[Study Guide : Dec 27, 2025] स्वरुप विस्मृति से असली आनंद की और | From Forgetfulness to divine bliss

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श्री भगवत चर्चा
27 December 2025

स्वरुप विस्मृति से असली आनंद की और।

स्वरुप विस्मृति से असली आनंद की और।

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" संसार से संबंध हमारा था नहीं, है नहीं, होगा नहीं, होता नहीं, हो नहीं सकता है। लेकिन फिर भी मिथ्या वस्तु स्वप्नवत, इसको हम सत्य मान करके, बस ये सत्य मानना और अपना मानना यही कारण है दुख का कारण। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

आनंद (39) भगवान (30) शरीर (25) कारण (22) राधारानी (21) पुत्र (21) स्वरूप (20) वस्तु (19) संसार (18) घर (18)

📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं

स्वरूप का विस्मरण: दुःख का मूल कारण
इस खंड में सद्गुरुदेव जीव के दुःखों के मूल कारण 'स्वरूप विस्मृति' की व्याख्या करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे भगवान का आनंदमय अंश होते हुए भी जीव स्वयं को जड़ शरीर मानकर नश्वर संसार में सुख खोजता है और भ्रमित होता है।
दुःख का मूल कारण: स्वरूप विस्मृति और मिथ्या मान्यता
दुःख का मूल कारण: स्वरूप विस्मृति और मिथ्या मान्यता
▶ देखें (01:04) ▶ Watch (01:04)
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव के समस्त दुःखों का एकमात्र कारण 'स्वरूप विस्मृति' है। हम यह भूल गए हैं कि हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं। संसार से हमारा कोई नित्य संबंध नहीं है, फिर भी हम इस स्वप्नवत जगत को सत्य और अपना मान बैठे हैं। सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान से हमारा अविच्छेद्य और नित्य संबंध होने पर भी हम दुखी हैं क्योंकि माया ने हमें हमारा वास्तविक स्वरूप भुला दिया है। हम भूल गए हैं कि हम सत्-चित्-आनंदमय आत्मा हैं और आनंद के लिए हमें किसी बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। इस विस्मृति के कारण हम इस मिथ्या संसार को सत्य मान लेते हैं और सांसारिक वस्तुओं तथा संबंधों को 'अपना' मानकर उनसे सुख की आशा करते हैं, जो अंततः दुःख का ही कारण बनती है। यह मान्यता और स्वीकृति ही हमारे दुःख का मूल कारण है।
🔗 यह शिक्षा जीव के अस्तित्व के मूल प्रश्न को संबोधित करती है कि आनंद का अंश होते हुए भी वह दुखी क्यों है।
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दृष्टांत: माँ की गोद में सोया बालक
दृष्टांत: माँ की गोद में सोकर जंगल में खो जाने का स्वप्न
▶ देखें (02:39) ▶ Watch (02:39)
सद्गुरुदेव दृष्टांत देते हैं कि जैसे कोई बच्चा माँ की गोद में सोकर स्वप्न में स्वयं को जंगल में खोया हुआ पाकर रोता है, वैसे ही जीव भगवान के साथ होते हुए भी माया के स्वप्न में स्वयं को दुखी और अलग मानता है। जागने पर जैसे बच्चे का भ्रम टूट जाता है, वैसे ही ज्ञान होने पर जीव का दुःख मिट जाता है। सद्गुरुदेव इस दृष्टांत से समझाते हैं कि जीव की स्थिति उस बालक की तरह है जो अपनी माँ की सुरक्षित गोद में सोया हुआ है, फिर भी स्वप्न में स्वयं को एक भयंकर जंगल में खोया हुआ पाकर 'माँ-माँ' कहकर रो रहा है। वास्तव में वह खोया नहीं है, वह तो माँ के पास ही है। इसी प्रकार, हम सदा भगवान के साथ ही हैं, उनसे कभी अलग नहीं हुए। यह जो दुःख और संसार का अनुभव है, यह माया का एक स्वप्न मात्र है। गुरु कृपा से जब यह अज्ञान का स्वप्न टूटता है, तब हमें बोध होता है कि हम तो सदा से ही भगवान की गोद में थे।
🔗 यह दृष्टांत संसार की मिथ्याता और जीव के भ्रम को उजागर करता है।
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जड़ में आनंद का अनुसंधान
जड़-धर्मी होकर जड़ विषयों में आनंद की व्यर्थ खोज
