[Study Guide : Dec 23, 2025] श्रील जीव गोस्वामी का जीवन चरित्र | About Srila Jiva Goswami

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श्री भगवत चर्चा
23 December 2025

श्रील जीव गोस्वामी का जीवन चरित्र और वैष्णव मर्यादा

सद्गुरुदेव श्रील जीव गोस्वामी पाद के जीवन से वैष्णव धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांत, जैसे गुरु-मर्यादा, क्षमा और निरभिमानता की शिक्षा देते हैं।

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" मन के द्वारा सबको प्रणाम करो क्योंकि सब में भगवान है, भगवान सब में विराजमान है। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

गोस्वामी (71) जीव (51) विद्वान (28) राधा (27) भाई (27) महाप्रभु (24) तत्व (23)

📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं

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विषय का मंगलाचरण: श्री जीव गोस्वामी की पुण्यतिथि
सत्संग का प्रयोजन: श्री जीव गोस्वामी पाद के गुणानुवाद से वाणी को पवित्र करना
▶ देखें (0:55) ▶ Watch (0:55)
सद्गुरुदेव सत्संग का आरंभ करते हुए बताते हैं कि आज का मुख्य विषय 'जीव तत्व' से परिवर्तित होकर श्री जीव गोस्वामी पाद की शुभ तिरोभाव तिथि पर केंद्रित है। आज गौड़ीय वैष्णव समाज के मुकुटमणि, श्री चैतन्य महाप्रभु के धर्म प्रचारक, श्री जीव गोस्वामी पाद की शुभ तिरोभाव तिथि है। इस पवित्र अवसर पर, अपनी वाणी को सार्थक एवं पवित्र करने के उद्देश्य से, सद्गुरुदेव उनके अद्भुत गुणों और जीवन चरित्र का कीर्तन करने का निश्चय करते हैं। सद्गुरुदेव सत्संग के आरंभ में स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि हमारा नियमित विषय 'जीव तत्व' पर चल रहा है, किन्तु आज का दिन अत्यंत मंगलमय है। आज गौड़ीय वैष्णव समाज के मुकुटमणि, श्री चैतन्य महाप्रभु के धर्म प्रचारक, श्री जीव गोस्वामी पाद की शुभ तिरोभाव तिथि है। इस पवित्र अवसर पर, अपनी वाणी को सार्थक एवं पवित्र करने के उद्देश्य से, सद्गुरुदेव उनके अद्भुत गुणों और जीवन चरित्र का कीर्तन करने का निश्चय करते हैं।
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महाप्रभु का अभूतपूर्व दान
महाप्रभु का अनर्पित दान: भावोल्लास रति
▶ देखें (3:30) ▶ Watch (3:30)
सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान युग-युग में जीवों का कल्याण करने आते हैं, श्रीमद्भागवत सहित पद्म, ब्रह्मवैवर्त और विष्णु पुराण जैसे ग्रंथों में भी दिव्य प्रेम का विशेष उल्लेख मिलता है। परंतु इस कलियुग में श्री चैतन्य महाप्रभु एक ऐसा अनूठा उपहार लेकर आए जो पहले कभी नहीं दिया गया था। इसे शास्त्रों में 'अनर्पित-चरीं चिरात्' कहा गया है। यह उपहार है 'उन्नत उज्ज्वल रस', जिसे 'भावोल्लास रति' भी कहते हैं। यह प्रेम की वह सर्वोच्च अवस्था है जिसमें साधक श्री राधा रानी के भाव से भावित होकर युगल किशोर की सेवा का सुख अनुभव करता है, जो स्वयं श्री राधा रानी के सुख से भी सैकड़ों गुना अधिक होता है। सद्गुरुदेव बताते हैं कि भगवान युग-युग में जीवों का कल्याण करने आते