[Study Guide : Dec 26, 2025] अहंकार, उपासना और दिव्य धामों की यात्रा | Ego (Ahankara), Worship (Upasana), and the Journey to Divine Abodes

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श्री भगवत चर्चा
26 December 2025

अहंकार, उपासना और दिव्य धामों की यात्रा

सदगुरुदेव समझाते हैं कि जीव अनादि काल से अपने स्वरूप को भूलकर जड़-अभिमान के कारण संसार चक्र में भटक रहा है। इस मोह-निद्रा से जागने के लिए गुरु कृपा से चिद-अभिमान को जागृत करना आवश्यक है। वे भगवान के ज्ञानमय, ऐश्वर्यमय और माधुर्यमय स्वरूपों की चर्चा करते हुए विभिन्न उपासना पद्धतियों और उनके दिव्य धामों का वर्णन करते हैं, जिसमें वृंदावनी माधुर्य लीला की श्रेष्ठता पर विशेष बल दिया गया है। अंत में, विषय-चिंतन से होने वाले पतन के क्रम पर भी प्रकाश डाला गया है।

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" जब तक स्वरूप में स्थित नहीं होता है, तब तक वो निश्चिंत नहीं। ये है निरापद भूमि। जिस भूमि में जाने से फिर साधक कभी संसार चक्र में कभी आता नहीं है। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

भगवान (62) आनंद (47) शरीर (45) अनंत (39) लीला (35) राधारानी (31) विषय (31) स्वरूप (31) चिंतन (30) अहंकार (27)

📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं

जीव का अनादि बंधन और स्वरूप विस्मृति
इस खंड में सद्गुरुदेव जीव के मूल प्रश्न पर विचार करते हैं - भगवान का अंश होते हुए भी वह अनादि काल से दुखमय संसार में क्यों भटक रहा है। इसका मूल कारण 'स्वरूप विस्मृति' और माया के प्रभाव को समझाया गया है।
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जीव का अनंत दुःख
भगवान का अंश होकर भी जीव दुःखी क्यों है?
▶ देखें (02:49) ▶ Watch (02:49)
सद्गुरुदेव प्रश्न उठाते हैं कि जीव भगवान का सच्चिदानंद अंश होते हुए भी अनादि काल से संसार चक्र में क्यों घूम रहा है। वह एक पंचभौतिक शरीर धारण करके दुःख के सागर में गोता लगा रहा है। इसका कारण भगवान की करुणा का अभाव नहीं, बल्कि जीव की अपनी 'स्वरूप विस्मृति' है। सद्गुरुदेव सत्संग का आरंभ जीव की मूल समस्या से करते हैं। वे बताते हैं कि जीव का स्वरूप सत-चित-आनंदमय है, वह भूमानंदमय भगवान का ही अभिन्न अंश है। इसके बावजूद, वह एक पंचभौतिक शरीर धारण करके प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। यही 'स्वरूप विस्मृति' उसे अनादि काल से जन्म-मृत्यु के दुःखमय सागर में डुबो रही है, जहाँ वह दावानल से पीड़ित होकर पुनः-पुनः आवर्तन कर रहा है।
🔗 यह शिक्षा जीव के बंधन के मूल कारण, 'स्वरूप विस्मृति', को उजागर करती है।
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दृष्टांत: संसार एक स्वप्न की भाँति है
दृष्टांत: जाग्रत अवस्था का महा-स्वप्न
▶ देखें (04:59) ▶ Watch (04:59)
सद्गुरुदेव संसार की अवस्था की तुलना स्वप्न से करते हैं। जैसे स्वप्न में न शरीर होता है न संसार, फिर भी हम उसे सत्य मानकर सुख-दुःख भोगते हैं, वैसे ही जाग्रत अवस्था में भी हम इस शरीर को 'मैं' मानकर भ्रम में जी रहे हैं। यह शरीर 'मैं' नहीं हूँ, यही परम सत्य है। सद्गुरुदेव समझाते हैं कि हमारा जाग्रत जीवन भी एक प्रकार का स्वप्न ही है। स्वप्नावस्था में हम एक शरीर और संसार की रचना कर लेते हैं, जो वास्तव में वहाँ नहीं होते, फिर भी हम उनके विकारों (सुख-दुःख, हर्ष-विषाद) को भोगते हैं। जाग्रत अवस्था में शरीर और संसार होते तो हैं, परंतु हम उनसे अपनापन जोड़कर 'मैं शरीर हूँ' यह मान बैठते हैं। यह 'स्वरूप विस्मृति' ही हमारे संसार चक्र में आवर्तन का मूल कारण है। जब तक यह मोह-निद्रा भंग नहीं होती, तब तक हम इस मिथ्या सुख-दुःख को भोगने के लिए बाध्य हैं।
🔗 यह दृष्टांत संसार की आगंतुक और मिथ्या प्रकृति को स्पष्ट करता है।
अहंकार का स्वरूप और मुक्ति का मार्ग
यह खंड बंधन के मुख्य कारण 'अहंकार' पर केंद्रित है। सद्गुरुदेव बताते हैं कि कैसे यही अहंकार जीव को फँसाता है और कैसे इसे सही दिशा देकर मुक्ति का साधन बनाया जा सकता है, जैसा कि गीता में वर्णित है।
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अहंकार ही मूल आवरण है
अहंकारविमूढात्मा: बंधन का मूल कारण
▶ देखें (06:42) ▶ Watch (06:42)
सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच का आवरण अहंकार ही है। यह अहंकार ही 'मैं कर्ता हूँ' का भाव पैदा करता है, जबकि वास्तव में सारे कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं। यह मान्यता ही जीव को प्रकृति के गुणों का भोक्ता बनाकर संसार में बाँधती है। सद्गुरुदेव गीता के श्लोक 'प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।' का संदर्भ देते हुए बताते हैं कि जीव का बंधन अहंकार के कारण है। अहंकार से मोहित आत्मा स्वयं को कर्ता मानती है, जबकि सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं। यह 'मैं कर्ता हूँ' की मान्यता ही उसे प्रकृति-जनित सुख-दुःख का अनुभव कराती है, ठीक वैसे ही जैसे स्वप्न में व्यक्ति मिथ्या विकारों को भोगता है। जब तक यह मोह-निद्रा भंग नहीं होती, तब तक जीव इन विकारों से मुक्त नहीं हो सकता।
