श्री भगवत चर्चा
25 December 2025
अहंकार की वृत्तियों को समझकर प्रेम-भक्ति द्वारा भगवत्-सान्निध्य प्राप्त करना।
Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
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भगवान के एक वीकनेस है, वो है प्रेम वशता। प्रेम में भगवान वशीभूत हो जाते हैं। वो प्रेम रूप रस्सी को ढूंढते हैं, वो रस्सी चाहिए हमको, वो प्रेम चाहिए।
"
🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang
भगवान (65)
शरीर (46)
प्रेम (36)
राधा (32)
संबंध (31)
रानी (31)
नाम (26)
धर्म (25)
संसार (24)
भक्त (20)
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जीव का भ्रम और बंधन का कारण
सबसे पहले यह समझना कि हम यहाँ क्यों हैं और हम दुखी क्यों हैं। सदगुरुदेव जीव के मूल स्वरूप की विस्मृति और अहंकार को बंधन का मूल कारण बताते हैं।
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स्वरूप विस्मृति: दुखों का मूल कारण
स्वरूप विस्मृति ही संसार चक्र में आवर्तन का मूल कारण है
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सदगुरुदेव बताते हैं कि जीव भगवान का नित्य अंश, चेतन, आनंदमय और दिव्य है। परंतु अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर वह स्वयं को शरीर मान लेता है और अनादि काल से जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ है। यह स्वरूप विस्मृति ही उसके समस्त दुखों और संसार चक्र में आवर्तन का मूल कारण है।
सदगुरुदेव समझाते हैं कि जीव का वास्तविक स्वरूप है - 'मैं भगवान का अभिन्न अंश हूँ, मैं चेतन, आनंदमय, दिव्य, नित्य मुक्त, सत्य सनातन, मायातीत, गुणातीत, इंद्रियातीत और लोकातीत हूँ। मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं, और भगवान से हमारा नित्य अभिन्न संबंध है।' यह संबंध किसी भी अवस्था में पल भर के लिए भी टूट नहीं सकता। इस सत्य को भूलकर जब जीव एक पंचभौतिक शरीर को ही 'मैं' मान लेता है, तब वह स्वप्नवत इस संसार के सुख-दुख को भोगता है। यही स्वरूप-विस्मृति उसके समस्त दुखों और जन्म-मृत्यु के चक्र में बार-बार फँसने का मूल कारण है।
🔗 यह शिक्षा जीव के मूल प्रश्न 'मैं कौन हूँ?' का उत्तर देती है और बंधन के आध्यात्मिक कारण को स्पष्ट करती है।
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दृष्टांत: संसार एक स्वप्न की भांति
दृष्टांत: जागृत अवस्था का स्वप्न और मिथ्या भोग
▶ देखें (2:18)
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सदगुरुदेव संसार के अनुभव की तुलना स्वप्न से करते हैं। जैसे स्वप्न में व्यक्ति एक काल्पनिक शरीर और संसार को सत्य मानकर सुख-दुख भोगता है, जबकि उसका वास्तविक शरीर सोया रहता है। उसी प्रकार, हम जागृत अवस्था में भी इस शरीर और संसार को सत्य मानकर मिथ्या सुख-दुख भोग रहे हैं। यह मिथ्या भोग तब तक चलता है जब तक निद्रा भंग नहीं होती।
सदगुरुदेव एक गहन दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि जैसे स्वप्न में न तो वास्तविक शरीर होता है और न ही वास्तविक संसार, फिर भी मन एक काल्पनिक शरीर की कल्पना कर उसे 'मैं' मान लेता है और मिथ्या संसार में सुख-दुख का अनुभव करता है। यह मिथ्या भोग तब तक चलता है जब तक निद्रा भंग न हो जाए। ठीक इसी प्रकार, यह जागृत अवस्था भी एक लंबा स्वप्न है जहाँ हमने इस शरीर को 'मैं' मान लिया है और इससे संबंधित हर वस्तु को 'मेरा' मानकर मिथ्या विकारों को भोग रहे हैं। यह मिथ्या आरोप-प्रत्यारोप तब तक भोगना पड़ेगा जब तक भगवत्-सान्निध्य प्राप्त नहीं होता और दिव्य सत्य का अनुभव नहीं होता।
🔗 यह दृष्टांत संसार की अनित्यता और हमारे द्वारा अनुभव किए जा रहे सुख-दुख की मिथ्या प्रकृति को उजागर करता है।
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जड़-वृत्ति (जड़-अभिमान): बंधन का कारण
जड़-अभिमान: 'मैं शरीर हूँ' का घातक भ्रम
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सदगुरुदेव बताते हैं कि अहंकार की एक वृत्ति 'जड़-वृत्ति' या 'जड़-अभिमान' है, जो हमें यह मानने पर विवश करती है कि 'यह शरीर मैं हूँ' और 'शरीर संबंधी वस्तु मेरा है'। यह मिथ्या अभिमान ही कर्तापन का भाव पैदा करता है, जिससे जीव कर्म-फल के बंधन में पड़कर संसार चक्र में घूमता रहता है। जब तक यह जड़-अभिमान रहेगा, तब तक मुक्ति असंभव है।
सदगुरुदेव अहंकार के उस स्वरूप का वर्णन करते हैं जो हमारे बंधन का मूल है, जिसे वे 'जड़-वृत्ति' या 'जड़-अभिमान' कहते हैं। यह वृत्ति जीव को उसके श्री चैतन्य स्वरूप से आवरित करके इस पंचभौतिक शरीर में आत्म-बुद्धि करा देती है। इसी के कारण जीव स्वयं को कर्ता मान बैठता है ('कर्ता इति मन्यते') और प्रकृति के गुणों द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए विवश हो जाता है। सदगुरुदेव चेतावनी देते हैं कि जब तक यह जड़-वृत्ति बनी रहेगी, तब तक जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र में बार-बार घूमना ही पड़ेगा। यह मिथ्या मान्यता ही संसार चक्र में आवर्तन का मूल कारण है।