हैं, श्रीमद्भागवत सहित पद्म, ब्रह्मवैवर्त और विष्णु पुराण जैसे ग्रंथों में भी दिव्य प्रेम का विशेष उल्लेख मिलता है। परंतु इस कलियुग में श्री चैतन्य महाप्रभु एक ऐसा अनूठा उपहार लेकर आए जो पहले कभी नहीं दिया गया था। इसे शास्त्रों में 'अनर्पित-चरीं चिरात्' कहा गया है। यह उपहार है 'उन्नत उज्ज्वल रस', जिसे 'भावोल्लास रति' भी कहते हैं। यह प्रेम की वह सर्वोच्च अवस्था है जिसमें साधक श्री राधा रानी के भाव से भावित होकर युगल किशोर की सेवा का सुख अनुभव करता है, जो स्वयं श्री राधा रानी के सुख से भी सैकड़ों गुना अधिक होता है।
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अष्ट गोस्वामी : प्राण सखी (अष्ट प्रधान मंजरी)
अष्ट गोस्वामी : प्राण सखी (अष्ट प्रधान मंजरी)
▶ देखें (10:57) ▶ Watch (10:57)
श्री महाप्रभु की गौर लीला में जो अष्ट गोस्वामी है वो सब प्राण सखी (अष्ट प्रधान मंजरी) है और इस जगत में कुछ न कुछ भजन सम्बंधित शिक्षा (त्याग, आचरण , प्रेम रस, तितिक्षा आदि ) जगत कल्याण हेतु देने के लिए पधारे है। श्री महाप्रभु की गौर लीला में जो अष्ट गोस्वामी है वो सब प्राण सखी (अष्ट प्रधान मंजरी) है और इस जगत में कुछ न कुछ भजन सम्बंधित शिक्षा (त्याग, आचरण , प्रेम रस, तितिक्षा आदि ) जगत कल्याण हेतु देने के लिए पधारे है।
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साधारण जीव और अवतार कोटि महापुरुष में मुग्धता का भेद ा
साधारण जीव और अवतार कोटि महापुरुष में मुग्धता का भेद
▶ देखें (2:04) ▶ Watch (2:04)
सामान्य जीव माया द्वारा मुग्ध होते हैं, जिससे हम संसार चक्र में फँसे रहते हैं। अवतार कोटि के महापुरुष अपनी लीला प्रकट करने के लिए स्वयं मुग्धता को स्वीकार करते हैं सामान्य जीव माया द्वारा मुग्ध होते हैं, जिससे हम संसार चक्र में फँसे रहते हैं। अवतार कोटि के महापुरुष अपनी लीला प्रकट करने के लिए स्वयं मुग्धता को स्वीकार करते हैंअवतार कोटि के महापुरुष अपनी लीला प्रकट करने और जीवों को शिक्षा देने के लिए जानबूझकर मुग्धता का वेश धारण करते हैं। वे प्राकृत मनुष्य की तरह दिखते हैं, परंतु वास्तव में माया के अधीन नहीं होते; यह उनकी लीला का एक हिस्सा होता है ताकि जीव उनके आचरण से सीख सकें और भगवत प्राप्ति की प्रेरणा पा सकें।
जीव गोस्वामी का कृष्ण प्रेम
जीव गोस्वामी का कृष्ण प्रेम और उनकी बाल्यावस्था
▶ देखें (2:20) ▶ Watch (2:20)
श्रील जीव गोस्वामी बचपन से ही श्रीकृष्ण भक्ति में इतने लीन थे कि वे हमेशा श्रीकृष्ण लीलाओं का चिंतन करते, उनसे जुड़े खेल खेलते, श्रीकृष्ण की मूर्तियाँ बनाते और श्रीकृष्ण लीलाओं का गायन करते थे। उनके माता-पिता यह देखकर समझ गए थे कि वे घर में सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे, क्योंकि उनका चित्त दिव्य प्रेम में डूबा रहता था। श्रील जीव गोस्वामी ने १६ वर्ष की उम्र में महाप्रभु से मिलने के लिए गृह त्याग किया और नवद्वीप गये। वहां श्री नित्यानंद प्रभु से प्रेरणा पाकर काशी वेदांत अध्ययन करने के लिए और उधर से वृन्दावन आये। श्रील जीव गोस्वामी बचपन से ही श्रीकृष्ण भक्ति