▶ देखें (04:22) ▶ Watch (04:22)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि स्वरूप विस्मृति के कारण जीव स्वयं को जड़ शरीर मान लेता है। यद्यपि उसका स्वरूप आनंदमय है, वह उस आनंद को जड़ वस्तुओं—शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध—में खोजने लगता है। चूँकि जड़ में स्थायी आनंद है ही नहीं, इसलिए वह कभी तृप्त नहीं होता और दुःख पाता है। सद्गुरुदेव के अनुसार, जीव का स्वरूप 'चेतन अमल सहज सुख रासी' है, अर्थात् वह चेतन, निर्मल (माया मल रहित) और स्वाभाविक रूप से आनंद का भंडार है। लेकिन स्वयं को पंचभौतिक जड़ शरीर मानने के कारण (जड़-धर्मी होने के कारण), वह अपने भीतर के आनंद को भूलकर बाहरी जड़ विषयों में आनंद खोजने लगता है। वह अपनी पाँच ज्ञानेंद्रियों के द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का भोग कर सुखी होना चाहता है। सद्गुरुदेव कहते हैं कि यह प्रयास वैसा ही व्यर्थ है जैसे रेत से तेल निकालना, क्योंकि जड़ में वास्तविक आनंद है ही नहीं। इसी व्यर्थ खोज में जीव अनादि काल से भटक रहा है और कभी तृप्त नहीं होता।
🔗 यह उपदेश इंद्रिय-सुख की निरर्थकता और आत्मा के वास्तविक आनंद-स्वरूप के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है।
माया का प्रबल बंधन: सेठ की कथा
इस खंड में एक मार्मिक कथा के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि माया का बंधन कितना शक्तिशाली है। जीव सांसारिक मोह में इतना अंधा हो जाता है कि वह भगवद्धाम जाने का अवसर ठुकराकर निकृष्ट योनियों में भी जन्म लेना स्वीकार कर लेता है, पर अपना मोह नहीं छोड़ता।
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माया का आश्चर्य: जीव आना ही नहीं चाहता
माया का प्रबल आकर्षण: भगवद्धाम के बुलावे पर भी जीव का इनकार
▶ देखें (08:53) ▶ Watch (08:53)
सद्गुरुदेव भगवान के शब्दों को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि भगवान तो जीव को अपने धाम बुलाना चाहते हैं, पर जीव ही संसार छोड़कर आना नहीं चाहता। शास्त्र, गुरु और संत सब कहते हैं कि संसार में सुख नहीं है, फिर भी जीव उसी में सुख खोजता रहता है और कभी तृप्त नहीं होता। सद्गुरुदेव श्री नारद जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान का पक्ष रखते हैं। भगवान कहते हैं, 'मैं तो चाहता हूँ कि सब मेरे पास आ जाएँ, लेकिन वे आना ही नहीं चाहते।' भगवान शास्त्र ('अनित्यमसुखं लोकम्'), गुरु और संतों के माध्यम से बार-बार बताते हैं कि इस संसार में आनंद है ही नहीं, यह अनित्य और असुखमय है। जीव स्वयं भी अनुभव करता है कि उसे यहाँ स्थायी सुख नहीं मिलता, फिर भी वह इसी में आनंद की खोज से निवृत्त नहीं होता। सद्गुरुदेव कहते हैं कि यही माया का सबसे बड़ा प्रभाव है कि जीव अपने वास्तविक हित को पहचान नहीं पाता और भगवान के अतुलनीय प्रेम धाम को छोड़कर नश्वर संसार में फँसा रहता है।
🔗 यह कार्ड माया के प्रबल प्रभाव को दर्शाता है जो जीव को भगवान से विमुख रखता है।
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कथा: श्री नारद और मोह में डूबा सेठ
कथा: श्री नारद और सांसारिक मोह में फँसा सेठ
▶ देखें (15:07) ▶ Watch (15:07)