🔗 यह शिक्षा अहंकार के वास्तविक स्वरूप और उसके बंधनकारी प्रभाव को समझाती है।
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आत्मा ही आत्मा का बंधु और शत्रु
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः
▶ देखें (09:24) ▶ Watch (09:24)
सद्गुरुदेव गीता के श्लोक 'उद्धरेदात्मनात्मानं' के माध्यम से समझाते हैं कि मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं ही करना चाहिए। जब आत्मा मन और इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लेती है, तो वह अपनी मित्र बन जाती है। इसके विपरीत, असंयमित आत्मा स्वयं की सबसे बड़ी शत्रु बन जाती है। सद्गुरुदेव भगवद गीता (6.5-6.6) का उद्धरण देते हुए एक गहन सिद्धांत बताते हैं कि हमारी मुक्ति या बंधन के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। हमारा अपना मन और अहंकार ही हमारा मित्र या शत्रु है। जिस व्यक्ति ने अपने मन को जीत लिया है, उसकी आत्मा ही उसकी सबसे अच्छी मित्र बन जाती है, जो उसे पतन से बचाती है। परंतु जिसने मन पर विजय प्राप्त नहीं की, उसकी आत्मा ही शत्रु के समान उसके पतन का कारण बनती है। इसलिए, उद्धार का मार्ग स्वयं पर विजय प्राप्त करने से ही प्रशस्त होता है।
🔗 यह शिक्षा आत्म-प्रयास और आत्म-संयम के महत्व पर बल देती है।
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कथा: अंधी स्त्री और उसका भतीजा
कथा: स्पर्श से आनंद का भ्रम - जड़ वस्तु चेतन को आनंद नहीं दे सकती
▶ देखें (12:59) ▶ Watch (12:59)
सद्गुरुदेव एक अंधी स्त्री की कथा सुनाते हैं जो अपने प्रिय भतीजे से बहुत प्रेम करती थी। जब भतीजा पास आता भी था, तो उसे आनंद नहीं मिलता था, जब तक वह उसे स्पर्श न कर ले। इसी प्रकार, जीव को सांसारिक वस्तुओं के संपर्क में आने पर ही आनंद का भ्रम होता है, जो यह सिद्ध करता है कि जड़ वस्तु चेतन को स्थायी आनंद नहीं दे सकती। सद्गुरुदेव यह समझाने के लिए एक कथा कहते हैं कि जड़ वस्तु चेतन को आनंद नहीं दे सकती। एक अंधी स्त्री अपने भतीजे से बहुत प्रेम करती थी। जब उसे बताया गया कि उसका भतीजा आया है, तो उसे कोई आनंद नहीं हुआ। उसे आनंद तभी मिला जब उसने अपने भतीजे को स्पर्श किया। सद्गुरुदेव बताते हैं कि इसी प्रकार, हम भी अपनी पाँच ज्ञानेंद्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के द्वारा प्रकृति-जनित गुणों को भोगते हैं। जब तक वस्तु का सानिध्य या संपर्क नहीं होता, तब तक हमें आनंद का अनुभव नहीं होता। यह दर्शाता है कि जड़ प्रकृति से मिलने वाला आनंद आगंतुक और मिथ्या है, क्योंकि आत्मा स्वयं सत-आनंदमय है और उसे बाहरी वस्तु की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
🔗 यह कथा दर्शाती है कि सांसारिक सुख बाहरी वस्तुओं के संपर्क पर आधारित है, जबकि आत्म-आनंद स्थायी और आंतरिक है।
निरापद भूमि: स्वरूप में स्थिति
स्वरूप में स्थिति ही निरापद भूमि की प्राप्ति का मार्ग
▶ देखें (15:37) ▶ Watch (15:37)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि जब तक जीव अपने स्वरूप में स्थित नहीं होता, तब तक उसे शांति और निश्चिंतता नहीं मिलती। स्वरूप में स्थित होने के बाद ही साधक उस 'निरापद भूमि' को प्राप्त करता है, जहाँ से वह फिर कभी संसार चक्र में वापस नहीं आता। सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जीव जब तक अपनी मोह-निद्रा से जागकर अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित नहीं होता, तब तक उसे सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, मान-अपमान जैसे विकारों को भोगना पड़ता है। एक बार जब यह मोह-निद्रा भंग हो जाती है और जीव अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है, तो वह शांत, निश्चिंत, निश्चल और तृप्त हो जाता है। इसी अवस्था को 'निरापद भूमि' कहते हैं, जहाँ पहुँचने के बाद साधक फिर कभी जन्म-मृत्यु के संसार चक्र में नहीं लौटता, ठीक वैसे ही जैसे नींद टूटने पर स्वप्न के विकार प्रभावित नहीं करते।
🔗 यह शिक्षा जीव के अंतिम लक्ष्य और स्वरूप-ज्ञान की महत्ता को दर्शाती है।
भगवत्ता के त्रिविध प्रकाश और उपासना की विविधता
इस खंड में सद्गुरुदेव भगवान के अनंत स्वरूप और विभिन्न उपासना मार्गों की सत्यता को स्थापित करते हैं। वे सांप्रदायिकता को अज्ञानता बताते हुए भगवान के ज्ञानमय, ऐश्वर्यमय और माधुर्यमय प्रकाशों का वर्णन करते हैं, जिसमें वृंदावन लीला की अद्वितीयता को दर्शाया गया है।
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कथा: पाँच अंधे और हाथी
कथा: सांप्रदायिकता पर पाँच अंधों का दृष्टांत
▶ देखें (17:45) ▶ Watch (17:45)
सद्गुरुदेव पाँच अंधों की प्रसिद्ध कथा सुनाते हैं जो हाथी को स्पर्श करके उसके बारे में अलग-अलग राय बनाते हैं - कोई खंभा, कोई रस्सी, कोई दीवार। वे सभी आंशिक रूप से सही होते हैं, पर पूर्ण सत्य को नहीं जानते। इसी तरह, विभिन्न संप्रदाय भगवान के किसी एक पक्ष को जानकर उसे ही पूर्ण मान लेते हैं और आपस में विवाद करते हैं। सद्गुरुदेव सांप्रदायिकता की निरर्थकता को समझाने के लिए पाँच अंधों और हाथी की कथा का प्रयोग करते हैं। प्रत्येक अंधा हाथी के एक अलग अंग (पैर, पूँछ, सूँड, पीठ, दाँत) को छूता है और उसे ही पूरा हाथी समझ लेता है। वे आपस में झगड़ने लगते हैं कि हाथी खंभे जैसा है या रस्सी जैसा। एक ज्ञानी व्यक्ति आकर उन्हें समझाता है कि वे सभी हाथी के एक-एक अंग को ही देख पाए हैं, और उन सबको मिलाने से ही पूर्ण हाथी बनता है। इसी प्रकार, भगवान अनंत हैं और विभिन्न मार्ग उनके अलग-अलग स्वरूपों की ओर ले जाते हैं; सभी मार्ग सत्य हैं, और किसी एक को श्रेष्ठ मानकर दूसरों का खंडन करना अज्ञानता है।
🔗 यह कथा सर्व-धर्म-समभाव और सांप्रदायिक संकीर्णता से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है।
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भगवान के तीन प्रकाश: ज्ञान, ऐश्वर्य, माधुर्य
भगवत्ता के त्रिविध प्रकाश: ज्ञानमय, ऐश्वर्यमय और माधुर्यमय
▶ देखें (20:55) ▶ Watch (20:55)
सद्गुरुदेव श्री नरोत्तम दास ठाकुर के पद 'सर्वव्यापक हरि' का उल्लेख करते हुए भगवान के तीन मुख्य प्रकाशों का वर्णन करते हैं: सर्वव्यापकता उनका ज्ञानमय प्रकाश (ब्रह्म) है, ब्रह्मा-शिव को आज्ञा देना उनका ऐश्वर्यमय प्रकाश (परमात्मा) है, और मधुर मूर्ति लीला-कथा उनका माधुर्यमय प्रकाश (भगवान) है। सद्गुरुदेव समझाते हैं कि पूर्ण भगवत्ता इन तीन प्रकाशों का समन्वय है। 'ज्ञानमय प्रकाश' उनका निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप है, जो नाम, रूप, गुण, लीला से रहित एक अखंड सत्ता है और सर्वत्र व्याप्त है। 'ऐश्वर्यमय प्रकाश' उनका विशाल और अनंत स्वरूप है, जहाँ वे ब्रह्मा और शिव को सृष्टि, स्थिति और प्रलय की आज्ञा देते हैं, जैसे वैकुंठनाथ। 'माधुर्यमय प्रकाश' उनका वृंदावनी स्वरूप है, जहाँ भगवान अपनी भगवत्ता को भूलकर भक्तों के साथ एक प्राकृत मनुष्य की तरह प्रेमपूर्ण लीलाएँ करते हैं। यह माधुर्य लीला योगमाया द्वारा आवृत रहती है और मूढ़ व्यक्ति इसे समझ नहीं पाते।
🔗 यह शिक्षा भगवान के समग्र स्वरूप को समझने में सहायक है और विभिन्न उपासना पद्धतियों का तात्विक आधार प्रस्तुत करती है।
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वृंदावन लीला का अचिंत्य माधुर्य
माधुर्य लीला के उपकरण: भगवान का चोरी करना और झूठ बोलना
▶ देखें (25:53) ▶ Watch (25:53)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि वृंदावन लीला में भगवान का झूठ बोलना या चोरी करना कोई दोष नहीं, बल्कि लीला के माधुर्य को बढ़ाने वाले 'उपकरण विशेष' हैं। ये लीलाएँ भगवान और भक्त के बीच की परम आत्मीयता और प्रेम को दर्शाती हैं, जहाँ भगवान अपनी भगवत्ता और भक्त अपनी दासता भूल जाते हैं। सद्गुरुदेव एक महत्वपूर्ण शंका का समाधान करते हैं कि भगवान वृंदावन लीला में चोरी या झूठ क्यों बोलते हैं। वे समझाते हैं कि ये क्रियाएँ सांसारिक मापदंडों से नहीं मापी जा सकतीं। जब भगवान के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, तो वे किसकी चोरी करेंगे? ये 'झूठ' और 'चोरी' लीला-रस को अत्यंत सरस और महिमामंडित करने वाले 'उपकरण विशेष' हैं। ये लीलाएँ भगवान और भक्त को आनंद के सागर में डुबो देती हैं, जहाँ भगवान भी आत्माराम होते हुए भी उफनते दूध की तरह आनंद में डूब जाते हैं। यह वृंदावनी लीला अचिंत्य, अगम्य और मन-बुद्धि से परे है, जिसे केवल राधारानी की कृपा से ही किंचित आस्वादन किया जा सकता है।
🔗 यह शिक्षा वृंदावन लीला के अद्वितीय प्रेम और माधुर्य को उजागर करती है, जो लौकिक नैतिकता से परे है।
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कथा: श्री रामकृष्ण और ब्रह्मज्ञानी
कथा: श्री रामकृष्ण परमहंस और मूर्ति पूजा का रहस्य
▶ देखें (31:27) ▶ Watch (31:27)
एक ब्रह्मज्ञानी ने श्री रामकृष्ण परमहंस से पूछा कि एक छोटी पत्थर की मूर्ति अनंत ब्रह्मांड की जननी कैसे हो सकती है। श्री रामकृष्ण ने सूर्य का उदाहरण दिया, जो दूर से थाली जैसा दिखता है पर वास्तव में विशाल है। उन्होंने समझाया कि ब्रह्मज्ञानी भी माँ से दूर हैं, इसलिए उन्हें वह केवल विग्रह दिखती है; पास आने पर उसका अनंत स्वरूप प्रकट होगा। सद्गुरुदेव सगुण उपासना के महत्व को समझाने के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस देव के जीवन की एक घटना का वर्णन करते हैं। एक ब्रह्मज्ञानी ने श्री रामकृष्ण से प्रश्न किया कि उनकी माँ काली की पत्थर की मूर्ति अनंत ब्रह्मांड की जननी कैसे हो सकती है। श्री रामकृष्ण ने उसे उगते हुए सूर्य को देखने को कहा, जो दूर से एक थाली जैसा दिखता है, जबकि वह पृथ्वी से करोड़ों गुना बड़ा है। श्री रामकृष्ण ने समझाया कि तुम भी माँ से करोड़ों मील दूर हो, इसलिए तुम्हें वह केवल एक विग्रह दिखती है। जब तुम ज्ञान और भक्ति के माध्यम से उनके करीब आओगे, तो तुम्हें वही अनंत शक्ति और अनंत वैकुंठों का मूल स्रोत दिखेगी। यह कथा दर्शाती है कि भगवान के सगुण स्वरूप को केवल श्रद्धा और निकटता से ही समझा जा सकता है, दूर से नहीं।