में इतने लीन थे कि वे हमेशा श्रीकृष्ण लीलाओं का चिंतन करते, उनसे जुड़े खेल खेलते, कृष्ण की मूर्तियाँ बनाते और कृष्ण लीलाओं का गायन करते थे। उनके माता-पिता यह देखकर समझ गए थे कि वे घर में सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे, क्योंकि उनका चित्त दिव्य प्रेम में डूबा रहता था। श्रील जीव गोस्वामी ने १६ वर्ष की उम्र में महाप्रभु से मिलने के लिए गृह त्याग किया और नवद्वीप गये। वहां श्री नित्यानंद प्रभु से प्रेरणा पाकर काशी वेदांत अध्ययन करने के लिए और उधर से वृन्दावन आये।
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श्री जीव गोस्वामी की अद्भुत विद्वत्ता
श्री जीव गोस्वामी: ज्ञान और भक्ति के शिखर
▶ देखें (11:31) ▶ Watch (11:31)
सद्गुरुदेव श्री जीव गोस्वामी पाद के अतुलनीय पांडित्य का वर्णन करते हैं। वे आयु में सबसे छोटे होने पर भी सभी गोस्वामियों में सबसे अधिक विद्वान थे। किसी भी शास्त्रीय सिद्धांत पर संशय होने पर सभी वरिष्ठ गोस्वामी उन्हीं से समाधान पूछते थे। सद्गुरुदेव श्री जीव गोस्वामी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि वे गौड़ीय वैष्णव समाज के मुकुटमणि थे। यद्यपि वे आयु में सबसे छोटे थे, उनकी विद्वत्ता अद्वितीय थी। जब भी श्री रूप गोस्वामी और श्री सनातन गोस्वामी जैसे वरिष्ठ संतों को किसी जटिल दार्शनिक सिद्धांत पर कोई कठिनाई होती, तो वे कहते, 'जीव को बुलाओ'। श्री जीव गोस्वामी तुरंत उस सिद्धांत का ऐसा सटीक निरूपण करते कि सभी का संशय दूर हो जाता। सद्गुरुदेव कहते हैं कि उनके जैसा विद्वान न अतीत में हुआ और न भविष्य में होगा।
🔗 यह प्रसंग आज के मुख्य विषय, श्री जीव गोस्वामी के जीवन चरित्र का आधार है।
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गुरु-गौरव की रक्षा
श्री वल्लभाचार्य के समक्ष गुरु-मर्यादा की रक्षा
▶ देखें (24:50) ▶ Watch (24:50)
एक बार महान विद्वान श्री वल्लभाचार्य जी श्री रूप गोस्वामी से मिलने आए और उनके ग्रंथ 'भक्ति रसामृत सिंधु' के मंगलाचरण में एक छोटी-सी भूल बताई। श्री रूप गोस्वामी ने विनम्रता से इसे स्वीकार कर लिया। परंतु जब श्री जीव गोस्वामी को यह पता चला, तो उन्होंने अपने गुरु के गौरव की रक्षा के लिए श्री वल्लभाचार्य जी से भेंट की। उन्होंने अत्यंत विनम्र शब्दों में, अपने तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया कि उनके गुरुदेव द्वारा लिखा गया श्लोक हर दृष्टि से सही और सिद्धांत के अनुकूल है। उनकी विद्वत्ता और तर्क-शैली देखकर श्री वल्लभाचार्य चकित रह गए और अपनी भूल स्वीकार कर ली। एक बार महान विद्वान श्री वल्लभाचार्य जी श्री रूप गोस्वामी से मिलने आए और उनके ग्रंथ 'भक्ति रसामृत सिंधु' के मंगलाचरण में एक छोटी-सी भूल बताई। श्री रूप गोस्वामी ने विनम्रता से इसे स्वीकार कर लिया। परंतु जब श्री जीव गोस्वामी को यह पता चला, तो उन्होंने अपने गुरु के गौरव की रक्षा के लिए श्री वल्लभाचार्य जी से भेंट की। उन्होंने अत्यंत विनम्र शब्दों में, अपने तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया कि उनके गुरुदेव द्वारा लिखा गया श्लोक हर दृष्टि से सही और सिद्धांत के अनुकूल है। उनकी विद्वत्ता और तर्क-शैली देखकर श्री वल्लभाचार्य चकित रह गए और अपनी भूल स्वीकार कर ली।