सद्गुरुदेव श्री नारद जी की कथा सुनाते हैं, जिसमें वे एक धनी सेठ को भगवद्धाम ले जाने का प्रस्ताव देते हैं। सेठ अपनी संपत्ति और परिवार के मोह में फँसकर प्रस्ताव टाल देता है। मृत्यु के बाद वह अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए कुत्ता, फिर सर्प और अंत में विष्ठा का कीड़ा बनकर जन्म लेता है, पर हर योनि में नारद जी के बुलाने पर भी अपना मोह नहीं छोड़ पाता। यह कथा यह सिद्ध करने के लिए है कि जीव स्वयं ही संसार नहीं छोड़ना चाहता। भगवान श्री नारद जी को एक धनी सेठ के पास भेजते हैं, जिसकी उम्र सत्तर पार है और अथाह संपत्ति व तीन पत्नियाँ हैं। नारद जी उसे बिना साधना के गोलोक धाम ले जाने का प्रस्ताव देते हैं, पर सेठ अपनी संपत्ति और परिवार की चिंता का बहाना बनाकर टाल देता है। मरने के बाद, अपनी संपत्ति की रक्षा की भावना के कारण वह पहले कुत्ता बनता है। नारद जी उसे कुत्ता योनि से भी गोलोक ले जाने का प्रस्ताव देते हैं, पर वह फिर भी संपत्ति के मोह में इनकार कर देता है। बाद में वह गुप्त खजाने की रक्षा के लिए सर्प बनता है और अंत में अपने पोता-पोती की विष्ठा में कीड़ा बनकर जन्म लेता है, फिर भी उसका मोह नहीं छूटता। यह जीव की दुर्गति और माया के प्रबल बंधन का मार्मिक उदाहरण है।
🔗 यह कथा जीव की आसक्ति की गहराई और माया के प्रबल प्रभाव को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चित्रित करती है।
गुरु कृपा: स्वरूप का पुनः जागरण
माया के इस दुस्तर बंधन से निकलने का एकमात्र उपाय गुरु कृपा है। इस खंड में सद्गुरुदेव समझाते हैं कि कैसे गुरु जीव के भीतर उसके वास्तविक, दिव्य स्वरूप (श्री राधारानी की सहचरी) का चिंतन जगाते हैं और उसकी जड़ वृत्ति को चिन्मय वृत्ति में परिवर्तित करते हैं।
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गुरु कृपा: स्वरूप का जागरण
गुरु कृपा द्वारा अहंकार-वृत्ति का परिवर्तन और स्वरूप-बोध
▶ देखें (25:09) ▶ Watch (25:09)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि इस प्रबल माया से मुक्ति केवल सद्गुरु की कृपा से ही संभव है। गुरु शिष्य की चेतन सत्ता को जगाकर उसके भीतर के अहंकार की वृत्ति को बदल देते हैं। वे उसे बोध कराते हैं कि 'तुम यह शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो, तुम भगवान के हो, तुम्हारे नित्य संबंध श्री राधारानी से हैं, तुम उनकी सहचरी हो।' सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव का बंधन उसके अहंकार की वृत्ति है, जो उसे 'मैं शरीर हूँ' और 'यह संसार मेरा है' का भ्रम देती है। सद्गुरु कृपा करके इसी वृत्ति को बदल देते हैं। वे शिष्य को चेतन कराते हैं कि 'तुम यह जड़ शरीर नहीं हो, न ही शरीर संबंधी वस्तुएँ तुम्हारी हैं। तुम चेतन हो, आत्मा हो, भगवान के हो, और तुम्हारा नित्य संबंध श्री राधारानी से है। तुम उनकी चिन्मय, दिव्य, आनंदमय सहचरी हो, मायातीत, गुणातीत, इंद्रियातीत, लोकातीत हो।' गुरुदेव राधारानी की उपासना पद्धति देते हैं और उनके चरणाश्रय करने को ही परम उपासना बताते हैं। यह स्वरूप-बोध ही मुक्ति का द्वार है।
🔗 यह उपदेश भक्ति मार्ग में गुरु के महत्व और उनकी transformative शक्ति को रेखांकित करता है।
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साधने भावीबे जाहा, सिद्ध देहे पाबे ताहा: साधना का रहस्य
साधने भावीबे जाहा, सिद्ध देहे पाबे ताहा: साधना का रहस्य और भावात्मक भजन का महत्व
▶ देखें (25:57) ▶ Watch (25:57)
सद्गुरुदेव श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का पद उद्धृत करते हुए समझाते हैं कि साधक को साधना काल में अपने सिद्ध देह (दिव्य स्वरूप) का चिंतन करना चाहिए। यही चिंतन धीरे-धीरे परिपक्व होकर प्रेम-भक्ति में परिणत होता है। यह जड़-अभिमान को मिटाकर चिद-अभिमान को स्थापित करने की प्रक्रिया है। सद्गुरुदेव बल देते हैं कि बाहरी क्रियात्मक भजन से अधिक महत्वपूर्ण भावात्मक भजन है, जिसमें साधक अपने गुरु-प्रदत्त दिव्य स्वरूप का चिंतन करता है। वे कहते हैं कि 'साधन के समय जिसका चिंतन करोगे, सिद्ध अवस्था में वही प्राप्त होगा।' पहले साधक का चिंतन शरीर और सांसारिक विषयों पर केंद्रित रहता है, जिससे धन कमाने और इंद्रिय तृप्ति की चिंताएँ जन्म लेती हैं। गुरु कृपा से वह अपने दिव्य स्वरूप, जो श्री राधारानी की सहचरी का है, उसका चिंतन करने लगता है। यह वृत्ति का परिवर्तन ही साधना का सार है। नाम-जप, ध्यान, धारणा आदि क्रियात्मक भजन कम भी हों तो चलेगा, पर यह भावना का परिवर्तन अत्यंत आवश्यक है, जो अंततः प्रेम-भक्ति को प्रकट करता है।