🔗 यह कथा सगुण उपासना की गहराई और ब्रह्म के साकार स्वरूप की महत्ता को स्पष्ट करती है।
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दृष्टांत: महासागर के किनारे
दृष्टांत: एक ही जल राशि, अनेक महासागर - भगवत्ता की विविधता में एकता
▶ देखें (33:17) ▶ Watch (33:17)
सद्गुरुदेव महासागर के दृष्टांत से समझाते हैं कि जैसे एक ही जल राशि को भूखंड के अनुसार अलग-अलग महासागरों के नाम से जाना जाता है, वैसे ही भगवान एक ही हैं। उनके अनंत नाम, रूप, गुण और लीलाएँ हैं, और विभिन्न संप्रदाय उन्हीं के अलग-अलग पहलुओं का अनुभव करते हैं। सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि भगवान अनंत हैं, उनके नाम अनंत हैं, रूप अनंत हैं, गुण अनंत हैं और लीलाएँ भी अनंत हैं। वे इस सत्य को समझाने के लिए महासागर का दृष्टांत देते हैं। जैसे भारत महासागर, अटलांटिक महासागर, प्रशांत महासागर आदि अलग-अलग नाम से जाने जाते हैं, परंतु मूलतः वे सब एक ही विशाल जल राशि हैं, उसी प्रकार सच्चिदानंद भगवान भी एक ही हैं। विभिन्न संप्रदाय और उपासना पद्धतियाँ भगवान के अलग-अलग स्वरूपों या प्रकाशों का अनुभव करती हैं, जैसे ज्ञानमय, ऐश्वर्यमय या माधुर्यमय। यह विविधता भगवान की अनंतता का ही प्रमाण है, न कि भेद का कारण। यह अज्ञानता ही है जो संप्रदायों के बीच भेद पैदा करती है।
🔗 यह दृष्टांत सांप्रदायिक संकीर्णता को दूर कर भगवान की विविधता में एकता के सिद्धांत को स्थापित करता है।
चिद-अभिमान: दिव्य स्वरूप की प्राप्ति
यह अंतिम खंड मुक्ति के व्यावहारिक उपाय पर केंद्रित है। सद्गुरुदेव 'जड़-अभिमान' को 'चिद-अभिमान' में बदलने की प्रक्रिया, विभिन्न उपासना पद्धतियों के माध्यम से दिव्य धामों की प्राप्ति और अंत में विषय-चिंतन से होने वाले पतन के क्रम को समझाते हैं।
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चिद-अभिमान: मुक्ति का साधन
जड़-अभिमान से चिद-अभिमान की यात्रा
▶ देखें (35:17) ▶ Watch (35:17)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि अहंकार की दो वृत्तियाँ हैं - जड़ और चित्त। 'मैं शरीर हूँ' यह जड़-अभिमान बंधन का कारण है। गुरु कृपा से जब साधक यह चिंतन करता है कि 'मैं शरीर नहीं, मैं राधारानी की नित्य सहचरी हूँ', तो यह चिद-अभिमान जागृत होता है। यही चिद-अभिमान साधक को उसके दिव्य स्वरूप में स्थित कराता है। सद्गुरुदेव साधना का गुह्य रहस्य खोलते हैं। वे बताते हैं कि 'मैं यह शरीर हूँ' - यह जड़-अभिमान ही 84 लाख योनियों में भ्रमण कराता है। इससे मुक्ति पाने के लिए गुरुदेव साधक को उसके दिव्य, चिन्मय स्वरूप का बोध कराते हैं, जिसे 'चिद-अभिमान' कहते हैं। उदाहरण के लिए, गौड़ीय वैष्णव 'मैं राधा की मंजरी हूँ' ऐसा चिद-अभिमान करते हैं। यह चिद-अभिमान की भावना धीरे-धीरे जड़-अभिमान के आवरण को नष्ट कर देती है और साधक को उसके दिव्य स्वरूप में स्थित कराती है। यह चिद-अभिमान ही साधना की वास्तविक शुरुआत है, जो साधक को उसके अभीष्ट भगवद्धाम तक ले जाता है।
🔗 यह शिक्षा साधना के मनोवैज्ञानिक और तात्विक प्रक्रिया को स्पष्ट करती है।
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दृष्टांत: सर्प का केंचुली त्यागना
दृष्टांत: अहंकार ग्रंथि का भेदन और सर्प की केंचुली
▶ देखें (36:36) ▶ Watch (36:36)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि जैसे-जैसे साधक का चिद-अभिमान प्रबल होता है, एक समय आता है जब जड़-अभिमान रूपी अहंकार ग्रंथि खुल जाती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे एक सर्प अपनी पुरानी केंचुली को सहजता से त्याग देता है और अपने नए, चमकीले स्वरूप में प्रकट होता है। सद्गुरुदेव चिद-अभिमान की साधना के परिणाम का वर्णन एक सुंदर दृष्टांत से करते हैं। वे कहते हैं कि निरंतर दिव्य स्वरूप का चिंतन करने से साधक का जड़-अभिमान धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है। अंततः, एक ऐसा समय आता है जब जड़-अभिमान रूपी अहंकार की ग्रंथि पूरी तरह से खुल जाती है। यह प्रक्रिया उतनी ही स्वाभाविक और सहज होती है जितनी एक सर्प का अपनी पुरानी, व्यर्थ हो चुकी केंचुली को त्याग देना। इस प्रकार, साधक जड़-अभिमान से मुक्त होकर अपने चिन्मय स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और भगवद्धाम में प्रवेश करता है।
🔗 यह दृष्टांत अहंकार से मुक्ति की सहजता और स्वाभाविक प्रक्रिया को दर्शाता है।
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विभिन्न उपासना मार्ग और उनके दिव्य धाम
यथा उपासना तथा प्राप्ति: विभिन्न धामों की यात्रा
▶ देखें (38:06) ▶ Watch (38:06)
सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि चिद-अभिमान का सिद्धांत सभी वैष्णव संप्रदायों में है। रामानंदी उपासक दास्य भाव से दिव्य अयोध्या धाम जाते हैं, जनकपुरी उपासक सहचरी भाव से सीता जी के धाम जाते हैं, वैकुंठ उपासक चतुर्भुज स्वरूप पाकर वैकुंठ लोक जाते हैं, और वृंदावनी उपासक मंजरी या सखी स्वरूप धारण कर गोलोक वृंदावन जाते हैं। सद्गुरुदेव बताते हैं कि चिद-अभिमान का सिद्धांत सार्वभौमिक है, भले ही स्वरूप भिन्न हों। रामानंदी उपासना में साधक 'मैं राम जी का दास हूँ' का दास्य अभिमान करके दिव्य अयोध्या धाम को प्राप्त होता है। जनकपुरी उपासना में सीता जी की सहचरी का स्वरूप चिंतन करके साधक जनकपुर की लीला में प्रवेश पाता है। वैकुंठ के उपासक चतुर्भुज मूर्ति धारण कर शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ वैकुंठ लोक जाते हैं। और जो माधुर्य भाव से वृंदावनी उपासना करते हैं, वे मंजरी या सखी स्वरूप धारण कर गोलोक वृंदावन में नित्य लीला में प्रविष्ट होते हैं। ये सभी धाम चिन्मय, दिव्य और आनंदमय हैं, और प्रत्येक मार्ग अपने उपास्य के अनुरूप दिव्य गंतव्य तक ले जाता है।
🔗 यह शिक्षा विभिन्न वैष्णव उपासना पद्धतियों की प्रामाणिकता और उनके अनुरूप प्राप्त होने वाले दिव्य गंतव्यों को स्पष्ट करती है।
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शब्दों से परे दिव्य अनुभव
शब्दों के अगम्य दिव्य अनुभव: सत्संग एक दिग्दर्शन है
▶ देखें (40:10) ▶ Watch (40:10)
सद्गुरुदेव कहते हैं कि भगवान की लीला, रस और धाम का वर्णन शब्दों से संभव नहीं है। शास्त्र और संत केवल 'दिग्दर्शन' कराते हैं, यानी दिशा का संकेत देते हैं। जैसे हिमालय का अनुभव उसे देखकर ही होता है, वैसे ही दिव्य अनुभूतियाँ साधना करके ही प्राप्त होती हैं, उनका वर्णन करना मूर्खता है। सद्गुरुदेव अपनी वाणी की सीमा को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि भगवान की लीला, रस और धाम का वर्णन शब्दों द्वारा संभव नहीं है। ये मन-बुद्धि के अगम्य हैं और केवल अनुभव वेद्य तथा कृपा साध्य हैं। वे इसे 'दिग्दर्शन' कहते हैं, जिसका अर्थ है दिशा का संकेत देना। जैसे कोई हिमालय को देखे बिना उसका वर्णन नहीं कर सकता, केवल यह बता सकता है कि 'उत्तर दिशा में जाओ', वैसे ही शास्त्र और गुरु केवल साधना का मार्ग दिखाते हैं। उस मार्ग पर चलकर साधक को स्वयं ही दिव्य अनुभव प्राप्त करना होता है। सद्गुरुदेव विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि इसका वर्णन करने का प्रयास करना एक मूर्खता है, क्योंकि यह शब्दों से परे है।
🔗 यह शिक्षा दिव्य अनुभूतियों की अवाच्य प्रकृति और गुरु-शास्त्र के मार्गदर्शन के महत्व को दर्शाती है।
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विषय चिंतन से पतन का क्रम
ध्यायतो विषयान्पुंसः - विषय चिंतन से पतन की प्रक्रिया
▶ देखें (41:09) ▶ Watch (41:09)
सद्गुरुदेव भगवद गीता के श्लोकों का उल्लेख करते हुए समझाते हैं कि संसार में जीव का पतन विषय चिंतन से शुरू होता है। विषय का बार-बार चिंतन करने से उसमें आसक्ति, फिर कामना, क्रोध, संमोह, स्मृतिभ्रम, बुद्धिनाश और अंततः सर्वनाश होता है। सद्गुरुदेव भगवद गीता के प्रसिद्ध श्लोकों (2.62-63) का वर्णन करते हुए बताते हैं कि संसार चक्र में जीव के पतन का मूल कारण विषय चिंतन है। जब मनुष्य विषयों का बार-बार चिंतन करता है, तो उसमें आसक्ति उत्पन्न होती है। इस आसक्ति से कामना जन्म लेती है, और कामना में बाधा आने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से संमोह (अज्ञान) पैदा होता है, जिससे स्मृति का भ्रम होता है। स्मृतिभ्रम से बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि के नाश से मनुष्य का पूर्ण पतन हो जाता है। सद्गुरुदेव चेतावनी देते हैं कि यह प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म है कि साधक को इससे अत्यंत सावधान रहना चाहिए।
🔗 यह शिक्षा साधक को विषय-चिंतन के खतरों के प्रति सचेत करती है और आत्म-नियंत्रण के महत्व पर बल देती है।

✨ विशेष उल्लेख

📋 भगवत्ता के तीन प्रकाश ▶ 30:54 ▶ देखें (30:54)
  • ज्ञानमय प्रकाश: यह भगवान का निर्विशेष, सर्वव्यापक, नाम-रूप-गुण-लीला रहित ब्रह्म स्वरूप है।
  • ऐश्वर्यमय प्रकाश: यह भगवान का अनंत, विराट, सृष्टि-स्थिति-प्रलयकर्ता, वैकुंठनाथ स्वरूप है।
  • माधुर्यमय प्रकाश: यह भगवान का वृंदावनी, नरतनुधारी, भक्तों के साथ प्रेम-लीला करने वाला मधुर स्वरूप है।
✨ संत समागम की दुर्लभता ▶ 01:04 ▶ देखें (01:04)
"सद्गुरुदेव श्री तुलसीदास जी का दोहा उद्धृत करते हुए बताते हैं कि संत समागम और हरिकथा संसार में दो सबसे दुर्लभ वस्तुएँ हैं। धन, पुत्र और लक्ष्मी तो पापी व्यक्ति को भी प्राप्त हो सकते हैं, परंतु संतों का संग परम सौभाग्य से ही मिलता है।"
✨ वृंदावन के श्रोताओं की विशेषता ▶ 01:48 ▶ देखें (01:48)