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गुरु का कठोर शासन: वैष्णव मर्यादा का पाठ
महत-अपराध का दंड: श्री रूप गोस्वामी का कठोर निर्णय
▶ देखें (34:26) ▶ Watch (34:26)
श्री वल्लभाचार्य जी के जाने के बाद, श्री रूप गोस्वामी ने श्री जीव गोस्वामी को एक महत पुरुष का अपमान करने के अपराध में त्याग दिया। उन्होंने कहा, 'तुम्हारी विद्वत्ता तुम्हारा विनाश बन गई है, आज से मुझे अपना मुख मत दिखाना।' यह वैष्णव मर्यादा के महत्व को दर्शाता है। सत्संग में एक दिग्विजयी पंडित का प्रसंग भी वर्णित किया गया जिसमे भी इसी तरह की लीला और शिक्षा का वर्णन है जब श्री वल्लभाचार्य जी ने श्री रूप गोस्वामी से श्री जीव की प्रशंसा की, तो श्री रूप गोस्वामी अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने श्री जीव को बुलाकर कहा, 'हम जिसको गुरु-तुल्य सम्मान देते हैं, तुमने उनकी मर्यादा का उल्लंघन किया! तुम्हारी यह विद्वत्ता तुम्हारा अहंकार बन गई है और यह तुम्हारे विनाश का कारण बनेगी। आज से तुम हमारे शिष्य नहीं और हम तुम्हारे गुरु नहीं। यहां से निकल जाओ और हमें कभी अपना मुख मत दिखाना।' श्री रूप गोस्वामी ने सिखाया कि एक वैष्णव के लिए विद्वत्ता से बढ़कर महत-पुरुषों की मर्यादा का रक्षण करना है। सत्संग में एक दिग्विजयी पंडित का प्रसंग भी वर्णित किया गया जिसमे भी इसी तरह की लीला और शिक्षा का वर्णन है
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वैष्णवता का मूल: सबका सम्मान
वैष्णव धर्म का आधार: सर्व-जीव सम्मान
▶ देखें (26:25) ▶ Watch (26:25)
सद्गुरुदेव वैष्णव शास्त्र का सार बताते हैं कि मन के द्वारा प्रत्येक प्राणी को प्रणाम और सम्मान करना चाहिए, क्योंकि हर जीव में स्वयं भगवान विराजमान हैं। दूसरों में दोष देखना भक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। सद्गुरुदेव समझाते हैं कि वैष्णव धर्म की शुरुआत ही इस मानसिकता से होती है कि प्रत्येक जीव सम्मान के योग्य है। वैष्णव शास्त्र कहते हैं कि हर प्राणी में भगवान अंश रूप में स्थित हैं, इसलिए मन से सभी को प्रणाम करना चाहिए। यदि हमारे मन में यह विचार आ जाए कि 'यह ठीक नहीं है, वो भजन नहीं करता, उसमें यह दोष है', तो हमारी आध्यात्मिक प्रगति वहीं रुक जाती है। सच्चा वैष्णव वह है जो स्वयं को सबसे दीन-हीन मानता है और सभी में अच्छाई देखता है, चाहे सामने वाला कैसा भी क्यों न हो।
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तपस्या और क्षमा की पराकाष्ठा
विरह की अग्नि में तपस्या और क्षमा की प्राप्ति
▶ देखें (40:52) ▶ Watch (40:52)