🔗 यह शिक्षा गीता के कर्मयोग सिद्धांत से जुड़ती है, जहाँ अहंकार को ही कर्तापन के भ्रम का कारण बताया गया है।
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आगंतुक संसार और नित्य संबंध का विवेक
आगंतुक संसार और नित्य संबंध का विवेक: भ्रम से मुक्ति का मार्ग
▶ देखें (9:14)
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सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि संसार और सांसारिक संबंध 'आगंतुक' हैं, अर्थात् वे पहले नहीं थे और बाद में भी नहीं रहेंगे। शरीर के साथ ही ये संबंध बनते हैं और शरीर समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत, भगवान से हमारा संबंध नित्य, सत्य और सनातन है। इस आगंतुक संसार और नित्य संबंध के विवेक को जगाना ही भजन की पहली सीढ़ी है।
सदगुरुदेव हमें विवेक करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि संसार से हमारा कोई नित्य संबंध न था, न है और न कभी हो सकता है। यह शरीर, परिवार, धन-संपत्ति - यह सब कुछ 'आगंतुक' है, जो कुछ समय के लिए दृश्यमान होता है और फिर लुप्त हो जाता है। शरीर त्यागने के बाद हम इस परिवेश में कभी वापस नहीं आते, न ही हमारे प्रियजन हमारे साथ जाते हैं। इसके विपरीत, भगवान से हमारा संबंध नित्य, सत्य और सनातन है। यह संबंध बोध जगाना कि 'मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं' अत्यंत आवश्यक है। यह बोध ही हमें संसार के मिथ्या आकर्षण से मुक्त कर अपने वास्तविक लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है।
🔗 यह वैराग्य की भावना को पुष्ट करता है और साधक को नित्य और अनित्य वस्तु के बीच भेद करने में सहायता करता है।
स्वरूप बोध और गुरु कृपा से जागरण
इस खंड में सदगुरुदेव बताते हैं कि गुरु कृपा से ही जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान पाता है और संसार चक्र से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। संतों का संग और श्रद्धा इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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संतों का महत्व और अनन्य श्रद्धा
संतों का सान्निध्य और अनन्य श्रद्धा ही कृपा का द्वार है
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सदगुरुदेव ब्रज में निवास कर रहे दिव्य महात्माओं का उल्लेख करते हुए संतों के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि हम राधा रानी को नहीं जानते, परंतु संत के हृदय में राधा रानी विराजमान रहती हैं। संत का सान्निध्य प्राप्त होना राधा रानी की कृपा के समान है। परंतु इस कृपा को अनुभव करने के लिए संत में अनन्य श्रद्धा होना अत्यंत आवश्यक है।
सदगुरुदेव ब्रजमंडल में निवास कर रहे दिव्य महात्माओं की महिमा का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि यद्यपि हम राधा रानी को प्रत्यक्ष नहीं देख सकते, परंतु संत के हृदय में राधा रानी विराजमान रहती हैं और उनके भीतर ही राधा रानी का प्रकाश देखने को मिलता है। संत का सान्निध्य प्राप्त होना साक्षात् राधा रानी की कृपा प्राप्त होने के समान है। परंतु इस कृपा को वास्तव में अनुभव करने के लिए संत के प्रति अनन्य श्रद्धा होनी चाहिए। अपनी निज बुद्धि या विचार से संत की पहचान करना संभव नहीं है, केवल राधा रानी की कृपा से ही उनके भक्त को जाना जा सकता है। यह अनन्य श्रद्धा ही जीव को स्वरूप बोध की ओर ले जाती है।
🔗 यह शिक्षा गुरु और संत की महत्ता को स्थापित करती है, जो आध्यात्मिक मार्ग पर जीव के पथ-प्रदर्शक होते हैं।
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चित्-वृत्ति (चिद-अभिमान): मुक्ति का द्वार
चिद-अभिमान: 'मैं भगवान का हूँ' का मुक्तिदायक बोध
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सदगुरुदेव अहंकार की दूसरी वृत्ति 'चित्-वृत्ति' या 'चिद-अभिमान' के बारे में बताते हैं, जो गुरु कृपा से जागृत होती है। जब जीव को यह बोध होता है कि 'मैं शरीर नहीं, शरीर संबंधी वस्तु मेरा नहीं, मैं सच्चिदानंद भगवान का अंश हूँ, मैं राधा रानी का हूँ', तब यह चिद-अभिमान जागृत होता है। भजन की वास्तविक शुरुआत इसी जागरूकता से होती है, जिसके बिना कोई भी साधन पद्धति सफल नहीं हो सकती।