🔗 यह शिक्षा गौड़ीय वैष्णव उपासना की विशिष्ट 'रागाणुगा भक्ति' पद्धति के मूल सिद्धांत को स्पष्ट करती है।
अनासक्त जीवन की कला: कर्ता नहीं, सेवक बनें
स्वरूप-ज्ञान प्राप्त करने के बाद संसार में कैसे रहा जाए? इस अंतिम खंड में सद्गुरुदेव व्यावहारिक मार्गदर्शन देते हैं। वे समझाते हैं कि घर-परिवार छोड़े बिना, केवल अपनी भावना को बदलकर, स्वयं को कर्ता के स्थान पर भगवान का सेवक मानकर सभी कर्तव्य निभाने से ही जीव बंधन-मुक्त हो सकता है।
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व्यावहारिक वैराग्य: क्रिया में नहीं, भावना में परिवर्तन
व्यावहारिक वैराग्य: क्रिया में नहीं, भावना में परिवर्तन
▶ देखें (31:01) ▶ Watch (31:01)
सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि भक्ति के लिए घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। संसार में रहते हुए अपने सभी कर्तव्य निभाओ, परन्तु मन में यह दृढ़ता रखो कि 'यह शरीर और इसके संबंधी मेरे नहीं हैं।' क्रियात्मक रूप से नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से संसार से अलग रहो। सद्गुरुदेव एक बहुत ही व्यावहारिक मार्ग बताते हैं। वे कहते हैं कि तुम्हें घर, परिवार या काम-धंधा छोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। जैसे रह रहे हो, वैसे ही रहो। स्त्री, पुत्र, कुटुंब, परिवार के साथ वैसे ही बर्ताव करो, जैसे करते हो। बस अपनी भावना को बदल दो। भीतर, अपने अंतर जगत में, यह निश्चय कर लो कि 'मैं गृहस्थी नहीं हूँ, और यह घर-परिवार मेरा नहीं है। मैं तो श्री राधारानी का हूँ।' बाहरी जगत में सभी कर्तव्य निभाते रहो, पर हृदय के द्वार पर संसार का प्रवेश मत होने दो। हृदय में केवल युगल किशोर को स्थान दो। यह आंतरिक अनासक्ति ही वास्तविक वैराग्य है।
🔗 यह गीता के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' के सिद्धांत का व्यावहारिक भक्ति-अनुकूल निरूपण है।
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दृष्टांत: संसार में एक नौकर की भाँति रहो
दृष्टांत: कर्ता नहीं, नौकर बनो
▶ देखें (33:13) ▶ Watch (33:13)
सद्गुरुदेव उपदेश देते हैं कि संसार में मालिक या कर्ता बनकर मत रहो, क्योंकि कर्तापन ही बंधन का कारण है। स्वयं को एक नौकर समझो, जैसे कोई व्यक्ति परदेश में किसी सेठ के घर नौकरी करता है। वह सब काम करता है, पर जानता है कि यह घर या संपत्ति उसकी नहीं है, उसका असली घर कहीं और है। बंधन का सबसे बड़ा कारण है 'कर्तृत्व-अभिमान' — यह मानना कि 'मैं कर रहा हूँ'। सद्गुरुदेव इसका समाधान बताते हुए कहते हैं कि संसार को एक परदेश मानो और स्वयं को भगवान का भेजा हुआ एक नौकर। जैसे कोई व्यक्ति दूसरे शहर में किसी धनी सेठ के यहाँ नौकरी करता है, वह सेठ के घर की पूरी देखभाल करता है, सारे काम करता है, पर मन में जानता है कि यह घर मेरा नहीं, मेरा असली घर तो गाँव में है। इसी प्रकार, तुम संसार के सारे कर्तव्य निभाओ, पुत्र-कन्या का पालन-पोषण करो, विवाह करो, सब करो, पर मन में जानो कि तुम मालिक नहीं, केवल एक नौकर हो। प्रभु को कर्ता बना दो और स्वयं को उनका निमित्त मात्र सेवक। इससे तुम कर्म के बंधन से बच जाओगे।
🔗 यह दृष्टांत अनासक्त कर्मयोग के सिद्धांत को सरल और व्यावहारिक रूप से समझाता है।
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चरित्र: श्री विजय कृष्ण गोस्वामी का अनासक्त कर्म
चरित्र: श्री विजय कृष्ण गोस्वामी और पुत्री की मृत्यु में अनासक्ति
▶ देखें (35:02) ▶ Watch (35:02)