गुरु द्वारा त्यागे जाने पर, श्री जीव गोस्वामी ने यमुना किनारे केवल मिट्टी और जल पर निर्वाह करते हुए अपने प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया। उनका शरीर कंकाल मात्र रह गया था। अंत में, श्री सनातन गोस्वामी ने उन्हें ढूंढा और श्री रूप गोस्वामी से क्षमा करवाया। गुरुदेव द्वारा त्यागे जाने के बाद श्री जीव गोस्वामी अत्यंत दुखी होकर एक अज्ञात स्थान पर चले गए। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और केवल यमुना जी की मिट्टी खाकर और जल पीकर रहने लगे। उनका उद्देश्य अपने प्राण त्याग देना था। उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया और पहचानना भी मुश्किल था। कई दिनों बाद, जब श्री सनातन गोस्वामी ने उन्हें इस दयनीय अवस्था में पाया, तो वे द्रवित हो गए। वे उन्हें लेकर श्री रूप गोस्वामी के पास गए और उन्हें समझाया कि 'क्षमा' ही संत का सबसे बड़ा गुण है। तब श्री रूप गोस्वामी ने अपनी भूल स्वीकार की और अपने प्रिय शिष्य को क्षमा करके पुनः अपना लिया।
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दृष्टांत: भक्ति का स्वप्न देखना
दृष्टांत: भक्ति का स्वप्न और यथार्थ
▶ देखें (22:45) ▶ Watch (22:45)
सद्गुरुदेव कहते हैं कि आज के साधु राजभोग खाते हैं और राधा रानी के चरण पाने का 'स्वप्न' देखते हैं। यह गोस्वामियों की कठोर तपस्या के विपरीत है, जिन्होंने माधुकरी पर जीवन बिताया। सच्ची भक्ति केवल स्वप्न देखने से नहीं, त्याग और तपस्या से मिलती है। सद्गुरुदेव आधुनिक साधुओं के आचरण पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि वे बड़ी-बड़ी मठों में राजभोग खाते हैं और फिर राधा रानी के चरण कमल की प्राप्ति का चिंतन करते हैं। सद्गुरुदेव इसे केवल एक 'स्वप्न' देखने जैसा बताते हैं। इसके विपरीत, षड् गोस्वामियों का जीवन था, जो 'माधुकरी खाओ प्रभु के गुण गाओ' के सिद्धांत पर जीते थे। वे जंगल में रहते थे और भिक्षा में मिली सूखी रोटी पर निर्वाह करते थे। यह दृष्टांत सिखाता है कि भगवत्प्राप्ति केवल मीठे सपनों या कल्पनाओं से नहीं, बल्कि वास्तविक त्याग, वैराग्य और कठोर साधना से ही संभव है।
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राधा दामोदर की सेवा और स्थापना
रूप गोस्वामी द्वारा जीव गोस्वामी को राधा दामोदर की सेवा
▶ देखें (52:39) ▶ Watch (52:39)
रूप गोस्वामी ने जीव गोस्वामी को राधा दामोदर की सेवा प्रदान की, जिससे वृंदावन में राधा दामोदर मंदिर की स्थापना हुई। रूप गोस्वामी पाद ने जीव गोस्वामी को राधा दामोदर की अंतरंग सेवा प्रदान की, जिसके परिणामस्वरूप वृंदावन में प्रसिद्ध राधा दामोदर मंदिर की स्थापना हुई।
श्रील जीव गोस्वामी का अभूतपूर्व योगदान
श्रील जीव गोस्वामी का अभूतपूर्व योगदान
▶ देखें (53:03) ▶ Watch (53:03)
श्रील जीव गोस्वामी का 'गोपाल चंपू' ग्रंथ कृष्ण के लीला तत्वों और माधुर्य विलास को समझने का एक अद्भुत स्रोत है। इसके अलावा उन्होंने षट्-सन्दर्भ : तत्त्व-सन्दर्भ, भगवत्-सन्दर्भ, परमात्म-सन्दर्भ, कृष्ण-सन्दर्भ, भक्ति-सन्दर्भ, प्रीति-सन्दर्भ और अन्य कई शास्त्र लिखे। साथ में ही उन्होंने श्रील नरोत्तम ठाकुर, श्रीनिवास आचार्य और श्री श्यामानंद प्रभु को शिक्षा प्रदान किये। इन तीनो दिग्पालों ने पूर्व भारत में गौड़ीय वैष्नव धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार किया | ी जीव गोस्वामी का 'गोपाल चंपू' ग्रंथ कृष्ण के लीला तत्वों और माधुर्य विलास को समझने का एक अद्भुत स्रोत है। इसके अलावा उन्होंने षट्-सन्दर्भ : तत्त्व-सन्दर्भ, भगवत्-सन्दर्भ, परमात्म-सन्दर्भ, कृष्ण-सन्दर्भ, भक्ति-सन्दर्भ, प्रीति-सन्दर्भ और अन्य कई शास्त्र लिखे। साथ में ही उन्होंने श्रील नरोत्तम ठाकुर, श्रीनिवास आचार्य और श्री श्यामानंद प्रभु को शिक्षा प्रदान किये। इन तीनो दिग्पालों ने पूर्व भारत में गौड़ीय वैष्नव धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार किया |
🔗 यह जीव गोस्वामी के साहित्यिक योगदान और कृष्ण के दिव्य लीलाओं की गहराई को उजागर करता है, जो गौड़ीय वैष्णव धर्म के मूल में है।

✨ विशेष उल्लेख

📋 श्री राधा रानी की पांच प्रकार की सखियाँ ▶ 8:18 ▶ देखें (8:18)
  • सखी
  • प्रिय सखी
  • प्रिय नर्म सखी (जैसे अष्ट सखी : श्री ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रङ्गदेवी, तुङ्गविद्या, सुदेवी)
  • प्राण सखी (राधा स्नेहाधिका, अष्ट प्रधान मंजरीगण)
  • नित्य सखी (राधा स्नेहाधिका)
📋 अष्ट प्रधान मंजरी ▶ 9:22 ▶ देखें (9:22)
    श्रील रूप गोस्वामी — श्री रूप मंजरी
    श्री रघुनाथ दास गोस्वामी — श्री रति मंजरी (तुलसी)
    श्री सनातन गोस्वामी — श्री लवंग मंजरी
    श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी — श्री रस मंजरी
    श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी — श्री गुण मंजरी
    श्री लोकनाथ गोस्वामी — श्री मंजुलाली मंजरी
    श्री जीव गोस्वामी — श्री विलास मंजरी
    श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी — श्री कस्तूरी मंजरी
📋 3 Brothers
  • श्रील रूप गोस्वामी (पूर्व का नाम : संतोष बंदोपाध्याय)
  • श्रील सनातन गोस्वामी (पूर्व का नाम : अमर बंदोपाध्याय)
  • श्री अनुपम बंदोपाध्याय
🌳 पूर्व के संत (उदा. षड् गोस्वामी)
उनका एकमात्र लक्ष्य भजन और भगवत्प्राप्ति था। वे माधुकरी (भिक्षा) पर निर्भर थे, मान-प्रतिष्ठा से दूर रहते थे और जंगल में एकांत वास करते थे।
बनाम
📱 वर्तमान के तथाकथित साधु
सद्गुरुदेव के अनुसार, आज कई साधुओं का लक्ष्य धन, मान-प्रतिष्ठा, बड़े आश्रम और अखबारों में फोटो छपवाना हो गया है। उनकी भावना के अनुरूप ही उन्हें प्राप्ति होती है।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: क्या शिष्य अपने गुरु को 'आप ऐसा कर लीजिए' या 'यह दवा ले लीजिए' जैसे निर्देश दे सकता है? ▶ देखें (27:28) ▶ देखें (27:28)
उत्तर: प्रियता और अपनेपन में ऐसा कहा जा सकता है, पर सामान्यतः वैष्णव मर्यादा के अनुसार ऐसा कहना उचित नहीं। शिष्य को अपना विचार विनम्रता से रखकर निर्णय गुरु पर छोड़ देना चाहिए। उत्तर: सद्गुरुदेव समझाते हैं कि गुरु के साथ अत्यंत प्रियता का संबंध होने पर शिष्य कभी-कभी अधिकार से कुछ कह सकता है, जैसे माँ अपने पुत्र को खिलाती है। इसमें कोई दोष नहीं है। किंतु, सामान्य व्यवहार में शिष्य को हमेशा मर्यादा का पालन करना चाहिए। उसे अपना विचार इस प्रकार रखना चाहिए, 'मेरे विचार से यदि ऐसा होता तो शायद अच्छा होता, तथापि आप जैसा उचित समझें।' सीधे-सीधे यह कहना कि 'आप ऐसा कीजिए, आप जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं है', यह गुरु की अवज्ञा का दोष उत्पन्न कर सकता है और यह अपराध है।
