[Study Guide : 18 Dec 2025] संसार चक्र: कारण और निवारण | The Soul's Journey: From Illusion to Liberation

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श्री भगवत चर्चा
18 December 2025

जीव का संसार बंधन, अहंकार और मुक्ति का उपाय।

जीव भगवान का अंश होते हुए भी अहंकार के कारण संसार चक्र में क्यों फंसा है और स्वरूप विस्मृति को मिटाकर कैसे मुक्त हो?

Sri Sri 108 Sri Vinod Baba ji Maharaj
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हमारे प्रिय सद्गुरुदेव बताते हैं:
" भूल गए हो, भूल को मिटाओ, भजन हो जाएगा। भूल नहीं मिटा, भजन नहीं हुआ। "

🔑 आज के सत्संग के मुख्य शब्द 🔑 Key Words of Today's Satsang

शरीर (66) शक्ति (54) भगवान (38) आनंद (30) प्रेम (26) संसार (23) पुरुष (22) कारण (20) आत्मा (19)

📖 आज की शिक्षाएं 📖 आज की विस्तृत शिक्षाएं

भगवान श्रीकृष्ण: एकमात्र पुरुष
भगवान श्रीकृष्ण की पुरुषत्व और दिव्यता
▶ देखें (1:05) ▶ Watch (1:05)
भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष (परम भोक्ता) हैं और सभी जीव उनके श्री चैतन्य अंश हैं, जबकि प्रकृति उनकी शक्ति है। भगवान श्रीकृष्ण को एकमात्र पुरुष (परम भोक्ता) के रूप में वर्णित किया गया है, जिसके अंश सभी जीव श्री चैतन्य सत्ता हैं। वह पुराण पुरुष हैं, विश्वात्मा के परम धाम और अनंत रूप वाले हैं। प्रकृति उनकी शक्ति है, और वे स्वयं परम पुरुष हैं, सभी जीवों के नियंत्रक।
🔗 यह भगवान श्री कृष्ण को परम पुरुष और सभी जीवों के स्रोत के रूप में स्थापित करता है,यह आत्मा और भगवान के संबंध को समझने का आधार बनाता है।
श्रीराधा रानी - आनंद का मूल स्रोत
श्रीराधा रानी: आनंददायिनी शक्ति का मूलाधार
▶ देखें (2:50) ▶ Watch (2:50)
श्रीराधा रानी आनंददायिनी शक्ति (अल्हादिनी शक्ति) का मूर्त प्रकाश और आनंद का मूल स्रोत हैं। श्रीराधा रानी आनंददायिनी (अल्हादिनी) शक्ति का मूल घनभता विग्रह और मूर्त प्रकाश हैं, जो आनंद का मूल स्रोत हैं। अनंत कोटि विष्णु लोक, जहाँ नारायण अनेक स्वरूपों में विराजमान हैं, उनके चरण कमलों की पूजा करते हैं, जो उनकी सर्वोच्च स्थिति को दर्शाता है।
🔗 यह आनंददायिनी शक्ति के दिव्य स्रोत और राधा रानी में उसके मूर्तरूपण की व्याख्या करता है।
श्रीराधा रानी द्वारा वरदान
श्रीराधा रानी द्वारा देवियों को वरदान
▶ देखें (3:05) ▶ Watch (3:05)
हिमाद्री जा : हिमालय की कन्या (श्रीपार्वती), 'विरिंच जा' : श्रीब्रह्मा जी की पुत्री (श्री सरस्वती) और पुलोमजा : पुलोमन की कन्या (इंद्रायणी) जिन्हें श्रीराधा रानी वर प्रदान करती हैं (श्री राधा कृपा कटाक्ष)। हिमाद्री जा : हिमालय की कन्या (श्रीपार्वती), 'विरिंच जा' : श्रीब्रह्मा जी की पुत्री (श्री सरस्वती) और पुलोमजा : पुलोमन की कन्या (इंद्रायणी) जिन्हें श्रीराधा रानी वर प्रदान करती हैं (श्री राधा कृपा कटाक्ष)
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भगवान की तीन प्रमुख शक्तियाँ
भगवान की त्रिविध शक्तियों का विश्लेषण: स्वरूप, जीव और माया
▶ देखें (4:01) ▶ Watch (4:01)
सदगुरुदेव ने भगवान की तीन प्रमुख शक्तियों - स्वरूप शक्ति, जीव शक्ति और माया शक्ति का वर्णन किया है। स्वरूप शक्ति पुनः संधिनी, संवित और ह्लादिनी में विभाजित है, जो भगवान के सत्-चित्-आनंद स्वरूप का आधार हैं। जीव शक्ति भगवान की तटस्था शक्ति है, और माया शक्ति इस भौतिक सृष्टि का कारण है। सत्संग में सदगुरुदेव ने भगवान की शक्तियों के तात्विक भेद को समझाया। भगवान की मुख्य तीन शक्तियाँ हैं: स्वरूप शक्ति, जीव शक्ति, और माया शक्ति। स्वरूप शक्ति भगवान की अंतरंगा शक्ति है, जिसके तीन प्रकाश हैं - संधिनी (सत्), संवित (चित्), और ह्लादिनी (आनंद)। इन्हीं से भगवान का सच्चिदानंद विग्रह प्रकट होता है। जीव शक्ति तटस्था शक्ति है, जिससे अनंत जीव प्रकट होते हैं। माया शक्ति बहिरंगा शक्ति है जो इस भौतिक जगत का निर्माण और संचालन करती है तथा जीवों को भ्रम में डालती है।
