नाम, रूप, सेवा, कुंज) प्रदान करते हैं। साधक को निरंतर चिंतन करना चाहिए कि 'मैं यह भौतिक शरीर नहीं, मैं दिव्य वृंदावन में राधा रानी की सेवा करने वाली मंजरी हूँ।' जैसे रोशनी आने पर अंधेरा स्वतः जाता है, वैसे ही इस 'चिद-वृत्ति' के चिंतन से देहाभिमान स्वतः नष्ट हो जाता है।
🔗 यह सत्संग का केंद्रीय सिद्धांत (Core Doctrine) है- स्वरूप का अनुसंधान।
✨ विशेष उल्लेख
📋 अहंकार की दो वृत्तियाँ (Two Types of Ego)
▶ 08:05
▶ देखें (08:05)
- जड़-वृत्ति: 'मैं शरीर हूँ और शरीर सम्बन्धी वस्तुएँ मेरी हैं।' यह बंधन का कारण है।
- चिद-वृत्ति: 'मैं चिन्मय हूँ, भगवान का हूँ, और राधा रानी की सहचरी हूँ।' यह मुक्ति और प्रेम का द्वार है।
📋 उपासना के तीन प्रकार (Three Modes of Worship)
▶ 24:53
▶ देखें (24:53)
- ज्ञानमय उपासना (ब्रह्म): निर्गुण, निराकार, जहाँ भगवान का नाम, रूप, गुण और लीला नहीं होती।
- ऐश्वर्यमय उपासना (वैकुंठ): सगुण-साकार, जहाँ भगवान की प्रभुता और मर्यादा प्रधान है।
- माधुर्यमय उपासना (ब्रज): जहाँ भगवान और भक्त के बीच संकोच रहित, आत्मीय और प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होता है (जैसे ब्रज में)।
📋 माया की दो शक्तियाँ
▶ 00:32
▶ देखें (00:32)
- आवरण शक्ति: जो जीव के वास्तविक सच्चिदानंद स्वरूप को ढक देती है।
- विक्षेप शक्ति: जो जीव को संसार के विषयों में उलझा देती है और भ्रमित करती है।
🔗 जड़-वृत्ति (Jad-Vritti)
मैं शरीर हूँ, यह संसार मेरा है। यह बंधन और 84 लाख योनियों का कारण है।
बनाम
🪷 चिद-वृत्ति (Chid-Vritti)
मैं आत्मा हूँ, राधा रानी की सहचरी हूँ। यह मुक्ति और नित्य सेवा का हेतु है।
📿 क्रियात्मक भजन
केवल माला फेरना या बाहरी नियम पालन करना, जबकि मन में 'भूल' (देहाभिमान) बनी रहे।
बनाम
❤️ भावात्मक भजन
मन से अपनी पहचान बदल लेना। 'पराया' को पराया और 'अपने' (भगवान) को अपना मान लेना।
जिज्ञासा (Q&A)
प्रश्न: संसार में सुख क्यों नहीं मिलता, जबकि हम निरंतर प्रयास करते हैं?
▶ देखें (14:56)
▶ देखें (14:56)
उत्तर: क्योंकि संसार का स्वरूप ही 'अनित्य' और 'असुख' है, जैसा कि गीता में भगवान ने कहा है।
उत्तर: सद्गुरुदेव समझाते हैं कि हम रेगिस्तान में पानी खोज रहे हैं। भगवान ने गीता में स्पष्ट कहा है 'अनित्यमसुखं लोकम्'। इस संसार में सुख है ही नहीं, न कभी था, न कभी होगा। हम जड़ वस्तुओं में सुख की आशा रखकर भ्रमित हो रहे हैं। शांति केवल भगवान के भजन और शरणागति में है।
प्रश्न: क्या मृत्यु के बाद यह भटकना समाप्त हो जाएगा?