✅ करें (Do's)
  • प्रत्येक जीव में भगवान का वास देखकर मन से सभी का सम्मान करें।
  • संतों और गुरुजनों के प्रति सदैव मर्यादापूर्ण व्यवहार करें।
  • यदि कोई भूल हो जाए तो विनम्रतापूर्वक क्षमा याचना करें और प्रायश्चित करें।
  • अपना विचार गुरु के समक्ष अत्यंत विनम्रता से रखें और अंतिम निर्णय उन पर छोड़ दें।
❌ न करें (Don'ts)
  • अपनी विद्वत्ता या ज्ञान का अभिमान कभी न करें।
  • किसी वरिष्ठ वैष्णव या संत की मर्यादा का उल्लंघन न करें, भले ही आपको लगे कि आप सही हैं।
  • भक्ति मार्ग में धन, मान, प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि की कामना न करें।
  • दूसरों के बाहरी वेश-भूषा को देखकर उनके बारे में कोई धारणा न बनाएँ।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
वैष्णव प्रणाम मंत्र वैष्णव प्रणाम मंत्र सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सत्संग के आरंभ में सद्गुरुदेव द्वारा मंगलाचरण के रूप में यह वंदना की गई।
गुरवे गौरचन्द्राय राधिकायै तदालये। कृष्णाय कृष्णभक्ताय तद्भक्ताय नमो नमः॥
gurave gauracandrāya rādhikāyai tadālaye| kṛṣṇāya kṛṣṇabhaktāya tadbhaktāya namo namaḥ॥
मैं श्री गुरुदेव को, श्री गौरचन्द्र को, श्रीमती राधिका और उनके धाम को, श्री कृष्ण को, कृष्ण भक्तों को और उनके भक्तों को बारम्बार प्रणाम करता हूँ।
भगवद्गीता 4.7-8 भगवद्गीता 4.7-8 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह समझाने के लिए कि भगवान जीवों के कल्याण हेतु प्रत्येक युग में अवतरित होते हैं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
yadā yadā hi dharmasya glānirbhavati bhārata | abhyutthānamadharmasya tadātmānaṃ sṛjāmyaham ॥ paritrāṇāya sādhūnāṃ vināśāya ca duṣkṛtām | dharmasaṃsthāpanārthāya sambhavāmi yuge yuge ॥
हे भारत! जब-जब और जहाँ-जहाँ धर्म का पतन होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ। भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
श्री चैतन्य-चरितामृत आदि लीला १.३ श्री चैतन्य-चरितामृत आदि लीला १.३ सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक यह बताने के लिए उद्धृत किया गया कि श्री चैतन्य महाप्रभु वह दिव्य प्रेम रस देने आए थे जो पहले कभी नहीं दिया गया।
अनर्पितचरों चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ, समर्पयितुमुन्नतो ज्वलरसां स्वभक्तिश्रियम्। हरिः पुरटसुन्दरद्युतिकदम्बसन्दीपितः, सदा हृदयकन्दरे स्फुरतु वः शचीनन्दनः॥
anarpitacarīṁ cirāt karuṇayāvatīrṇaḥ kalau, samarpayitumunnato jvalarasāṁ svabhaktiśriyam| hariḥ puraṭasundaradyutikadambasandīpitaḥ, sadā hṛdayakandare sphuratu vaḥ śacīnandanaḥ॥
जो वस्तु बहुत काल से किसी अवतार ने नहीं दी थी, अर्थात् अपनी भक्ति रूपी सम्पत्ति के उज्ज्वल रस को प्रदान करने के लिए जो करुणा करके कलियुग में अवतीर्ण हुए हैं, वह तपे हुए सोने के समान सुन्दर कांति समूह से प्रकाशमान श्रीहरि शचीनन्दन आपके हृदय रूपी गुफा में सदा स्फुरित रहें।