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अहंकार: बंधन का मूल कारण
गीता के प्रकाश में अहंकार का स्वरूप: कैसे जीव स्वयं को कर्ता मान लेता है?
▶ देखें (12:53) ▶ Watch (12:53)
सदगुरुदेव समझाते हैं कि जीव के बंधन का मूल कारण अहंकार है। प्रकृति के गुणों द्वारा सारे कर्म किए जाने पर भी, अहंकार से विमूढ़ आत्मा स्वयं को 'कर्ता' मान बैठती है। यह 'मैं कर्ता हूँ' और 'मैं भोक्ता हूँ' का भाव ही जीव को संसार चक्र में घुमाता रहता है। सदगुरुदेव बताते हैं कि आत्मा न तो कर्ता है और न ही भोक्ता। शरीर और प्रकृति जड़ हैं, वे स्वयं कुछ नहीं कर सकते। इन दोनों के संयोग से एक नया तत्व 'अहंकार' पैदा होता है, जो शरीर में 'मैं' बुद्धि करके स्वयं को कर्ता और भोक्ता मान लेता है। श्रीमद्भगवद्गीता का उद्धरण देते हुए वे कहते हैं कि प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म किए जाते हैं, पर अहंकार से मोहित आत्मा 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा मानती है। यही अभिमान जीव के सुख-दुःख और पुनर्जन्म का कारण है।
🔗 अहंकार ही वह ग्रंथि है जो जीव को उसके सच्चिदानंद स्वरूप से विमुख करके संसार से बांधती है।
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दृष्टांत: अंधा और लंगड़ा
अंधे और लंगड़े का दृष्टांत: आत्मा और प्रकृति के संयोग का रहस्य
▶ देखें (14:11) ▶ Watch (14:11)
सदगुरुदेव ने आत्मा और प्रकृति के संबंध को अंधे और लंगड़े के दृष्टांत से समझाया। अंधा (आत्मा/पुरुष) देख नहीं सकता पर चल सकता है, और लंगड़ा (प्रकृति/शरीर) चल नहीं सकता पर देख सकता है। दोनों एक दूसरे का सहारा लेकर यात्रा करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे चेतन आत्मा जड़ शरीर में रहकर संसार का अनुभव करती है। इस दृष्टांत के माध्यम से सदगुरुदेव ने पुरुष (आत्मा) और प्रकृति (शरीर) के संयोग को स्पष्ट किया। एक अंधा व्यक्ति चल सकता है पर देख नहीं सकता, जबकि एक लंगड़ा व्यक्ति देख सकता है पर चल नहीं सकता। जब लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाता है, तो लंगड़े के निर्देशन से अंधा चलने लगता है और दोनों की यात्रा संभव हो जाती है। इसी प्रकार, जड़ प्रकृति (लंगड़ा) और चेतन आत्मा (अंधा) के संयोग से यह संसार का खेल चलता है, जहाँ आत्मा स्वयं को कर्ता मानकर कर्मफल भोगती है।
🔗 यह दृष्टांत स्पष्ट करता है कि आत्मा स्वयं कर्ता नहीं है, बल्कि प्रकृति के संग के कारण कर्तृत्व का अभिमान कर लेती है।
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जाग्रत अवस्था भी एक स्वप्न है
स्वप्न का दृष्टांत: जाग्रत और निद्रा के स्वप्न में भेद और साम्यता
▶ देखें (17:39) ▶ Watch (17:39)
सदगुरुदेव बताते हैं कि जैसे हम निद्रा में एक काल्पनिक शरीर और संसार रचकर उसे सत्य मानकर सुख-दुःख भोगते हैं, वैसे ही यह जाग्रत अवस्था भी एक स्वप्न है। इस स्वप्न में हम इस भौतिक शरीर को 'मैं' मानकर इसी के सुख-दुःख में लिप्त रहते हैं। जब तक यह 'मैं शरीर हूँ' का स्वप्न नहीं टूटता, तब तक बंधन बना रहता है। सदगुरुदेव ने संसार की नश्वरता को स्वप्न के दृष्टांत से समझाया। निद्रा के स्वप्न में शरीर और संसार दोनों काल्पनिक होते हैं, फिर भी जब तक हम सोए रहते हैं, तब तक उसका सुख-दुःख हमें सत्य प्रतीत होता है। उसी प्रकार, इस जाग्रत अवस्था में शरीर और संसार तो हैं, लेकिन इस शरीर को 'मैं' मान लेना एक स्वप्न के समान है। यह 'मैं शरीर हूँ' का अभिमान ही वह स्वप्न है जो हमें हमारे वास्तविक चेतन, आनंदमय स्वरूप से दूर रखता है और संसार चक्र में फंसाए रखता है।
