श्री भगवत चर्चा
22 December 2025
देह-अभिमान से चिद-अभिमान की यात्रा
गुरु कृपा से देह-अभिमान त्यागकर अपने दिव्य स्वरूप (चिद-अभिमान) को कैसे जाग्रत करें।
Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
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एक-एक पल, एक-एक क्षण, हर समय यह चिंतन करना चाहिए - मैं शरीर नहीं, शरीर संबंधी वस्तु मेरा नहीं, मैं चिन्मय दिव्य आनंदमय, मैं राधा रानी की सहचरी हूँ।
"
🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang
सुख (27)
शरीर (23)
अलग (20)
बच्चा (18)
अभिमान (17)
दिव्य (15)
📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं
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गुरुदेव आत्मा के वास्तविक स्वरूप का बोध कराते हुए कहते हैं कि तुम शरीर नहीं हो, न ही शरीर संबंधी वस्तुएँ तुम्हारी हैं। तुम चिन्मय, दिव्य, आनंदमय हो।
गुरुदेव आत्मा के वास्तविक स्वरूप का बोध कराते हुए कहते हैं कि तुम शरीर नहीं हो, न ही शरीर संबंधी वस्तुएँ तुम्हारी हैं। तुम चिन्मय, दिव्य, आनंदमय हो। तुम मायातीत, गुणातीत और इंद्रियातीत हो, जिसका अर्थ है कि तुम भौतिक इंद्रियों की पहुँच से परे हो। तुम्हारा स्वभाव निर्मल, सुंदर और सच्चिदानंदमय है। यह ज्ञान तुम्हें अपनी वास्तविक सत्ता का अनुभव कराता है, जो इन इंद्रियों के अनुभव से कहीं अधिक सूक्ष्म और उच्च है।
🔗 यह अवधारणा सीधे आत्मा के वास्तविक, भौतिक रहित स्वरूप को समझने से संबंधित है, जो दुख के चक्र से मुक्ति पाने का मूल शिक्षण है। 'इंद्रियातीत' (इंद्रियों से परे) होने का अर्थ है इंद्रिय भोग और भौतिक शरीर से पहचान से मुक्ति, जो आध्यात्मिक अनुभूति में एक मौलिक कदम है।
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गुरु कृपा: नित्य संबंध की स्थापना
गुरु कृपा द्वारा भगवान से नित्य प्रेममय संबंध का बोध
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गुरु कृपा केवल कोई बाहरी वस्तु नहीं, बल्कि एक शक्ति है जो हमारे भीतर सोई हुई चेतन सत्ता को जगाती है। सद्गुरुदेव जीव का भगवान से जो नित्य, प्रेममय और अखंड संबंध है, उसका बोध कराते हैं। यह संबंध कोई बनावटी नहीं, बल्कि हमारा सनातन सत्य है।
सद्गुरुदेव समझाते हैं कि गुरु कृपा का अर्थ है गुरु की वह शक्ति जो हमारे अंदर सोई हुई आध्यात्मिक चेतना को जगा देती है। जब हम शरीर और संसार में भ्रमित रहते हैं, तो गुरुदेव हमें बोध कराते हैं कि हम शरीर नहीं, बल्कि दिव्य आत्मा हैं। इस कृपा से ही हमें भगवान से अपने नित्य, सत्य, सनातन, प्रेममय और अखंड संबंध का ज्ञान होता है। यह संबंध बनाया नहीं जाता, यह तो पहले से ही है, केवल अज्ञान के कारण हम इसे भूले हुए हैं। गुरु कृपा इसी भूले हुए संबंध को पुनः स्मरण करा देती है।
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विभिन्न लोकों में सुख (आनंद) की तुलना
विभिन्न लोकों के सुख (आनंद) की उत्तरोत्तर वृद्धि और राधा-कृष्ण माधुर्य की अद्वितीयता
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पृथ्वी के एक आदर्श जीवन के सुख को 100 गुना करने पर स्वर्गलोक का सुख मिलता है। इसी तरह महरलोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक और वैकुंठलोक के सुख (आनंद) की उत्तरोत्तर तुलना की गई है, जहाँ प्रत्येक लोक का सुख पिछले से 100 गुना अधिक है। राधा-कृष्ण के मधुर रस का आनंद इन सभी से अतुलनीय बताया गया है।