"सद्गुरुदेव वृंदावन में सत्संग सुनने आए श्रोताओं की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि ये साधारण श्रोता नहीं, बल्कि 'परमार्थ लोभी', 'आत्म कल्याणकामी' हैं। ये लोग स्त्री, पुत्र, परिवार और सांसारिक सुखों का परित्याग कर केवल राधारानी के चरण सानिध्य में हरिकथामृत का आस्वादन करने आए हैं।"
📋 समय और मन का संयम ▶ 49:54 ▶ देखें (49:54)
  • समय का सदुपयोग (Time): साधक को निरंतर सतर्क रहना चाहिए कि उसका एक भी क्षण व्यर्थ न जाए। समय को सांसारिक विषयों में बर्बाद न करके केवल भगवत-चिंतन में लगाना चाहिए।
  • मन की स्थिति (Mind): भजन केवल माला फेरने की बाहरी 'क्रिया' नहीं, बल्कि एक 'भावना' है। असली साधना तब है जब अंतःकरण बदल जाए और मन में राधा रानी के सिवा किसी और के लिए स्थान न रहे।
📋 साधना के दो अनिवार्य नियम ▶ 46:45 ▶ देखें (46:45)
  • प्रभु की इच्छा (Acceptance): जीवन में जो भी भला-बुरा या संयोग-वियोग हो, उसे केवल प्रभु की इच्छा मानकर शांत रहना चाहिए। मन में विक्षेप न लाना ही सच्ची शरणागति है।
  • निराशी और अपरिग्रह (Detachment): हृदय में राधा रानी के चरणों के अतिरिक्त किसी भी सांसारिक वस्तु की आशा (निराशी) या संग्रह (अपरिग्रह) नहीं रखना चाहिए। आशा ही बंधन का कारण है।
🔗 जड़-अभिमान
यह 'मैं शरीर हूँ, और शरीर से संबंधित वस्तुएँ मेरी हैं' की भावना है। यह जीव को प्रकृति के गुणों से बाँधकर 84 लाख योनियों में भ्रमण कराती है। यह बंधन का मूल कारण है।
बनाम
🕊️ चिद-अभिमान
यह गुरु द्वारा प्रदत्त 'मैं शरीर नहीं, अपितु भगवान का नित्य दास/सखी/पार्षद हूँ' की दिव्य भावना है। यह जड़-अभिमान को नष्ट करके जीव को उसके दिव्य स्वरूप में स्थित करती है। यह मुक्ति का साधन है।
🙈 मूढ़ (अज्ञानी)
जो व्यक्ति शरीर को ही 'मैं' और संसार को ही सत्य मानता है, वह मूढ़ है। वह भगवान की दिव्य लीलाओं को साधारण मनुष्य की दृष्टि से देखता है और उनकी आलोचना करता है। उसका सिद्धांत 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' (कर्ज लेकर घी पियो) जैसा होता है।
बनाम
👁️ अमूढ़ (ज्ञानी)
जो यह जानता है कि 'मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ, राधारानी का हूँ', वह अमूढ़ है। वह संसार को स्वप्नवत और भगवान के साथ अपने नित्य संबंध को सत्य जानता है। वह भगवान की लीलाओं के दिव्य माधुर्य का आस्वादन करता है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: जीव भगवान का अंश होते हुए भी अनादि काल से दुःखी क्यों है? ▶ देखें (02:55) ▶ देखें (02:55)
उत्तर: सद्गुरुदेव बताते हैं कि इसका कारण जीव की 'स्वरूप विस्मृति' है। माया के प्रभाव से वह अपने सच्चिदानंद स्वरूप को भूलकर, स्वयं को पंचभौतिक शरीर मान बैठा है, इसीलिए दुःखी है। उत्तर: सद्गुरुदेव विस्तार से समझाते हैं कि जीव मूलतः सत-आनंदमय है और भूमानंदमय भगवान का अभिन्न अंश है, परंतु अविद्या माया उसे उसके वास्तविक स्वरूप को भुला देती है। इस विस्मृति के कारण वह प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेता है और एक गुणमय शरीर को 'मैं' मान लेता है। यह मान्यता ही उसे संसार के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद जैसे विकारों में फँसाकर अनंत काल तक जन्म-मृत्यु के चक्र में घुमाती रहती है।
प्रश्न: भगवान की वृंदावन लीला में झूठ और चोरी जैसे तत्व क्यों हैं? क्या यह भगवान के चरित्र के विरुद्ध नहीं है? ▶ देखें (25:40) ▶ देखें (25:40)
उत्तर: सद्गुरुदेव के अनुसार, ये कोई दोष नहीं, बल्कि वृंदावन लीला के माधुर्य को बढ़ाने वाले 'उपकरण विशेष' हैं। ये भगवान और भक्त के बीच की परम आत्मीयता को दर्शाते हैं, जहाँ ऐश्वर्य का कोई स्थान नहीं होता। उत्तर: सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि भगवान की लीलाओं को सांसारिक मापदंडों से नहीं मापना चाहिए। पहली बात तो यह कि जब भगवान के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, तो वे किसकी चोरी करेंगे? दूसरी बात, ये तथाकथित 'झूठ' और 'चोरी' वृंदावन लीला-रस को अत्यंत सरस और महिमामंडित करते हैं। यदि ये न हों, तो वृंदावन लीला नीरस और फीकी पड़ जाएगी। यह सब भगवान की अचिंत्य योगमाया शक्ति का प्रकाश है, जो भक्त और भगवान दोनों को आनंद के सागर में डुबो देता है। यह लीला मन-बुद्धि से परे है और केवल कृपा से ही अनुभव की जा सकती है।
प्रश्न: क्या विभिन्न संप्रदाय और उपासना पद्धतियाँ एक-दूसरे के विरोधी हैं? ▶ देखें (17:04) ▶ देखें (17:04)
उत्तर: सद्गुरुदेव कहते हैं, बिल्कुल नहीं। सांप्रदायिकता एक महान अज्ञानता है। सभी मार्ग उसी एक सच्चिदानंद सागर तक पहुँचने के अलग-अलग घाट हैं। उत्तर: सद्गुरुदेव पाँच अंधों और हाथी का दृष्टांत देकर समझाते हैं कि जैसे अंधे हाथी के अलग-अलग अंगों को छूकर उसे ही पूर्ण हाथी मान लेते हैं और आपस में झगड़ते हैं, वैसे ही संकीर्ण दृष्टि वाले लोग भगवान के किसी एक स्वरूप या मार्ग को ही पूर्ण मानकर अन्य स्वरूपों का खंडन करते हैं। वास्तव में, भगवान अनंत हैं और उनके अनंत नाम, रूप, गुण, लीलाएँ हैं। ज्ञानमय, ऐश्वर्यमय और माधुर्यमय - ये सभी भगवान के ही प्रकाश हैं। सभी उपासना पद्धतियाँ प्रामाणिक हैं और साधक को उसी एक परमात्मा तक ले जाती हैं।