सदगुरुदेव समझाते हैं कि अहंकार की एक और वृत्ति है, जिसे 'चित्-वृत्ति' या 'चिद-अभिमान' कहते हैं, जो सामान्यतः सुप्त रहती है। गुरु कृपा से जब जीव को ज्ञान होता है कि 'मैं शरीर नहीं, शरीर संबंधी वस्तु मेरा नहीं, मैं सच्चिदानंद भगवान का अंश हूँ, नित्य शुद्ध सनातन, मायातीत, गुणातीत, इंद्रियातीत, लोकातीत, शुद्ध आनंदमय हूँ और राधा रानी मेरी एकमात्र आश्रय व अवलंबन हैं', तब यह चेतन सत्ता जागृत होती है। गुरुदेव कृपा करके जीव को उसका मंजरी स्वरूप, नाम, रूप, सेवा आदि प्रदान करते हैं। यह बोध कि 'मैं राधा रानी का हूँ, राधा रानी मेरी हैं' ही भजन की वास्तविक शुरुआत है। इस जागरूकता के बिना कर्म मार्ग, योग मार्ग, ज्ञान मार्ग या कोई भी अन्य साधन पद्धति अपनाने से जीव संसार चक्र में ही भटकता रहता है।
🔗 यह शिक्षा गुरु की महिमा और शरणागति के महत्व को दर्शाती है, क्योंकि गुरु ही इस आध्यात्मिक पहचान को जागृत करते हैं।
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दृष्टांत: भवसागर पार करने की नाव - मानव तन
दृष्टांत: मानव शरीर - भवसागर से मुक्ति का एकमात्र अवलंबन
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▶ Watch (13:35)
सदगुरुदेव मानव शरीर को भवसागर पार करने वाली एक नाव के समान बताते हैं। जिस प्रकार समुद्र पार करने के लिए नाव एकमात्र अवलंबन है, उसी प्रकार इस संसार रूपी भवसागर को पार करने और भगवत्-प्राप्ति के लिए मानव शरीर ही एकमात्र साधन है। अन्य योनियों में भजन संभव नहीं है, इसलिए मानव जीवन का सदुपयोग करना चाहिए।
सदगुरुदेव मानव शरीर की महत्ता को एक सुंदर दृष्टांत से समझाते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार विशाल समुद्र को पार करने के लिए नाव ही एकमात्र सहारा होती है, उसी प्रकार इस भवसागर रूपी संसार को पार करने के लिए मानव शरीर ही एकमात्र अवलंबन है। अन्य योनियों में भजन या भगवत्-प्राप्ति संभव नहीं है। यह मानव तन ही हमें संसार चक्र से मुक्त होने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए, अहंकार की जड़-वृत्ति को त्यागकर चिद-वृत्ति को जगाना और इस अनमोल मानव शरीर का उपयोग भजन में करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि हम जन्म-मृत्यु के चक्र से निवृत्त हो सकें।
🔗 यह दृष्टांत मानव जीवन की दुर्लभता और भजन के लिए इसके महत्व को रेखांकित करता है।
सनातन धर्म की विशालता और उपासना के विविध भाव
सदगुरुदेव सनातन धर्म की उदारता और सार्वभौमिकता को समझाते हैं। वे बताते हैं कि भगवान के अनंत रूप और लीलाएँ हैं, और विभिन्न उपासना पद्धतियाँ एक ही परम तत्व तक पहुँचने के मार्ग हैं, जिनमें वृंदावन उपासना का माधुर्य विशेष है।
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सनातन धर्म: विश्व मानव धर्म
सनातन धर्म की सार्वभौमिक दृष्टि और उदारता
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▶ Watch (17:15)
सदगुरुदेव सनातन धर्म की उदारता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि यह एकमात्र 'विश्व मानव धर्म' है जो विश्व में शांति ला सकता है। यह धर्म संकीर्ण नहीं है, बल्कि मानता है कि भगवान अनंत हैं और उनके अनंत नाम, रूप, गुण और लीलाएँ हैं। यह धर्म सभी प्राणियों में ईश्वर का निवास देखता है और किसी को पराया नहीं समझता, बल्कि सबको अपना भाई मानता है।
सदगुरुदेव अन्य संकीर्ण मतों के विपरीत सनातन धर्म की महानता को उजागर करते हैं। वे समझाते हैं कि भगवान अनंत हैं, उनके अनंत रूप, नाम, गुण और लीलाएँ हैं, जिनका पार पाना संभव नहीं। शिवजी भी उन्हीं भगवान का ध्यान कर रहे हैं। सनातन धर्म यह नहीं कहता कि 'मेरा धर्म ही श्रेष्ठ है और बाकी सब विधर्मी हैं', बल्कि यह 'मतः परतरं नान्यत्' (मुझसे परे कोई दूसरा तत्व नहीं है) के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि दृश्यमान, अदृश्य, चिंत्य, अचिंत्य सभी वस्तुओं में भगवान ही व्याप्त हैं। सदगुरुदेव श्रीमद्भागवतम् के श्लोक 'अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम्। अर्हयेद् दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्ये चक्षुषा॥' का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि ईश्वर सभी प्राणियों में घर बनाकर निवास करते हैं, इसलिए सभी का सम्मान और आदर करना चाहिए। यही सनातन धर्म की उदारता है जो विश्व में शांति ला सकती है।
🔗 यह शिक्षा सनातन धर्म के 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धांत को प्रतिपादित करती है।
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राधा रानी: समस्त शक्तियों का मूल स्रोत
श्री राधा रानी: मूल प्रकृति और अल्हादिनी शक्ति का स्वरूप
▶ देखें (21:01)
▶ Watch (21:01)
सदगुरुदेव गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में राधा रानी की सर्वोच्च स्थिति का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि राधा रानी ही समस्त शक्तियों और देवियों का मूल स्रोत हैं - सीता माता, पार्वती माता, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि सभी उन्हीं के अनंत रूप हैं। वे मूल प्रकृति, आद्या शक्ति और अल्हादिनी शक्ति की मूल स्वरूपिणी हैं, जो करुणा की सागर हैं और संसार सागर से उद्धार करती हैं।