सद्गुरुदेव पृथ्वी पर एक आदर्श काल्पनिक जीवन (नवयुवा, निरोगी, सर्वगुण संपन्न राजा का) के सुख का वर्णन करते हैं। इस सुख को यदि 100 गुना किया जाए, तो वह स्वर्गलोक का सुख कहलाता है। इसी क्रम में, स्वर्गलोक के सुख को 100 गुना करने पर महरलोक, उससे १०० गुना ज्यादा जनलोक का सुख, उसे 100 गुना करने पर तपलोक का सुख, उसे 100 गुना करने पर सत्यलोक का सुख, और उसे 100 गुना करने पर बैकुंठलोक का सुख प्राप्त होता है। हालांकि, राधा-कृष्ण के युगल चरण विलास माधुर्य और उनके निवृत्त निकुंज में आस्वादन किए जाने वाले रस का आनंद इतना अतुलनीय है कि वर्णित सभी सुखों का एक कण भी उसके साथ तुलना नहीं कर सकता।
🔗 यह रूपक भौतिक और आध्यात्मिक सुख के बीच के विशाल अंतर को दर्शाता है, जो भगवद् प्रेम के सर्वोच्च और अतुलनीय आनंद पर जोर देता है। यह श्रोता को सांसारिक और स्वर्गीय सुखों से परे जाकर दिव्य प्रेम को अपना लक्ष्य बनाने के लिए प्रेरित करता है, जिससे आत्मा की शाश्वत प्रकृति का बोध होता है।
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बिना प्रयास के भक्ति संभव नहीं
कर्म रहित आध्यात्मिक प्राप्ति की निरर्थकता
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सदगुरुदेव समझाते हैं कि हम सर्वोच्च दिव्य आनंद तो पाना चाहते हैं, परन्तु उसके लिए कोई तपस्या, त्याग या कष्ट स्वीकार नहीं करना चाहते। हम चाहते हैं कि यह हमें सरलता से, बिना किसी परिश्रम के मिल जाए। परन्तु सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि ऐसा संभव नहीं है।
सद्गुरुदेव हमें एक आम भ्रांति से सावधान करते हैं। कई लोग उस परम दिव्य आनंद को तो पाना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए कोई मूल्य चुकाने को तैयार नहीं होते। वे चाहते हैं कि बिना कोई तपस्या, परित्याग, दुःख या कष्ट सहे, सब कुछ सरलता से मिल जाए। सद्गुरुदेव कहते हैं कि 'ऐसा थोड़ी होता है'। आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति के लिए वैराग्य, भजन, और गुरु-आज्ञा पालन रूपी परिश्रम अनिवार्य है।
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देह और जगत् का 'आगंतुक' स्वरूप
नित्य और अनित्य का विवेक: आगंतुक और सनातन का भेद
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सद्गुरुदेव हमें सचेत करते हैं कि यह शरीर और संसार की सभी वस्तुएं 'आगंतुक' हैं, अर्थात मेहमान की तरह हैं। ये पहले नहीं थीं और भविष्य में भी नहीं रहेंगी। केवल हम, यानी आत्मा, नित्य, सत्य और सनातन हैं।
सद्गुरुदेव एक महत्वपूर्ण विवेक प्रदान करते हैं कि हमें नित्य और अनित्य में भेद करना सीखना चाहिए। यह शरीर, यह घर, परिवार और यह दृश्यमान जगत - ये सब आगंतुक हैं। आगंतुक का अर्थ है जो आया है और चला जाएगा। ये पहले नहीं थे और एक दिन नहीं रहेंगे। इनके विपरीत, हमारा वास्तविक स्वरूप - आत्मा - नित्य, सत्य, सनातन, शुद्ध और दिव्य है। इस आगंतुक शरीर में आत्म-बुद्धि करना ही सारे दुःखों का मूल कारण है।
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कथा: डाकुओं द्वारा पालित राजकुमार
कथा: अपने स्वरूप को भूले हुए राजकुमार का उद्धार