✅ करें (Do's)
  • संत समागम और हरिकथा का श्रवण करें।
  • गुरु कृपा से अपने चिन्मय, दिव्य स्वरूप का बोध प्राप्त करें।
  • जड़-अभिमान को त्यागकर चिद-अभिमान (मैं भगवान का हूँ) को जागृत करें।
  • सभी उपासना मार्गों का सम्मान करें और सांप्रदायिकता से दूर रहें।
  • अपने मन और इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें।
❌ न करें (Don'ts)
  • शरीर को 'मैं' और सांसारिक वस्तुओं को 'मेरा' न मानें।
  • भगवान की अचिंत्य लीलाओं की अपनी सीमित बुद्धि से समालोचना न करें।
  • अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन न समझें।
  • सांसारिक विषयों का बार-बार चिंतन न करें, क्योंकि यह पतन का मूल है।
  • यह न सोचें कि जड़ वस्तुएँ चेतन आत्मा को स्थायी आनंद दे सकती हैं।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
श्री रामचरितमानस (संत श्री तुलसीदास) Shri Ramcharitmanas, Uttarkand, Doha 45 श्री रामचरितमानस (संत श्री तुलसीदास) Shri Ramcharitmanas, Uttarkand, Doha 45 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए सद्गुरुदेव ने इस दोहे का उल्लेख किया।
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोए, दारा सुत और लक्ष्मी ये तो पापी के भी होए।।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि संत श्री तुलसीदास जी के अनुसार इस संसार में दो वस्तुएँ अत्यंत दुर्लभ हैं - संतों का संग और भगवान की कथा। पत्नी, पुत्र और धन-संपत्ति तो पापी मनुष्यों को भी प्राप्त हो सकती है, परंतु सत्संग परम सौभाग्य से ही मिलता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 3.27 श्रीमद्भगवद्गीता 3.27 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
जीव के बंधन का कारण समझाते हुए सद्गुरुदेव ने यह श्लोक उद्धृत किया।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
सद्गुरुदेव बताते हैं कि वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, परंतु अहंकार से मोहित अज्ञानी आत्मा 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेती है। यही 'कर्तापन' का अभिमान उसके बंधन का कारण है।
श्रीमद्भगवद्गीता 6.5 श्रीमद्भगवद्गीता 6.5 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह समझाते हुए कि मुक्ति के लिए स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है, सद्गुरुदेव ने यह श्लोक कहा।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
सद्गुरुदेव इस श्लोक के माध्यम से प्रेरणा देते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपना पतन न करे। क्योंकि यह मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु भी है।
श्रीमद्भगवद्गीता 6.6 श्रीमद्भगवद्गीता 6.6 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
पिछले श्लोक के अर्थ को और स्पष्ट करने के लिए सद्गुरुदेव ने इसे उद्धृत किया।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर को जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसने मन तथा इंद्रियों सहित शरीर को नहीं जीता है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बरतता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 10.42 श्रीमद्भगवद्गीता 10.42 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान की अनंतता और विराटता का वर्णन करते हुए सद्गुरुदेव ने यह श्लोक कहा।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।
सद्गुरुदेव भगवान के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए बताते हैं कि भगवान अर्जुन से कहते हैं - 'अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है? मैं इस संपूर्ण जगत को अपने योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।'
श्री प्रेम-भक्ति-चंद्रिका (श्री नरोत्तम दास ठाकुर) श्री प्रेम-भक्ति-चंद्रिका (श्री नरोत्तम दास ठाकुर) पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
भगवान के तीन मुख्य प्रकाशों (ज्ञान, ऐश्वर्य, माधुर्य) को समझाने के लिए सद्गुरुदेव ने यह पद गाया।
सर्वव्यापक हरि, अज भव आज्ञाकारी, मधुर मूरति लीला कथा। यही तत्व जाने जेहि, परम रसिक सेई, तार संग करिह सर्वथा।।
सद्गुरुदेव इस पद का अर्थ समझाते हैं: हरि सर्वव्यापक हैं (ज्ञानमय प्रकाश), ब्रह्मा (अज) और शिव (भव) उनके आज्ञाकारी हैं (ऐश्वर्यमय प्रकाश), और उनकी मधुर मूर्ति व लीला कथाएँ हैं (माधुर्यमय प्रकाश)। जो इस तत्व को जानता है, वही परम रसिक भक्त है, और हमें सदैव ऐसे रसिक भक्त का ही संग करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.4 श्रीमद्भगवद्गीता 9.4 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान के सर्वव्यापक, ज्ञानमय प्रकाश का वर्णन करते हुए सद्गुरुदेव ने यह श्लोक उद्धृत किया।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि भगवान कहते हैं: 'मुझ अव्यक्त स्वरूप द्वारा यह सारा जगत व्याप्त है। समस्त प्राणी मुझमें स्थित हैं, किंतु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।'