सदगुरुदेव हमारे गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की इष्ट श्री राधा रानी की महिमा का गुणगान करते हैं। वे बताते हैं कि राधा रानी ही समस्त शक्तियों और देवियों का मूल स्रोत हैं। राम उपासना में सीता माता, शिव उपासना में पार्वती माता, तथा सरस्वती, सावित्री, शंकरी, गंगा, पद्मावती, षष्ठी, मंगलचंडिका, तुलसी, लक्ष्मी, दुर्गा, भगवती - ये सभी राधा रानी के ही अनंत रूप हैं। वे 'मूल प्रकृति', 'मूल आद्या शक्ति' और 'अल्हादिनी' (आनंददायनी) शक्ति की मूल स्वरूपिणी हैं। सदगुरुदेव 'नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनी...' श्लोकों का पाठ करते हुए राधा रानी से करुणा की याचना करते हैं कि वे संसार सागर से शीघ्र उद्धार करें। यह बोध कि 'मैं राधा रानी का हूँ' ही चिद-वृत्ति को जगाता है।
🔗 यह शिक्षा गौड़ीय वैष्णव दर्शन में राधा रानी की केंद्रीय भूमिका और उनकी सर्वशक्तिमत्ता को स्थापित करती है।
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दृष्टांत: राजा का दरबार और घर - भगवान के विविध भाव
दृष्टांत: एक ही भगवान के ऐश्वर्य और माधुर्य भाव
▶ देखें (24:43)
▶ Watch (24:43)
सदगुरुदेव भगवान के विभिन्न रूपों और उपासना पद्धतियों को एक राजा के दृष्टांत से समझाते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति राज दरबार में 'राजा', घर में 'पिता' और मंदिर में 'पुजारी' होता है, उसी प्रकार एक ही भगवान बैकुंठ में ऐश्वर्यमय 'बैकुंठ नायक' और वृंदावन में परम आत्मीय 'प्रियतम' होते हैं। वृंदावन में भगवान अपने भक्त के अधीन हो जाते हैं।
सदगुरुदेव उपासना के भेदों को स्पष्ट करने के लिए एक राजा का सुंदर दृष्टांत देते हैं। वे कहते हैं कि एक ही राजा राज दरबार में ऐश्वर्य और मर्यादा से युक्त होता है, जहाँ उसके पुत्र भी सम्मान से आसन ग्रहण करते हैं। वही राजा जब घर आता है, तो वह पिता और पति के रूप में आत्मीयता और निकटता से भरा होता है, जहाँ पुत्र कंधे पर चढ़ते हैं और पत्नी कुट शब्द भी सुनाती है। फिर वही राजा पुजारी वेश धारण कर मंदिर में पूजा करता है। इसी प्रकार, भगवान भी अनंत शक्तिमान हैं। वे बैकुंठ में ऐश्वर्यमय 'बैकुंठ नायक' हैं, जहाँ सनक-सनंदन आदि उनकी स्तुति वंदना करते हैं। परंतु वृंदावन उनका घर है, जहाँ वे 'प्रियतम' हैं, सखा उन्हें कंधे पर चढ़ाते हैं, और गोपियाँ उन्हें गाली भी देती हैं, जो उन्हें वेद स्तुति से भी अधिक प्रिय लगती है। वृंदावन में भगवान 'अहं भक्त पराधीन' होकर भक्त के अधीन हो जाते हैं।
🔗 यह दृष्टांत भगवान के ऐश्वर्य और माधुर्य भावों के अंतर को सहजता से समझाता है और वृंदावन उपासना की निकटता को दर्शाता है।
वृंदावन उपासना का सार: प्रेम प्रयोजन
इस अंतिम खंड में सदगुरुदेव वृंदावन उपासना के सर्वोच्च लक्ष्य 'प्रेम' पर प्रकाश डालते हैं। वे दृष्टांतों के माध्यम से समझाते हैं कि प्रेम ही वह शक्ति है जिससे भक्त भगवान को अपने वश में कर लेता है और भगवान स्वयं भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं।
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प्रेम प्रयोजन: उपासना का सर्वोच्च लक्ष्य
प्रेम ही परम प्रयोजन है, जिससे भगवान वशीभूत होते हैं
▶ देखें (28:25)
▶ Watch (28:25)
सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि हमारी गौड़ीय उपासना का प्रयोजन कृष्ण, राधा रानी या गोलोक धाम नहीं, बल्कि 'प्रेम' है। भगवान अनंत और विभु हैं, उन्हें सीधे पकड़ना संभव नहीं। परंतु उनकी एक दुर्बलता है - वे प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं। इसलिए साधक का लक्ष्य उस प्रेम को प्राप्त करना होना चाहिए, जिससे भगवान स्वयं भक्त के पीछे-पीछे आते हैं।
सदगुरुदेव एक बहुत ही गूढ़ रहस्य बताते हैं कि हमारी उपासना का अंतिम लक्ष्य स्वयं भगवान नहीं, बल्कि 'प्रेम प्रयोजन' है। वे कहते हैं कि भगवान तो अनंत और विभु हैं, उन्हें कौन पकड़ पाया है? परंतु भगवान की एक कमजोरी है, एक 'वीक पॉइंट' है - वे प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं ('प्रेम वश्यता')। इसलिए बुद्धिमान साधक भगवान के पीछे नहीं भागता, बल्कि उस 'प्रेम' रूपी रस्सी को ढूंढता है। जब वह प्रेम रूपी रस्सी हाथ में आ जाती है, तो ठाकुर जी को ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि ठाकुर जी स्वयं भक्त को ढूंढते हुए उसके पीछे-पीछे आते हैं और बंध जाते हैं। यह प्रेम ही साधना का प्राप्तव्य विषय है।
🔗 यह भक्ति के सर्वोच्च स्वरूप 'रागात्मिका भक्ति' के सिद्धांत को दर्शाता है, जहाँ प्रेम ही साध्य और साधन दोनों है।
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दृष्टांत: गाय और रस्सी - प्रेम की शक्ति