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सद्गुरुदेव एक राजकुमार की मार्मिक कथा सुनाते हैं, जिसे बचपन में डाकू उठा ले जाते हैं। डाकुओं के बीच पलकर वह स्वयं को उन्हीं में से एक समझने लगता है और अपने राज वंशीय स्वरूप को पूरी तरह भूल जाता है।कई वर्षों बाद एक साधु उसे मिलते हैं और उसे शीशा दिखाकर उसके और डाकुओं के स्वरूप का अंतर बताते हैं। वे उसे बार-बार स्मरण कराते हैं कि 'तुम राजकुमार हो'। प्रारम्भ में वह विश्वास नहीं करता, पर साधु के शब्द उसके मन में बीज की तरह पड़ जाते हैं। धीरे-धीरे उसे डाकुओं के जीवन से विरक्ति होती है और अपने वास्तविक घर जाने की तीव्र व्याकुलता उत्पन्न होती है। अंत में, साधु उसे उसके पिता राजा से मिला देते हैं।
सद्गुरुदेव एक प्रेरणादायक कथा के माध्यम से जीव की स्थिति दर्शाते हैं। एक राजकुमार बचपन में खोकर डाकुओं के गिरोह में पहुंच जाता है और उन्हीं के हिंसक संस्कारों में पलने लगता है। वह अपने वास्तविक राजसी स्वरूप को भूलकर स्वयं को एक डाकू ही मानने लगता है। कई वर्षों बाद एक साधु उसे मिलते हैं और उसे शीशा दिखाकर उसके और डाकुओं के स्वरूप का अंतर बताते हैं। वे उसे बार-बार स्मरण कराते हैं कि 'तुम राजकुमार हो'। प्रारम्भ में वह विश्वास नहीं करता, पर साधु के शब्द उसके मन में बीज की तरह पड़ जाते हैं। धीरे-धीरे उसे डाकुओं के जीवन से विरक्ति होती है और अपने वास्तविक घर जाने की तीव्र व्याकुलता उत्पन्न होती है। अंत में, साधु उसे उसके पिता राजा से मिला देते हैं।
🔗 यह कथा बताती है कि जैसे राजकुमार अपने स्वरूप को भूला था, वैसे ही जीव माया के संग में रहकर अपने दिव्य, आनंदमय स्वरूप को भूल गया है और गुरु कृपा से ही उसे पुनः स्वरूप बोध होता है।
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तीव्र वैराग्य: प्रभु दर्शन की शर्त
तीव्र वैराग्य और व्याकुलता ही प्रभु दर्शन का मार्ग है
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सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान का दर्शन कब होता है। जैसे की राजकुमार की कहानी में हमने देखा वैसे जब साधक के मन में संसार से तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वह प्रभु के लिए इतना व्याकुल हो जाता है कि उनके बिना जीवन असंभव लगे, तब ठाकुर कृपा करके दर्शन देते हैं।
सद्गुरुदेव भगवद्-दर्शन की पात्रता का रहस्य बताते हैं। भगवान तभी दर्शन देते हैं जब साधक के हृदय में दृश्य जगत के समस्त वस्तु-पदार्थों से तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। यह वैराग्य इतना तीव्र होना चाहिए कि साधक को प्रभु के बिना एक क्षण भी जीना असहनीय लगे। जब वह पूर्ण व्याकुलता से पुकारता है, 'हे प्रभु, या तो मुझे ले चलो, या मैं प्राण त्याग दूँगा', ऐसी चरम स्थिति में ही भगवान अपनी कृपा बरसाते हैं और भक्त को दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं।
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चिद-अभिमान की साधना
साधना का मूल: जड़-अभिमान का त्याग और चिद-अभिमान की वृद्धि
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सद्गुरुदेव समझाते हैं कि साधना का सार 'चिद-अभिमान' को दृढ़ करना है। इसका अर्थ है, निरंतर यह भाव रखना कि 'मैं यह शरीर नहीं, बल्कि श्री राधा रानी की नित्य सहचरी हूँ'। यही अभिमान हमें अपने दिव्य स्वरूप में स्थित कराता है।