सद्गुरुदेव श्री विजय कृष्ण गोस्वामी का चरित्र सुनाते हैं, जिनकी पुत्री मरणासन्न थी। वे अपनी दिव्य दृष्टि से जानते थे कि वह दो दिन में शरीर छोड़ देगी और शिष्यों को बता भी चुके थे। फिर भी, वे स्वयं एक साधारण पिता की तरह रात-दिन उसकी सेवा में लगे रहे, वैद्य बुलाते रहे और पंखा करते रहे। यह अनासक्त कर्म का उत्कृष्ट उदाहरण है। सद्गुरुदेव अनासक्त कर्म का एक जीवंत उदाहरण देते हैं। श्री विजय कृष्ण गोस्वामी जी, जो एक उच्च कोटि के संत थे, उनकी किशोरी पुत्री कुतुबुरी मरणासन्न थी। वे अपनी दिव्य दृष्टि से जानते थे और शिष्यों को बता भी चुके थे कि उनकी पुत्री परसों शरीर छोड़ देगी, क्योंकि उसका प्रारब्ध पूर्ण हो चुका था। इसके बावजूद, वे स्वयं एक साधारण पिता की तरह उसकी सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ रहे थे—वैद्य बुलाना, रात भर जागकर पंखा करना आदि। शिष्य यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि गुरुदेव जानते हुए भी इतने चिंतित क्यों हैं। सद्गुरुदेव समझाते हैं कि यही अनासक्ति है: प्रारब्ध को स्वीकार करना, पर अपने कर्तव्यों को पूरी लगन से निभाना, बिना फल की चिंता किए। यह ज्ञान और कर्म के समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण है।
🔗 यह कथा ज्ञान और कर्म के समन्वय का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ व्यक्ति परिणाम से अनासक्त रहते हुए भी अपने कर्तव्य का पूर्ण पालन करता है।

✨ विशेष उल्लेख

📋 पंचमहाभूत और उनके गुण ▶ 05:19 ▶ देखें (05:19)
  • आकाश: शब्द (१ गुण)
  • वायु: शब्द, स्पर्श (२ गुण)
  • अग्नि: शब्द, स्पर्श, रूप (३ गुण)
  • जल: शब्द, स्पर्श, रूप, रस (४ गुण)
  • पृथ्वी: शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध (५ गुण)
✨ भगवान की पुकार ▶ 08:04 ▶ देखें (08:04)
"सद्गुरुदेव कहते हैं कि भगवान शास्त्र, गुरु, महात्मा और स्वयं आत्मा के रूप में निरंतर जीव को पुकार रहे हैं कि संसार में सुख नहीं है, मेरे पास आ जाओ। फिर भी जीव माया के प्रभाव में उनकी बात नहीं सुनता।"
💔 सांसारिक प्रेम (स्वार्थ आधारित)
सद्गुरुदेव के अनुसार, सांसारिक प्रेम स्वार्थ पर आधारित और दिखावा मात्र है। जब तक आप किसी के लिए उपयोगी हैं, तब तक प्रेम मिलता है। उपयोगिता समाप्त होते ही प्रेम भी समाप्त हो जाता है और आप बोझ बन जाते हैं। इसमें सब कुछ देना पड़ता है और मिलता कुछ नहीं।
बनाम
💖 भगवत्प्रेम (निःस्वार्थ)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान का प्रेम निःस्वार्थ है। उन्हें हमसे कुछ नहीं चाहिए, केवल हमारा मन चाहिए। भगवान से प्रेम करने में कुछ भी खोता नहीं, बल्कि सब कुछ मिलता है। वे हमारे सारे अभावों को पूर्ण कर हमें अनंत आनंद प्रदान करते हैं।
⛓️ कर्ता भाव (बंधन का कारण)
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जब जीव स्वयं को कर्मों का 'कर्ता' मानता है ('मैं कर रहा हूँ'), तो वह कर्म के अच्छे-बुरे फलों से बंध जाता है और सुख-दुःख भोगता है। यह कर्तृत्व-अभिमान ही जीव को संसार चक्र में फँसाता है।
बनाम
🕊️ सेवक भाव (मुक्ति का साधन)
सद्गुरुदेव उपदेश देते हैं कि स्वयं को भगवान का 'सेवक' या 'नौकर' मानने से कर्तृत्व-अभिमान नष्ट हो जाता है। जीव यह मानकर कर्म करता है कि 'प्रभु करा रहे हैं, मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ।' इससे वह कर्मफल से मुक्त हो जाता है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: भगवान का अंश होते हुए भी जीव दुखी होकर संसार चक्र में क्यों घूम रहा है? ▶ देखें (01:04) ▶ देखें (01:04)