दृष्टांत: भगवान रूपी गाय और प्रेम रूपी रस्सी
▶ देखें (29:28)
▶ Watch (29:28)
सदगुरुदेव भगवान को पाने की युक्ति एक दृष्टांत से समझाते हैं। जैसे एक बिदकने वाली गाय को पकड़ने के लिए उसके पीछे नहीं, बल्कि उसके गले की रस्सी के पीछे भागा जाता है, उसी प्रकार भगवान को सीधे पकड़ना संभव नहीं है। उन्हें पाने के लिए 'प्रेम' रूपी रस्सी को प्राप्त करना चाहिए। एक बार वह प्रेम रूपी रस्सी हाथ में आ गई, तो भगवान स्वयं वश में हो जाते हैं।
सदगुरुदेव कहते हैं कि भगवान को पकड़ना उतना ही कठिन है जितना एक बिदकने वाली गाय को पकड़ना। यदि आप सीधे गाय को पकड़ने जाएंगे तो वह आपको मार देगी। चतुर व्यक्ति गाय की ओर नहीं देखता, बल्कि उसके गले में पड़ी रस्सी की ओर ध्यान देता है। एक बार रस्सी हाथ में आ गई, तो गाय स्वतः ही वश में आ जाती है। इसी प्रकार, भगवान को सीधे पाना संभव नहीं है। वे अनंत विभु हैं। हमें उस 'प्रेम' रूपी रस्सी को ढूंढना चाहिए। जब वह प्रेम रूपी रस्सी हाथ में आ जाती है, तो ठाकुर जी को ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे स्वयं भक्त के पीछे-पीछे आते हैं और बंध जाते हैं। यह प्रेम ही वह शक्ति है जिससे भगवान वशीभूत होते हैं।
🔗 यह दृष्टांत भक्ति-साधना में सही लक्ष्य ('प्रेम') पर ध्यान केंद्रित करने के महत्व को रेखांकित करता है।
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दृष्टांत: माँ और बच्चा - भक्तवत्सलता
दृष्टांत: भक्त रूपी बच्चा और भगवान रूपी माँ - प्रेम की पराकाष्ठा
▶ देखें (31:05)
▶ Watch (31:05)
सदगुरुदेव भगवान की भक्तवत्सलता को माँ और बच्चे के दृष्टांत से समझाते हैं। जैसे माँ को ढूंढने के लिए उसके बच्चे के पास बैठ जाओ, माँ बच्चे को छोड़कर कहीं नहीं जाएगी और स्वयं आ जाएगी, उसी प्रकार भगवान को पाने के लिए उनके प्रेमी भक्त का संग करना चाहिए। जहाँ भक्त है, वहाँ भगवान अवश्य मिलेंगे, क्योंकि वे भक्त के प्रेम में बंधे हैं।
सदगुरुदेव भगवान की भक्तवत्सलता का एक और सुंदर दृष्टांत देते हैं। वे कहते हैं कि यदि आपको किसी घर में माँ से मिलना है और वहाँ एक छोटा बच्चा खेल रहा है, तो आपको माँ को ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। आप बस बच्चे के पास बैठ जाइए, माँ उसे छोड़कर कहीं नहीं जाएगी और स्वयं आपके पास आ जाएगी। ठीक इसी प्रकार, भगवान अपने भक्तों के प्रेम में इतने वशीभूत रहते हैं कि वे उन्हें छोड़कर एक पल भी कहीं नहीं जाते। यदि आपको भगवान को पाना है, तो उनके प्रेमी भक्तों का संग कीजिए, उनकी सेवा कीजिए। जहाँ भक्त हैं, वहाँ भगवान अवश्य प्रकट होंगे, क्योंकि वे 'भक्तवश्य' हैं, भक्त के प्रेम में बंधे हुए हैं। प्रेमी भक्त का संग ही भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल और सीधा मार्ग है।
🔗 यह 'साधु-संग' की महिमा को दर्शाता है और बताता है कि भगवत्-प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग भक्तों की कृपा प्राप्त करना है।
✨ विशेष उल्लेख
📋 गौड़ीय वैष्णव साधना के तीन स्तंभ
▶ 8:10
▶ देखें (8:10)
- संबंध: भगवान से हमारा नित्य, अविच्छिन्न और अभिन्न संबंध क्या है, इस बोध को जगाना। यह जानना कि मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं।
- अभिधेय: उस संबंध को पुनः प्राप्त करने का उपाय, जो कि भक्ति है। विशेषकर नवधा भक्ति का आचरण करना।
- प्रयोजन: साधना का अंतिम लक्ष्य, जो धन, मुक्ति या वैकुंठ नहीं, बल्कि विशुद्ध 'प्रेम' है। कृष्ण-प्रेम की प्राप्ति ही परम प्रयोजन है।
📋 पांच तत्व (Panch Tatva)
- अग्नि (Fire)
- जल (Water)
- आकाश (Sky/Ether)
- वायु (Air)
- पृथ्वी (Earth)
⛓️ जड़-वृत्ति (जड़-अभिमान)
यह अहंकार का बंधनकारी स्वरूप है। इसमें जीव शरीर को 'मैं' और शरीर संबंधी वस्तुओं को 'मेरा' मान लेता है। यह कर्तापन का भ्रम पैदा कर जीव को कर्म-चक्र में फँसाता है।
बनाम
🕊️ चित्-वृत्ति (चिद-अभिमान)
यह अहंकार का मुक्तिदायक स्वरूप है, जो गुरु कृपा से जागृत होता है। इसमें जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है कि 'मैं भगवान का नित्य दास हूँ'। यह भजन का आधार है।
👑 वैकुंठ का ऐश्वर्य
यहाँ भगवान 'बैकुंठ नायक' के रूप में ऐश्वर्य, विधि और मर्यादा से युक्त होते हैं। भक्त दास भाव से स्तुति और वंदना करते हैं। यहाँ भगवान से एक दूरी और सम्मान का भाव रहता है।
बनाम
🏡 वृंदावन का माधुर्य
यह भगवान का घर है, जहाँ वे 'प्रियतम' हैं। यहाँ संकोच और मर्यादा नहीं, बल्कि परम आत्मीयता, निकटता और प्रेम है। भक्त सखा, वात्सल्य या मधुर भाव से सेवा करते हैं।
जिज्ञासा (Q&A)
प्रश्न: यदि 'अभिधेय' (साधन) नाम-भक्ति है और 'प्रयोजन' (साध्य) प्रेम है, तो कुछ लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि नाम ही साधन है और नाम ही प्रेम (साध्य) है? यह कैसे संभव है?