भगवद्गीता 4.7-8 भगवद्गीता 4.7-8 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
mattaḥ parataraṃ nānyatkiñcidasti dhanañjaya । mayi sarvamidaṃ protaṃ sūtre maṇigaṇā iva ॥
हे धनञ्जय! मुझसे बढ़कर कोई अन्य परम् तत्त्व नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान मुझमें ही गुँथा हुआ है।
भगवद्गीता 4.7-8 भगवद्गीता 4.7-8 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह समझाने के लिए कि भगवान जीवों के कल्याण हेतु प्रत्येक युग में अवतरित होते हैं।
जत सुख पाए वृषभ भानु नंदिनी। तार सतगुण सुख आशद संगिनी॥
श्री वृषभानु नंदिनी (श्री राधा रानी) को (युगल मिलन में) जितना सुख प्राप्त होता है, उनकी संगिनी (मंजरी) उस लीला का आस्वादन करके उससे सौ गुना अधिक सुख प्राप्त करती है।
श्रीमद् भागवत महापुराण 3.29.34 श्रीमद् भागवत महापुराण 3.29.34
सद्गुरुदेव ने यह शिक्षा देने के लिए इस श्लोक का भावार्थ कहा कि किसी को भी साधारण नहीं समझना चाहिए, चाहे वह बालक ही क्यों न हो। हर जीव सम्मान का पात्र है क्योंकि उसमें स्वयं भगवान विराजमान हैं। यही वैष्णवता की शुरुआत है।
मनस्यैतानि भूतानि प्रणमेद् बहुमानतः। ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति॥॥
प्रत्येक जीव में भगवान अपनी अंश कला से प्रविष्ट हैं, ऐसा मानकर मन से ही सब प्राणियों को बहुत सम्मान के साथ प्रणाम करना चाहिए।
Śrī Caitanya-bhāgavata, Antya-khaṇḍa, Chapter 9, Verse 225 Śrī Caitanya-bhāgavata, Antya-khaṇḍa, Chapter 9, Verse 225 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
अभिमानं सुरापानं गौरवं रौरवं नरकम् । प्रतिष्ठा शूकरी-विष्ठा त्रीणि त्यक्त्वा हरिं भजेत् ॥॥
अभिमान (अहंकार) मदिरा पान के समान है, गौरव (सम्मान की चाह) रौरव नरक के समान है, और प्रतिष्ठा (लोक-प्रसिद्धि) सुअर की विष्ठा के समान है। इन तीनों का परित्याग करके ही मनुष्य को श्री हरि की भक्ति करनी चाहिए।"
श्रीमद् भागवत महापुराण thematic श्रीमद् भागवत महापुराण thematic कथा प्रसंग कथा प्रसंग
यह बताने के लिए कि दिव्य प्रेम का वर्णन पहले के शास्त्रों में भी है, लेकिन महाप्रभु द्वारा दिया गया प्रेम उससे भी श्रेष्ठ है।
प्रसंग: सद्गुरुदेव श्रीमद् भागवत महापुराण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इसमें रास लीला के माध्यम से प्रेम की चरम परिणति को दर्शाया गया है।
विष्णु पुराण thematic विष्णु पुराण thematic कथा प्रसंग कथा प्रसंग
यह स्थापित करने के लिए कि प्रेम-भक्ति का सिद्धांत विभिन्न पुराणों में वर्णित है, किन्तु महाप्रभु का दान विशेष है।
प्रसंग: सद्गुरुदेव पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण के साथ विष्णु पुराण का भी उल्लेख करते हैं और बताते हैं कि इन ग्रंथों में भी प्रेम का विशेष वर्णन मिलता है।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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