सद्गुरुदेव भजन का रहस्य उजागर करते हुए कहते हैं कि वास्तविक उन्नति क्रियाओं से अधिक अभिमान के परिवर्तन में है। 'मैं शरीर हूँ' - यह जड़-अभिमान ही समस्त बंधनों का कारण है। इसके विपरीत, 'मैं शरीर नहीं, मैं चिन्मय, दिव्य, आनंदमय, श्री राधा रानी की सहचरी हूँ' - यह चिद-अभिमान है। इस दिव्य अहंकार का निरंतर चिंतन करते रहने से धीरे-धीरे भौतिक चेतना क्षीण होती जाती है और आध्यात्मिक स्वरूप जाग्रत हो जाता है। यह चिंतन केवल भजन के समय नहीं, अपितु हर पल, हर क्षण करना चाहिए।
🔗 यह शिक्षा सत्संग के मुख्य विषय को स्पष्ट करती है कि कैसे देह के अभिमान को छोड़कर आत्मा के दिव्य अभिमान को धारण करने से ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
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साधना: क्रियात्मक नहीं, भावनात्मक
भजन का वास्तविक स्वरूप: क्रिया नहीं, भावना प्रधान
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सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि सच्ची साधना केवल बाहरी क्रिया-कलाप जैसे माला जपना या पूजा करना नहीं है। साधना का प्राण है 'भावना', अर्थात अपने मन और चेतना को निरंतर दिव्य भाव में स्थिर रखने का प्रयास।
सद्गुरुदेव हमें भजन की गहराई को समझाते हैं। वे कहते हैं कि नाम-जप, पूजा, परिक्रमा आदि क्रियाएँ भजन का अनुशीलन हैं, स्वयं भजन नहीं। वास्तविक भजन 'भावात्मक' होता है। हमें अपनी भावना में परिवर्तन लाना है, अपने मन को निरंतर शुद्ध गठन देना है। यदि हम केवल संख्या पूरी करने के लिए माला जपते हैं या जल्दबाजी में पूजा समाप्त करते हैं, तो वह एक झंझट जैसा हो जाता है। सच्ची साधना हर क्षण यह सजगता है कि कोई भी बाहरी परिस्थिति या भीतरी विकार हमारी आंतरिक भगवदीय भावना को प्रभावित न कर पाए।
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साधना का स्वरूप: निरंतर चिंतन
साधना का वास्तविक स्वरूप: एक अनवरत मानसिक प्रक्रिया
▶ देखें (22:29)
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सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि साधना केवल कुछ निर्दिष्ट समय के लिए नहीं है। यह हर पल, हर क्षण अपने दिव्य स्वरूप का चिंतन करने की एक सतत प्रक्रिया है।
सदगुरुदेव हमारी एक आम भूल को सुधारते हैं कि साधना केवल भजन या पूजा के निर्धारित समय तक ही सीमित है। वे बल देकर कहते हैं कि वास्तविक साधना हर पल, हर क्षण चलने वाली एक मानसिक प्रक्रिया है। 'मैं शरीर नहीं, मैं श्री राधा रानी का हूँ' - इस चिद अभिमान का चिंतन निरंतर, हर कार्य करते हुए चलना चाहिए। भजन कम हो तो भी चलेगा, लेकिन यह अभिमान, यह भावना हर समय बनी रहनी चाहिए।
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काम क्रोध आदि से हृदय रूपी किले की सुरक्षा
सावधान! काम क्रोध आदि बाहरी परिस्थितियाँ हृदय को प्रभावित न करें
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बाहरी परिस्थितियाँ, जैसे किसी का अपमान या कटु शब्द, आपके हृदय को प्रभावित नहीं करनी चाहिए। अपने हृदय में अपने इष्ट को स्थापित करें और बाहरी वातावरण से अप्रभावित रहें।
सदगुरुदेव साधक को एक महत्वपूर्ण सावधानी बताते हैं। किसी के कटु शब्द कहने या अपमान करने पर हमें विकारग्रस्त नहीं होना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि यह शब्द हमारे हृदय को क्यों प्रभावित करें? हमारे हृदय में तो हमारे युगल किशोर विराजते हैं। 'यहाँ मैं हूँ और मेरे इष्ट हैं' - इस भावना से हृदय को एक अभेद्य किला बना लेना चाहिए, जहाँ दुनिया का कोई भी वातावरण या परिस्थिति प्रवेश न कर सके।