▶ देखें (33:41)
▶ देखें (33:41)
उत्तर: सदगुरुदेव इस प्रश्न को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि यह एक गहन विषय है। वे बताते हैं कि नाम ही साधन (अभिधेय) है और नाम ही साध्य (प्रेम) है, यह कैसे होता है, इस पर वे अगले सत्संग में विस्तार से चर्चा करेंगे।
उत्तर: सदगुरुदेव इस प्रश्न की गंभीरता को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि यह एक महत्वपूर्ण जिज्ञासा है। वे समझाते हैं कि साधना की प्रारंभिक अवस्था में नाम 'अभिधेय' अर्थात् साधन भक्ति का एक अंग है। परंतु जब वही नाम शुद्धता और प्रेम के साथ लिया जाता है, तो नाम और नामी में कोई भेद नहीं रह जाता, और वह नाम ही प्रेम का स्वरूप बन जाता है। इस प्रकार नाम ही साधन है और नाम ही साध्य है। नाम और प्रेम में क्या तात्विक संबंध है और नाम का वास्तविक स्वरूप क्या है, इस गूढ़ रहस्य पर सदगुरुदेव अगले सत्संग में विस्तार से प्रकाश डालने का आश्वासन देते हैं।
प्रश्न: संसार चक्र में जीव के बार-बार आवर्तन का मूल कारण क्या है?
▶ देखें (01:06)
▶ देखें (01:06)
उत्तर: मूल कारण 'स्वरूप-विस्मृति' और देह-अभिमान है।
उत्तर: सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव वास्तव में भगवान का अविभाज्य अंश और आनंदमय सत्ता है। परंतु माया के प्रभाव में वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है (स्वरूप-विस्मृति)। उसने इस पंचभौतिक शरीर को ही 'मैं' मान लिया है। यही 'जड़-अभिमान' उसे बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में घुमाता रहता है।
प्रश्न: क्या भगवान को ज्ञान या बुद्धि से पहचाना जा सकता है?
▶ देखें (07:35)
▶ देखें (07:35)
उत्तर: नहीं, भगवान और उनके भक्तों को केवल श्रद्धा और उनकी कृपा से ही जाना जा सकता है।
उत्तर: सद्गुरुदेव बताते हैं कि निज बुद्धि और विचार के द्वारा राधा रानी या उनके भक्तों की पहचान करना कदापि संभव नहीं है। जब राधा रानी की कृपा होती है, तभी उनके भक्त को पहचाना जा सकता है। इसके लिए साधक के हृदय में अनन्य श्रद्धा होनी चाहिए, तभी वह उस दिव्य कृपा का अनुभव कर सकता है।
प्रश्न: भगवान को वश में करने का सबसे प्रभावी उपाय क्या है?
▶ देखें (29:28)
▶ देखें (29:28)
उत्तर: भगवान केवल 'प्रेम' के वशीभूत होते हैं।
उत्तर: सद्गुरुदेव के अनुसार, भगवान किसी भी योग, तप या ज्ञान से पूर्णतः वश में नहीं आते। उनकी एकमात्र 'दुर्बलता' प्रेम है। जो भक्त उनसे आत्मीयता का संबंध जोड़कर हृदय से प्रेम करता है, भगवान उसके पीछे-पीछे डोलते हैं। वे स्वयं को भक्त के हाथों बेच देते हैं और उसके पराधीन होकर रहते हैं।
✅ करें (Do's)
- अपने वास्तविक स्वरूप का चिंतन करें कि 'मैं भगवान का नित्य अंश हूँ'।
- गुरु कृपा से प्राप्त अपने 'चिद-अभिमान' को जागृत करें।
- सभी प्राणियों में अपने इष्ट को देखें और सबका सम्मान करें।
- साधना का मुख्य लक्ष्य 'प्रेम' को रखें।
- भगवान को पाने के लिए प्रेमी भक्तों का संग करें।
- मानव तन को भवसागर पार करने की नाव मानकर भजन में लगाएं।
❌ न करें (Don'ts)
- शरीर को 'मैं' और सांसारिक वस्तुओं को 'मेरा' मानने की भूल न करें।
- स्वयं को कर्मों का 'कर्ता' मानकर अहंकार न करें।
- सांसारिक संबंधों को नित्य और सत्य न समझें, वे आगंतुक हैं।
- अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझने की संकीर्णता न रखें।
- भगवान को ऐश्वर्य से नहीं, बल्कि प्रेम से पाने का प्रयास करें।
शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)
इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता 3.27
श्रीमद्भगवद्गीता 3.27
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव जीव के बंधन का मूल कारण 'कर्तृत्व-अभिमान' को बताते हुए इस श्लोक के भाव का उल्लेख करते हैं। वे समझाते हैं कि अहंकार के कारण ही जीव स्वयं को कर्ता मानकर कर्म-फल में बँध जाता है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
वास्तव में सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं, परंतु अहंकार से मोहित अज्ञानी आत्मा स्वयं को कर्ता मान लेता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 7.19
श्रीमद्भगवद्गीता 7.19
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव यह समझाते हुए कि स्वरूप-बोध के बिना भजन में बहुत समय लग जाता है, इस श्लोक का संदर्भ देते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानवान को भी यह बोध होने में अनेक जन्म लग जाते हैं, तो साधारण साधक की तो बात ही क्या है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
अनेक जन्मों के अंत में, ज्ञानी पुरुष मुझे (वासुदेव को) ही सब कुछ मानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 7.7
श्रीमद्भगवद्गीता 7.7
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सनातन धर्म की उदारता और सार्वभौमिकता का वर्णन करते हुए सदगुरुदेव इस श्लोक के भाव को उद्धृत करते हैं। वे बताते हैं कि हमारे धर्म के अनुसार, भगवान से परे कोई सत्ता नहीं है, सब कुछ उन्हीं का स्वरूप है।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