उत्तर: सद्गुरुदेव के अनुसार, इसका एकमात्र कारण 'स्वरूप विस्मृति' है। जीव यह भूल गया है कि वह भगवान का आनंदमय अंश है और स्वयं को नश्वर शरीर मानकर संसार में सुख खोज रहा है, जिससे उसे दुःख मिलता है। उत्तर: सद्गुरुदेव विस्तार से बताते हैं कि जीव का भगवान से नित्य, अखंड संबंध है। लेकिन माया के प्रभाव से वह अपने वास्तविक आनंदमय स्वरूप को भूल गया है। इस विस्मृति के कारण वह स्वयं को जड़ शरीर मान लेता है और अपनी आनंद की खोज को जड़ सांसारिक विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में करने लगता है। चूँकि इन विषयों में स्थायी आनंद नहीं है, वह बार-बार प्रयास करके भी अतृप्त रहता है और दुःख के चक्र में घूमता रहता है। यह मिथ्या मान्यता और स्वीकृति ही उसके दुःख का मूल कारण है।
प्रश्न: भगवान सब जीवों को मुक्त करके अपने धाम में क्यों नहीं ले आते? ▶ देखें (07:36) ▶ देखें (07:36)
उत्तर: सद्गुरुदेव भगवान के शब्दों में उत्तर देते हैं कि, 'मैं तो चाहता हूँ कि वे मेरे पास आ जाएँ, लेकिन वे स्वयं ही आना नहीं चाहते।' जीव सांसारिक मोह में इतना आसक्त है कि वह भगवद्धाम के आनंद को ठुकराकर भी संसार में रहना पसंद करता है। उत्तर: सद्गुरुदेव श्री नारद और भगवान के संवाद का उल्लेख करते हैं। भगवान कहते हैं कि वे गुरु, शास्त्र और संतों के माध्यम से निरंतर जीव को बुला रहे हैं कि संसार दुःख रूप और अनित्य है। परन्तु जीव का मोह इतना प्रबल है कि वह इन चेतावनियों को अनसुना कर देता है। सद्गुरुदेव सेठ की कथा से इसे सिद्ध करते हैं, जहाँ सेठ को भगवद्धाम जाने का सीधा अवसर मिलने पर भी वह अपनी संपत्ति के मोह में उसे ठुकरा देता है और निकृष्ट योनियों को प्राप्त होता है। यह दर्शाता है कि जीव स्वयं ही अपने मोह के कारण भगवान के धाम नहीं आना चाहता।
✅ करें (Do's)
  • मन से यह जानें कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
  • संसार में अपने सभी कर्तव्य एक नौकर की भाँति, अनासक्त होकर करें।
  • अपने मन को भगवान को समर्पित करें और उन्हें अपना सबसे प्रिय मानें।
  • गुरु द्वारा दिए गए अपने दिव्य स्वरूप (सहचरी भाव) का चिंतन करें।
  • जो कुछ भी प्रारब्धवश मिले, उसी में संतुष्ट रहें।
❌ न करें (Don'ts)
  • स्वयं को गृहस्थी मानकर सांसारिक बंधनों में न फँसें।
  • सांसारिक वस्तुओं और संबंधों को अपना न मानें।
  • कर्मों का कर्ता स्वयं को न मानें, कर्तृत्व-अभिमान त्याग दें।
  • जड़ विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में आनंद खोजने का व्यर्थ प्रयास न करें।
  • घर-परिवार छोड़कर भागने की आवश्यकता नहीं, मन से वैराग्य धारण करें।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
मंगलाचरण मंगलाचरण, Verse 1 मंगलाचरण मंगलाचरण, Verse 1 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सत्संग के आरंभ में सद्गुरुदेव द्वारा मंगलाचरण के रूप में यह वंदना की गई है।
गौरवे गौर चंद्राय राधिका तदालये। कृष्णाय कृष्ण भक्ताय तद भक्ताय नमो नमः॥
सद्गुरुदेव श्री चैतन्य महाप्रभु (गौर चंद्र) को प्रणाम करते हैं, जो श्रीमती राधारानी के भाव और धाम से युक्त हैं। वे श्री कृष्ण, कृष्ण के भक्तों और उन भक्तों के भी भक्तों को बारंबार प्रणाम करते हैं।
श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, 117.1 उत्तरकाण्ड, 116.1 श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, 117.1 उत्तरकाण्ड, 116.1 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