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दृष्टांत: सर्प और केंचुली
दृष्टांत: स्वरूप प्राप्ति और सर्प द्वारा केंचुली का त्याग
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सद्गुरुदेव स्वरूप सिद्धि की प्रक्रिया को एक सुंदर दृष्टांत से समझाते हैं। जैसे एक सर्प अपनी पुरानी केंचुली को सहजता से त्याग देता है और आगे बढ़ जाता है, उसी प्रकार साधक जब अपने दिव्य चिन्मय स्वरूप में स्थित हो जाता है तो जड़ीय अभिमान और सूक्ष्म शरीर ऐसे ही छूट जाता है।
सद्गुरुदेव स्वरूप सिद्धि की प्रक्रिया को एक सुंदर दृष्टांत से समझाते हैं। जिस प्रकार एक सर्प समय आने पर अपनी पुरानी, अनुपयोगी केंचुली को बिना किसी प्रयास के स्वाभाविक रूप से छोड़ देता है, ठीक उसी प्रकार जब साधक का चिद अभिमान परिपक्व हो जाता है, तो यह भौतिक शरीर और इससे जुड़ा सूक्ष्म शरीर रूपी आवरण एक केंचुली की भांति स्वतः ही अलग हो जाता है। साधक अपने शुद्ध, दिव्य चिन्मय स्वरूप में प्रकाशित हो जाता है और भगवद्धाम को प्राप्त करता है।
🔗 यह दृष्टांत समझाता है कि चिद अहंकार की साधना से भौतिक शरीर का बंधन कैसे सहज रूप से छूट जाता है।
✨ विशेष उल्लेख
📋 आनंद की श्रेणियाँ: उत्तरोत्तर सुख का क्रम
▶ 3:06
▶ देखें (3:06)
- पृथ्वी का चक्रवर्ती राजा का सुख
- स्वर्गलोक का सुख (पृथ्वी से 100 गुना अधिक)
- महर्लोक का सुख (स्वर्ग से 100 गुना अधिक)
- जनलोक का सुख (महर्लोक से 100 गुना अधिक)
- तपोलोक का सुख (जनलोक से 100 गुना अधिक)
- सत्यलोक का सुख (तपोलोक से 100 गुना अधिक)
- बैकुंठ लोक का सुख (सत्यलोक से 100 गुना अधिक)
- श्री राधा-कृष्ण का निकुंज रस (इन सब सुखों से अतुलनीय और अनंत)
📋 प्रकृति जनित १८ दोष
▶ 25:12
▶ देखें (25:12)
- 1) मोह, 2) तंद्रा
- 3) भ्रम, 4) रुख-रस
- 5) परिश्रम, 6) असत
- 7) क्रोध, 8) आकांक्षा
- 9) आशंका, 10) विष
- 11) विभ्रम, 12) उल्लंघन
- 13) काम, 14) वैमनस्य
- 15) लोलता, 16) मद
- 17) मात्सर्य-हिंसा, 18) खेद-उपेक्षा
🪔 चिद-अभिमान (दिव्य अहंकार)
मैं शरीर नहीं, मैं दिव्य, आनंदमय, नित्य, शुद्ध आत्मा हूँ। मैं श्री राधा रानी की सहचरी हूँ।
बनाम
🧱 जड़-अभिमान (भौतिक अहंकार)
मैं यह शरीर हूँ। यह घर, परिवार, धन-दौलत और संसार की सभी वस्तुएं मेरी हैं और इनमें ही सुख है।
⚙️ क्रियात्मक भजन
माला की संख्या पूरी करना, पूजा-पाठ का अनुष्ठान समाप्त करना। इसे एक कर्तव्य या बोझ समझना।
बनाम
💖 भावनात्मक भजन
निरंतर अपनी चेतना को बदलना, हर पल अपने दिव्य स्वरूप का चिंतन करना, हृदय को शुद्ध रखना।
जिज्ञासा (Q&A)
प्रश्न: साधना का अभ्यास केवल भजन के समय ही करना चाहिए या हर समय?
▶ देखें (22:29)
▶ देखें (22:29)
उत्तर: साधना केवल एक निर्दिष्ट समय के लिए नहीं है। यह हर पल, हर क्षण, निरंतर चलने वाली एक चिंतन प्रक्रिया है, जिसमें अपने दिव्य स्वरूप का स्मरण बना रहे।
उत्तर: सद्गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि साधना केवल सुबह-शाम के भजन तक सीमित है। वास्तविक साधना तो एक अनवरत प्रक्रिया है। हमें दिन के प्रत्येक क्षण, हर कार्य करते हुए यह चिंतन, यह अभिमान बनाए रखना चाहिए कि 'मैं यह शरीर नहीं, मैं चिन्मय, दिव्य, आनंदमय, श्री राधा रानी की सहचरी हूँ'। यह निरंतर अभ्यास ही हमारे जड़ अभिमान को धीरे-धीरे नष्ट करेगा।
प्रश्न: बाहरी दुनिया के अपमान या कठोर शब्दों से अपने मन को कैसे प्रभावित होने से बचाएं?