▶ देखें (4:52)
▶ देखें (4:52)
उत्तर: नहीं, जब तक 'स्वरूप ज्ञान' नहीं होता, तब तक मृत्यु केवल वस्त्र बदलने जैसा है।
उत्तर: सद्गुरुदेव चेतावनी देते हैं कि मृत्यु अंतिम सत्य नहीं है, यह केवल एक पड़ाव है। जब तक जीव का यह भ्रम नहीं टूटता कि 'मैं शरीर हूँ', तब तक उसे कर्मानुसार बार-बार जन्म लेना और मरना पड़ेगा। केवल 'तत्व ज्ञान' और 'भगवत प्राप्ति' ही इस चक्र को रोक सकते हैं।
✅ करें (Do's)
- निरंतर चिंतन करें कि 'मैं शरीर नहीं, भगवान का नित्य दास हूँ' (चिद-वृत्ति का अभ्यास)।
- गुरु द्वारा प्रदत्त 'स्वरूप' (जैसे राधा रानी की सहचरी) का ही अभिमान करें।
- संसार को 'स्वप्नवत' और 'आगंतुक' समझकर व्यवहार करें।
- भगवान से अपने नित्य और अविच्छिन्न सम्बन्ध को याद रखें।
❌ न करें (Don'ts)
- शरीर और शरीर सम्बन्धी वस्तुओं को 'अपना' न मानें।
- सांसारिक भोगों में सुख की आशा न रखें (क्योंकि वहाँ सुख है ही नहीं)।
- केवल माला फेरने तक सीमित न रहें, मन की 'भूल' को भी सुधारें।
- जड़ वस्तुओं (धन, रूप) पर आनंद का आरोपण न करें।
शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)
इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
Upanishad Chandogya Upanishad 6.2.3
Upanishad Chandogya Upanishad 6.2.3
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव भगवान की एक से अनेक होने की इच्छा का वर्णन करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सृष्टि की रचना हुई।
एकोऽहं बहु स्याम् प्रजायेय
मैं अकेला हूँ, अनेक हो जाऊँ, ऐसा संकल्प किया।
Bhagavad Gita 15.7
Bhagavad Gita 15.7
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव स्वरूप विस्मृति के प्रभाव का वर्णन करते हुए बताते हैं कि जीव यह भूल जाता है कि वह भगवान का अविच्छिन्न अंश है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
जीव इस संसार में मेरा ही सनातन अंश है।
Bhagavad Gita 7.5
Bhagavad Gita 7.5
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव भगवान की परा प्रकृति (जीव) का उल्लेख करते हैं, जो इस जगत् को धारण करती है। यह श्लोक आंशिक रूप से बोला गया है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
यह (जड़) प्रकृति तो मेरी अपरा शक्ति है, इससे भिन्न मेरी एक परा (चेतन) शक्ति को जानो, जो जीव-रूप है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है।
Bhagavad Gita 13.21
Bhagavad Gita 13.21
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव प्रकृति और पुरुष के गुणों के मिश्रण का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कार्य और करण के कर्तृत्व में प्रकृति हेतु है, जबकि पुरुष सुख-दुख का भोक्ता है।
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
कार्य और करण (इंद्रियों) के कर्तृत्व में प्रकृति हेतु कही जाती है और पुरुष सुख-दुखों के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है।
Bhagavad Gita 13.22
Bhagavad Gita 13.22
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव बताते हैं कि पुरुष प्रकृति के गुणों का भोग करता है और गुणों में उसकी आसक्ति ही उसके विभिन्न योनियों में जन्म लेने का कारण है।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों को भोगता है। गुणों में आसक्ति ही इस जीव के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।
Bhagavad Gita 3.27
Bhagavad Gita 3.27
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव बताते हैं कि अहंकार के कारण जीव स्वयं को कर्मों का कर्ता मान लेता है, जबकि वास्तव में सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, मगर अहंकार से मोहित पुरुष मानता है कि मैं कर्ता हूँ।
Bhagavad Gita 18.17
Bhagavad Gita 18.17
पूरक संदर्भ (Siddhant)
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सद्गुरुदेव अहंकार के नाश पर जोर देते हुए यह श्लोक उद्धृत करते हैं, जिसका अर्थ है कि अहंकार रहित और अनासक्त बुद्धि वाला व्यक्ति कर्मों के बंधन में नहीं पड़ता।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
जिसके भीतर अहंकार का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि (कर्मों में) लिप्त नहीं होती, वह इस संसार के प्राणियों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही बँधता है।
Bhagavad Gita 9.9
Bhagavad Gita 9.9
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सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान सृष्टि की रचना करते हैं और जीवों के कर्मों को देखते हैं, परंतु वे स्वयं उनमें उदासीन भाव से स्थित रहते हैं और कर्मों से लिप्त नहीं होते।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥
हे धनंजय! वे कर्म मुझे नहीं बाँधते क्योंकि मैं उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन-भाव से स्थित रहता हूँ।
Bhagavad Gita 5.10
Bhagavad Gita 5.10
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सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जो व्यक्ति अपने कर्म भगवान को समर्पित करके अनासक्त भाव से करता है, वह पाप से वैसे ही अलिप्त रहता है जैसे कमल का पत्ता पानी से।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥
जो पुरुष सब कर्मों को ब्रह्मार्पण करके तथा आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता, जैसे कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता।
Bhagavad Gita 9.33
Bhagavad Gita 9.33
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि यह संसार अनित्य और सुख रहित है, इसलिए इसमें आकर भगवान का भजन करना चाहिए।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्। किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा॥
इस अनित्य और दुःखों से पूर्ण लोक को प्राप्त करके तू मेरा भजन कर। फिर पवित्र ब्राह्मण और भक्त राजर्षियों की तो बात ही क्या?