जीव के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करने के लिए सद्गुरुदेव ने गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की इस चौपाई का उल्लेख किया है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव ईश्वर का ही अविनाशी अंश है। उसका स्वभाव चेतन, निर्मल (माया के मल से रहित) और स्वाभाविक रूप से सुख की राशि अर्थात् आनंदस्वरूप है।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.33 श्रीमद्भगवद्गीता 9.33 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह संसार सुख रहित और क्षणभंगुर है, यह बताने के लिए सद्गुरुदेव ने भगवान श्री कृष्ण के इस वचन को उद्धृत किया है।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान स्वयं कहते हैं कि इस अनित्य और सुख रहित मनुष्य लोक को प्राप्त होकर मेरा ही भजन करो। जब पुण्यवान ब्राह्मणों, भक्तों और राजर्षियों के लिए ऐसा है, तो दूसरों के लिए क्या कहना!
श्रीमद्भगवद्गीता 18.65 श्रीमद्भगवद्गीता 18.65 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान को हमसे क्या चाहिए, यह स्पष्ट करने के लिए सद्गुरुदेव ने गीता के इस श्लोक का उल्लेख किया है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि भगवान कहते हैं, 'मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझे प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।'
श्रीमद्भगवद्गीता 8.6 श्रीमद्भगवद्गीता 8.6 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव ने यह श्लोक यह समझाने के लिए उद्धृत किया कि सेठ अपनी संपत्ति की चिंता करते हुए मरने के कारण कुत्ता क्यों बना।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥
सद्गुरुदेव के अनुसार, भगवान कहते हैं कि हे कुंतीपुत्र! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है।
प्रेम-भक्ति-चंद्रिका, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर प्रेम-भक्ति-चंद्रिका, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
रागाणुगा भक्ति में स्वरूप चिंतन के महत्व को समझाने के लिए सद्गुरुदेव ने श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के इस प्रसिद्ध पद का गायन किया।
साधने भावीबे जाहा, सिद्ध-देहे पाबे ताहा। पक्क-अपक्क मात्र से विचार॥ अपक्के साधने रीति, पाकिले से प्रेम-भक्ति। भक्तिर लक्षण-तत्त्व-सार॥
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि साधक को साधना-अवस्था में जिस दिव्य स्वरूप (सिद्ध-देह) का चिंतन करना चाहिए, वही स्वरूप उसे सिद्धावस्था में प्राप्त होता है। अंतर केवल अवस्था के कच्चे (अपक्व) या पक्के (पक्व) होने का है। अपक्व अवस्था में यह साधना की रीति कहलाती है और जब यही भावना परिपक्व हो जाती है, तो उसे प्रेम-भक्ति कहते हैं। यही भक्ति के लक्षणों का सार तत्व है।
श्रीमद्भगवद्गीता 4.22 श्रीमद्भगवद्गीता 4.22 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव ने अनासक्त होकर कर्म करने वाले व्यक्ति के लक्षणों को बताने के लिए इस श्लोक का उल्लेख किया है।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जो बिना किसी प्रयास के अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो जाए, उसी में संतुष्ट रहता है; जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से परे है; और जिसमें ईर्ष्या का भाव नहीं है; ऐसा व्यक्ति सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्म करके भी उससे नहीं बंधता।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7 श्रीमद्भगवद्गीता 15.7 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव बताते हैं कि जीव भगवान का ही अभिन्न, अविच्छेद और अखंड अंश है, फिर भी वह संसार चक्र में दुख भोग रहा है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
इस संसार में जीव मेरा ही सनातन अंश है। वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इंद्रियों को आकर्षित करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 5.22 श्रीमद्भगवद्गीता 5.22 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव बताते हैं कि जीव अपने आनंदमय स्वरूप को भूलकर जड़ वस्तुओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में आनंद खोजता है, जो वास्तव में दुःख का कारण हैं।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥
हे कुंतीपुत्र! जो भोग इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं, वे निश्चय ही दुःख के कारण हैं, क्योंकि वे आदि और अंत वाले हैं। बुद्धिमान व्यक्ति उनमें रमण नहीं करता।
श्रीमद्भगवद्गीता 2.20 श्रीमद्भगवद्गीता 2.20 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव स्वयं को जड़ शरीर मान लेता है, जबकि वह वास्तव में चेतन और आनंदमय आत्मा है, जो शरीर से भिन्न है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
आत्मा का न तो कभी जन्म होता है और न ही मृत्यु; न यह होकर फिर न होने वाली है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरती।
श्रीमद्भगवद्गीता 10.42 श्रीमद्भगवद्गीता 10.42 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
नारद भगवान से पूछते हैं कि जीव इतना दुखी क्यों है, जबकि भगवान अनंत ब्रह्मांडों को अपने एक अंश से धारण किए हुए हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
अथवा अर्जुन, इस सबको जानने से क्या होगा? मैं अपने एक अंश से इस समग्र जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
श्रीमद्भगवद्गीता 7.14 श्रीमद्भगवद्गीता 7.14 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव इस बात पर जोर देते हैं कि जीव को संसार में सुख न मिलने पर भी वह उससे निवृत्त नहीं होता, यही माया की प्रबल शक्ति है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
यह मेरी दैवी (अलौकिक) माया, जो तीन गुणों से बनी है, पार करना कठिन है। जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता 4.34 श्रीमद्भगवद्गीता 4.34 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव गुरु की कृपा के महत्व को समझाते हैं, जो शिष्य को उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराकर माया के बंधन से मुक्त कराते हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
तुम गुरु के पास जाकर उसे समझो। उन्हें प्रणाम करके, प्रश्न पूछकर और सेवा करके। वे ज्ञानी, तत्वदर्शी तुम्हें ज्ञान का उपदेश देंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता 3.27 श्रीमद्भगवद्गीता 3.27 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव बताते हैं कि जीव की जड़ वृत्ति और अहंकार उसे शरीर संबंधी विषयों और सुखों के चिंतन में लगाए रखता है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, मगर अहंकार से मोहित पुरुष मानता है कि 'मैं कर्ता हूँ'।
श्रीमद्भगवद्गीता 3.19 श्रीमद्भगवद्गीता 3.19 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव उपदेश देते हैं कि संसार में रहते हुए सभी कर्तव्य निभाओ, परन्तु मन से यह जानो कि ये संबंध और वस्तुएँ तुम्हारी नहीं हैं।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
इसलिए अनासक्त होकर निरंतर कर्तव्य कर्म करो, क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने वाला पुरुष परम पद को प्राप्त करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 11.33 श्रीमद्भगवद्गीता 11.33 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव सलाह देते हैं कि संसार में स्वयं को कर्ता न मानकर केवल एक नौकर या निमित्त समझो, ताकि बंधन से बचा जा सके।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥
इसलिए तुम उठो और यश प्राप्त करो, शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं; हे सव्यसाची (अर्जुन), तुम तो केवल निमित्त मात्र बनो।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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