▶ देखें (26:16)
▶ देखें (26:16)
उत्तर: यह भावना रखकर कि हमारे हृदय में हमारे इष्ट श्री युगल किशोर विराजमान हैं और यह उनका धाम है। बाहरी कोई भी परिस्थिति या वातावरण इस पवित्र स्थान को प्रभावित नहीं कर सकता।
उत्तर: सद्गुरुदेव एक बहुत ही व्यावहारिक साधना बताते हैं। जब कोई कठोर शब्द कहे या अपमानजनक परिस्थिति उत्पन्न हो, तो साधक को तुरंत सचेत हो जाना चाहिए। उसे यह विचार करना चाहिए कि यह बाहरी शब्द मेरे हृदय को क्यों प्रभावित करें? मेरा हृदय तो मेरे इष्ट का निवास स्थान है। यहाँ मैं और मेरे इष्ट हैं, दुनिया का कोई मेला या प्रभाव यहाँ प्रवेश नहीं कर सकता। 'यहाँ मैं हूँ, मेरे इष्ट हैं, बस' - यह भावना हमें बाहरी प्रभावों से अछूता रखती है।
प्रश्न: सांसारिक सुख और भगवदीय आनंद में क्या अंतर है?
▶ देखें (1:32)
▶ देखें (1:32)
उत्तर: सांसारिक सुख की एक सीमा है, जबकि भगवदीय आनंद असीम और अतुलनीय है। सद्गुरुदेव बताते हैं कि करोड़ों स्वर्ग और बैकुंठ का सुख भी श्री राधा-कृष्ण के निकुंज रस के एक कण के बराबर नहीं है।
उत्तर: सद्गुरुदेव एक गणना के माध्यम से समझाते हैं कि यदि हम पृथ्वी के सबसे सुखी मनुष्य की कल्पना करें, तो उसका सुख स्वर्ग के सुख के सामने नगण्य है। स्वर्ग से करोड़ों गुना सुख सत्यलोक और बैकुंठ में है। परन्तु, यह सब गणना करने के बाद भी, श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रदत्त श्री राधा-कृष्ण की युगल माधुरी का जो आनंद है, उसकी तुलना में बैकुंठ का सुख भी एक कण मात्र भी नहीं है। वह आनंद अकल्पनीय, असीम और परम है।
✅ करें (Do's)
- निरंतर चिंतन करें कि 'मैं शरीर नहीं, मैं भगवान का दिव्य अंश हूँ'।
- अपने चिद-अभिमान को दृढ़ करें कि 'मैं श्री राधा रानी का हूँ, वे मेरी हैं'।
- साधना को केवल क्रिया नहीं, बल्कि हर क्षण की भावनात्मक सजगता बनाएं।
- संसार और शरीर को 'आगंतुक' (अतिथि) समझकर इससे अनासक्त रहने का प्रयास करें।
❌ न करें (Don'ts)
- स्वयं को यह नश्वर शरीर और सांसारिक वस्तुओं को अपना न मानें।
- काम, क्रोध, लोभ जैसे विकारों को अपनी आंतरिक शांति और भगवदीय भावना पर हावी न होने दें।
- भजन या पूजा को एक बोझ या झंझट समझकर जल्दबाजी में पूरा न करें।
- बिना तपस्या, त्याग और प्रयास के आध्यात्मिक उन्नति की अपेक्षा न करें।
शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)
इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
Bhagvad Gita 6.6
Bhagvad Gita 6.6
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक यह स्थापित करने के लिए उद्धृत किया गया है कि समस्त सृष्टि, जिसमें जीवों का प्राकट्य भी शामिल है, का मूल कारण भगवान गोविंद ही हैं।
बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्
bandhur ātmātmanas tasya yenātmaivātmanā jitaḥ
anātmanas tu śhatrutve vartetātmaiva śhatru-vat॥
जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
स्पष्टीकरण (Clarification)
यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।
देह-अभिमान से चिद-अभिमान की यात्रा, गुरु कृपा से देह-अभिमान त्यागकर अपने दिव्य स्वरूप (चिद-अभिमान) को कैसे जाग्रत करें।
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