Bhagavad Gita 12.3-4
Bhagavad Gita 12.3-4
पूरक संदर्भ (Siddhant)
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सद्गुरुदेव ज्ञानमय उपासना के प्रकार का वर्णन करते हुए निर्गुण-निराकार ब्रह्म की उपासना का उल्लेख करते हैं और गीता के इन श्लोकों को उद्धृत करते हैं।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥ संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
जो इंद्रियों को वश में करके, सर्वत्र समबुद्धि होकर, अव्यक्त, अनिर्देश्य, सर्वव्यापी, अचिंत्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव अक्षर ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे सभी प्राणियों के हित में लगे हुए मुझको ही प्राप्त होते हैं।
Bhagavad Gita 12.2
Bhagavad Gita 12.2
पूरक संदर्भ (Siddhant)
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सद्गुरुदेव भक्ति उपासना पद्धति को उत्तम बताते हुए गीता के इस श्लोक का संदर्भ देते हैं, जिसमें भगवान कहते हैं कि भक्ति से युक्त होकर मेरा भजन करने वाले योगी श्रेष्ठ हैं।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
जो मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे रहते हैं, और श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मुझे परम योगी मानते हैं।
Radha Kripa Kataksha Stotram Verse 11
Radha Kripa Kataksha Stotram Verse 11
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव ऐश्वर्यमय प्रकाश का वर्णन करते हुए राधा रानी की महिमा बताते हैं, जिनकी वंदना अनंत कोटि विष्णु लोक करते हैं।
अनन्तकोटिविष्णुलोकनम्रपद्मजार्चितेहिमाद्रिजापुलोमजाविरञ्चिजावरप्रदे।अपारसिद्धिऋद्धिदिग्धसत्पदाङ्गुलीनखेकदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम्॥
करोड़ों विष्णुलोकों के निवासी जिनके चरणों में नतमस्तक हैं, तथा ब्रह्मा जिनकी अर्चना करते हैं, जो हिमालय की पुत्री (पार्वती), पुलोंमा की पुत्री (शची) और ब्रह्मा की पुत्री (सरस्वती) को वरदान देने वाली हैं; अपार सिद्धियों और ऋद्धियों से युक्त जिनके श्रीचरणों के नख हैं, हे देवी! आप कब मुझको अपनी कृपाकटाक्ष का पात्र बनायेंगी?
Bhagavad Gita 10.42
Bhagavad Gita 10.42
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव भगवान के ऐश्वर्यमय प्रकाश का वर्णन करते हुए गीता के इस श्लोक का उल्लेख करते हैं, जहाँ भगवान कहते हैं कि उन्होंने अपने एक अंश मात्र से ही संपूर्ण जगत् को धारण किया हुआ है।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
अथवा, हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? मैं इस संपूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
स्पष्टीकरण (Clarification)
यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।
जड़-अभिमान से चिद-अभिमान की ओर: स्वरूप की पुनःप्राप्ति, जीवात्मा के बंधन का मूल कारण 'जड़-अभिमान' (देहात्मबुद्धि) है, जो माया की आवरण और विक्षेप शक्तियों का परिणाम है। इस सत्संग में सद्गुरुदेव समझाते हैं कि कैसे साधक 'चिद-अभिमान' (मैं राधाजी की सहचरी हूँ) को जागृत करके और 'भूल' को सुधारकर माधुर्य भक्ति के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच सकता है।
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