हे धनंजय! मुझसे श्रेष्ठ कोई दूसरा तत्व नहीं है। यह संपूर्ण जगत मुझमें उसी प्रकार पिरोया हुआ है, जैसे धागे में मणियाँ पिरोई होती हैं।
श्रीमद्भागवतम् 3.29.21
श्रीमद्भागवतम् 3.29.21
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव सनातन धर्म की इस शिक्षा पर बल देते हैं कि ईश्वर सभी प्राणियों में घर बनाकर निवास करते हैं। वे इस श्लोक के माध्यम से समझाते हैं कि हमारा धर्म सभी जीवों में ईश्वर को देखने और उनका सम्मान करने की शिक्षा देता है।
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम्।
अर्हयेद् दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्ये चक्षुषा॥
अतः सभी प्राणियों में आत्मा रूप से स्थित मुझ परमात्मा का दान, मान (सम्मान) और मैत्रीपूर्ण एवं अभेद दृष्टि से पूजन करना चाहिए।
श्री राधा स्तुति (शास्त्र संदर्भित)
श्री राधा स्तुति (शास्त्र संदर्भित)
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव अपनी इष्ट श्री राधा रानी की महिमा का गान करते हुए इन श्लोकों का पाठ करते हैं। वे बताते हैं कि राधा रानी ही समस्त शक्तियों और देवियों की मूल स्रोत हैं और वे ही करुणा करके जीव का संसार से उद्धार करती हैं।
नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनि।
रासेश्वरि नमस्तेऽस्तु कृष्णप्राणाधिकप्रिये॥
नमस्ते त्रैलोक्यजननि प्रसिद्धकरुणार्णवे।
ब्रह्माविष्णु आदि देवैर्वन्द्यमानपदाम्बुजे॥
नमो सरस्वतिरूपे नमो सावित्री शङ्करि।
गङ्गापद्मावतीरूपे षष्ठीमङ्गलचण्डिके॥
नमस्ते तुलसीरूपे नमो लक्ष्मीस्वरूपिणि।
नमो दुर्गे भगवति नमस्ते सर्वरूपिणि॥
मूलप्रकृतिरूपेण त्वां भजामि करुणामयि।
संसारसागरादस्मादुद्धरस्व दयामयि॥
हे परमेश्वरी, रासमण्डल में निवास करने वाली, रासेश्वरी, कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय, आपको नमस्कार है। हे तीनों लोकों की जननी, करुणा के प्रसिद्ध सागर, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं द्वारा वंदित चरणकमलों वाली, आपको नमस्कार है। हे सरस्वती रूपिणी, सावित्री, शङ्करी, गंगा, पद्मावती, षष्ठी, मंगलचण्डिका, तुलसी रूपिणी, लक्ष्मी स्वरूपिणी, दुर्गा, भगवती, सर्वरूपिणी, आपको नमस्कार है। हे करुणा के सागर, मूल प्रकृति स्वरूपिणी, मैं आपका भजन करता हूँ। हे दयामयी, मुझे इस संसार सागर से शीघ्र उद्धार करें।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव भगवान का सनातन अंश होते हुए भी, माया के चक्कर में पड़कर संसार में भटकता है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
जीवलोक में जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है। वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 2.20
श्रीमद्भगवद्गीता 2.20
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव जीव के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करते हैं, जो भगवान का अभिन्न अंश, चेतन, आनंदमय, नित्य मुक्त, सत्य सनातन, गुणातीत, इंद्रियातीत और लोकातीत है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न कभी मरता है। यह न तो कभी उत्पन्न हुआ, न होता है और न होगा। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
श्रीमद्भागवतम् 5.5.8
श्रीमद्भागवतम् 5.5.8
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि अहंकार के कारण पंचभौतिक शरीर को 'मैं' मान लेना ही संसार चक्र में आवर्तन का मूल कारण है।
यर्हि वाव महीयान् देह आत्माभिमानः स एव संसारतरुस्य बीजम्।
जब देह में आत्मा का अभिमान होता है, वही संसार रूपी वृक्ष का बीज है।
श्रीमद्भगवद्गीता 2.22
श्रीमद्भगवद्गीता 2.22
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि कर्म संस्कारों के अनुसार जीव एक शरीर को त्यागकर दूसरे शरीर को धारण करता है और संसार चक्र में भ्रमण करता रहता है।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 4.39
श्रीमद्भगवद्गीता 4.39
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव संत कृपा प्राप्त करने के लिए अनन्य श्रद्धा के महत्व पर जोर देते हैं।
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त होता है।
श्रीमद्भागवतम् 11.20.17
श्रीमद्भागवतम् 11.20.17
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव मानव शरीर के महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि यह भवसागर को पार करने के लिए एक नाव के समान है, और यह मोक्ष का एकमात्र साधन है।
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्। मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥
यह मनुष्य शरीर, जो सभी सिद्धियों का मूल है, अत्यंत दुर्लभ है और एक सुदृढ़ नौका के समान है। गुरु एक कुशल नाविक के समान हैं और मैं अनुकूल वायु के समान हूँ। यदि कोई मनुष्य इस भवसागर को पार नहीं करता, तो वह आत्मघाती है।