श्रीमद्भगवद्गीता 7.7 श्रीमद्भगवद्गीता 7.7 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान की परम सत्ता और सर्वव्यापकता को और स्पष्ट करते हुए सद्गुरुदेव ने यह श्लोक कहा।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान कहते हैं: 'हे धनंजय! मुझसे श्रेष्ठ कोई अन्य वस्तु नहीं है। यह सारा जगत सूत्र में मणियों के समान मुझमें पिरोया हुआ है।'
श्रीमद्भगवद्गीता 7.25 श्रीमद्भगवद्गीता 7.25 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान की माधुर्यमयी लीला सबके सामने प्रकट क्यों नहीं होती, यह समझाने के लिए यह श्लोक कहा गया।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि भगवान कहते हैं, 'अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके सामने प्रकट नहीं होता हूँ। इसलिए यह मूढ़ संसार मुझ अजन्मा और अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता और मुझे साधारण मनुष्य मान लेता है।' यह उनकी लीला शक्ति का प्रभाव है।
श्रीमद्भगवद्गीता 9.19 श्रीमद्भगवद्गीता 9.19 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
भगवान की लीला में सत्य-असत्य के भेद की निरर्थकता को सिद्ध करने के लिए यह श्लोक कहा गया।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।
सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान कहते हैं - 'मैं ही सूर्य रूप में तपता हूँ, मैं ही वर्षा को रोकता हूँ और बरसाता भी हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ, तथा सत और असत भी मैं ही हूँ।' जब सब कुछ भगवान ही हैं, तो उनकी लीला में लौकिक सत्य-असत्य का भेद नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.8 श्रीमद्भगवद्गीता 15.8 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
मृत्यु के बाद आत्मा सूक्ष्म शरीर को कैसे ले जाती है, यह प्रक्रिया समझाने के लिए सद्गुरुदेव ने यह श्लोक कहा।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः। गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि वायु जैसे गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाती है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस पुराने शरीर को त्यागता है और जिस नए शरीर को प्राप्त होता है, उसमें मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके चला जाता है। यह सूक्ष्म शरीर ही बीज रूप में गुणों से आवृत रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 2.62-63 श्रीमद्भगवद्गीता 2.62-63 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
संसार में पतन का क्रम समझाने के लिए सद्गुरुदेव ने इन दो श्लोकों का उल्लेख किया।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
सद्गुरुदेव पतन की प्रक्रिया बताते हैं: विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, और कामना में बाधा पड़ने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव (संमोह) उत्पन्न होता है, संमोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7 श्रीमद्भगवद्गीता 15.7 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि जीव भगवान का ही सनातन अंश है, जो इस संसार में शरीर धारण करके दुख के सागर में गोता लगा रहा है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
जीवलोक में मेरा ही सनातन अंश जीव बन गया है, और वह मन तथा पाँचों इंद्रियों को प्रकृति में स्थित रहकर आकर्षित करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 7.4-5 श्रीमद्भगवद्गीता 7.4-5 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव प्रकृति के दो भेदों – अपरा प्रकृति और परा प्रकृति – का उल्लेख करते हुए समझाते हैं कि ये दोनों मिलकर ही सृष्टि की रचना और खेल करते हैं।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
भगवान कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो! यह मेरी अपरा प्रकृति है; इससे भिन्न मेरी परा प्रकृति को जानो, जो जीव-स्वरूपा है और जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।
श्रीमद्भागवतम् 1.2.11 श्रीमद्भागवतम् 1.2.11 पूरक संदर्भ (Siddhant) पूरक संदर्भ
सद्गुरुदेव बताते हैं कि ज्ञानमय प्रकाश (ब्रह्म), ऐश्वर्यमय प्रकाश (परमात्मा) और माधुर्यमय प्रकाश (भगवान) – ये तीनों एक ही परम सत्य के विभिन्न स्वरूप हैं, और इन तीनों के समग्र ज्ञान से ही पूर्ण भगवत्ता का अनुभव होता है।
वदन्ति तत् तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्यते॥
तत्त्ववेत्ता विद्वान् उस अद्वय ज्ञान तत्त्व को ही परम तत्त्व कहते हैं, जिसे कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् कहते हैं।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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