श्रीमद्भागवतम् 9.4.63
श्रीमद्भागवतम् 9.4.63
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव भगवान की भक्तवत्सलता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे भक्तों के प्रेम के अधीन हैं और उनकी कोई स्वतंत्रता नहीं है।
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतंत्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥
हे द्विज! मैं भक्तों के अधीन हूँ, मानो मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। मेरे हृदय को साधुओं ने वश में कर लिया है, क्योंकि मैं भक्तों का प्रिय हूँ।
तैत्तिरीय उपनिषद् 3.1.1
तैत्तिरीय उपनिषद् 3.1.1
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव निर्विशेष ब्रह्म उपासना का वर्णन करते हैं, जहाँ मन का विलय हो जाता है और केवल भगवान की आनंद सत्ता ही शेष रहती है, शक्ति का कोई प्रकाश नहीं होता।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद् विजिज्ञासस्व। तद् ब्रह्मेति॥
जिससे ये सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं, और जिसमें अंत में प्रवेश करते हैं—उसे जानने की इच्छा करो। वही ब्रह्म है।
कठोपनिषद् 1.2.5
कठोपनिषद् 1.2.5
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाना (स्वरूप विस्मृति) ही संसार चक्र में बार-बार जन्म-मृत्यु का मूल कारण है।
अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः। जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥
अविद्या के भीतर रहते हुए, स्वयं को बुद्धिमान और ज्ञानी मानते हुए, मूर्ख लोग इधर-उधर भटकते रहते हैं, जैसे अंधे द्वारा ले जाए गए अंधे।
श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 20.125
श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 20.125
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के त्रिविध साधन—सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन—की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं।
वेद-शास्त्रे कहे 'सम्बन्ध', 'अभिधेय', 'प्रयोजन'। कृष्ण — प्राप्य सम्बन्ध, भक्ति — प्राप्त्येर साधन॥
वेद और शास्त्र तीन मुख्य विषयों का वर्णन करते हैं: सम्बन्ध (भगवान से हमारा रिश्ता), अभिधेय (भक्ति की प्रक्रिया) और प्रयोजन (कृष्ण-प्रेम)।
श्रीरामचरितमानस 7.44.1
श्रीरामचरितमानस 7.44.1
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव मानव शरीर की महत्ता बताते हुए इसे भवसागर पार करने का एकमात्र अवलंबन और नाव के समान बताते हैं।
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
यह मनुष्य शरीर भवसागर से पार उतारने के लिए नाव है और मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है।
वैष्णव पदावली Narottam Das Thakur, Kirtan: 'रूप-रघुनाथ-पदे', Verse 9
वैष्णव पदावली Narottam Das Thakur, Kirtan: 'रूप-रघुनाथ-पदे', Verse 9
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव भगवान की भक्त-वत्सलता का वर्णन करते हुए बताते हैं कि भगवान अपने भक्तों के कितने अधीन रहते हैं।
भक्त मोर पिता गुरु बंधु पुत्र भाई।
भक्त ही मेरे पिता, गुरु, मित्र, पुत्र और भाई हैं।
ऋग्वेद 1.164.46
ऋग्वेद 1.164.46
पूरक संदर्भ (Siddhant)
पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव इस भ्रांति का निवारण करते हैं कि भगवान अनेक हैं; वे स्पष्ट करते हैं कि तत्वतः भगवान एक ही हैं, बस उनके रूप और प्रकाश अनंत हैं।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
सत्य (ईश्वर) एक ही है, जिसे विद्वान अनेक नामों से पुकारते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.33
श्रीमद्भगवद्गीता 9.33
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव संसार की अनित्यता और दुःखमयता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस अनित्य लोक में जन्म पाकर भगवान का भजन करना चाहिए।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्। किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा॥
इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त करके मेरा भजन करो। फिर पवित्र ब्राह्मण और भक्त राजर्षियों की तो बात ही क्या?
स्पष्टीकरण (Clarification)
यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।
अहंकार की वृत्तियों को समझकर प्रेम-भक्ति द्वारा भगवत्-सान्निध्य प्राप्त करना।, सदगुरुदेव समझाते हैं कि जीव अपने चेतन, आनंदमय स्वरूप को भूलकर अहंकार के कारण संसार चक्र में फँसा है। अहंकार की दो वृत्तियाँ हैं - जड़-अभिमान जो बंधन का कारण है, और चिद-अभिमान जो गुरु कृपा से जागृत होकर मुक्ति का मार्ग खोलता है। सनातन धर्म की उदारता और भगवान के अनंत रूपों को समझाते हुए, सदगुरुदेव वृंदावन उपासना के परम लक्ष्य 'प्रेम' पर बल देते हैं, जिससे भक्त भगवान को अपने वश में कर लेता है।
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