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सच्चा प्रेम केवल भगवान से संभव है
सांसारिक प्रेम का मिथ्या स्वरूप और भगवत्-प्रेम की वास्तविकता
▶ देखें (27:46) ▶ Watch (27:46)
सदगुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि संसार में जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह वास्तव में अपने सुख की लालसा है। सांसारिक संबंध स्वार्थ पर आधारित होते हैं और दूसरे से मिलने वाले सुख पर टिके होते हैं। सच्चा, निस्वार्थ और शाश्वत प्रेम केवल भगवान से ही हो सकता है, क्योंकि वही हमारे नित्य संबंधी हैं। सदगुरुदेव ने संसार के प्रेम की कलई खोलते हुए बताया कि यह मात्र एक दिखावा है जो अपने सुख की पूर्ति पर आधारित है। जैसे एक नायक अपनी नायिका के रूप से प्रेम करता है, रूप नष्ट होने पर प्रेम भी समाप्त हो जाता है। हम तोते की सुंदरता और मीठी बोली से प्रेम करते हैं, तोते से नहीं। यह सब अपने इंद्रिय-सुख की व्यवस्था है। वास्तविक प्रेम, जो निस्वार्थ और शाश्वत है, वह केवल भगवान से ही संभव है, क्योंकि भगवान के साथ हमारा संबंध आत्मा का है, जो किसी शर्त या परिस्थिति पर निर्भर नहीं करता।
🔗 जब जीव यह समझ जाता है कि संसार में प्रेम नहीं है, तब वह अहंकार-जनित सांसारिक आसक्ति को छोड़कर भगवान की ओर मुड़ता है।
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दृष्टांत: सेठानी की नौकरानी
अनासक्त कर्म का रहस्य: नौकरानी के दृष्टांत से संसार में रहने की कला
▶ देखें (34:54) ▶ Watch (34:54)
संसार में कैसे रहना है, यह समझाने के लिए सदगुरुदेव ने नौकरानी का दृष्टांत दिया। जैसे एक नौकरानी सेठ के बच्चे का पालन-पोषण पूरे स्नेह से करती है, पर मन में जानती है कि यह बच्चा उसका नहीं है, वैसे ही साधक को संसार में अपने सारे कर्तव्य निभाने चाहिए। उसे मन में यह बोध रखना चाहिए कि यह परिवार और संपत्ति मेरी नहीं, भगवान की है। सदगुरुदेव ने एक अत्यंत व्यावहारिक मार्गदर्शन देते हुए बताया कि साधक को संसार छोड़कर जाने की आवश्यकता नहीं है। उसे एक सेठ के घर में बच्चे की देखभाल करने वाली नौकरानी की तरह रहना चाहिए। वह नौकरानी बच्चे को खूब प्यार करती है, उसकी पूरी देखभाल करती है, लेकिन अपने हृदय में सदैव यह जानती है कि यह बच्चा और यह घर मेरा नहीं है, मैं तो यहाँ केवल अपनी सेवा दे रही हूँ। इसी भाव से गृहस्थ को अपने सभी कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, पर भीतर से अनासक्त रहकर और सब कुछ भगवान का मानकर।

✨ विशेष उल्लेख

📋 भगवान की त्रिविध शक्तियाँ ▶ 4:01 ▶ देखें (4:01)
  • स्वरूप शक्ति (अंतरंगा)
  • जीव शक्ति (तटस्था)
  • माया शक्ति (बहिरंगा)
📋 अहंकार के दो वृत्त ▶ 21:32 ▶ देखें (21:32)
  • जड़ वृत्त: 'मैं शरीर हूँ'
  • चित्त वृत्त: 'शरीर संबंधी वस्तु मेरी है'
⛓️ जड़ अभिमान
इसका अर्थ है 'मैं यह शरीर हूँ और शरीर से संबंधित वस्तुएं मेरी हैं'। यह बंधन और दुःख का कारण है।
बनाम
🕊️ चिद् अभिमान
इसका अर्थ है 'मैं शरीर नहीं, बल्कि भगवान का नित्य अंश, चिन्मय, आनंदमय आत्मा हूँ'। यह मुक्ति और आनंद का मार्ग है।
💔 सांसारिक प्रेम
यह स्वार्थ और अपने सुख की कामना पर आधारित होता है। यह अस्थायी और शर्तों पर निर्भर है।
बनाम
❤️ भगवत् प्रेम
यह निस्वार्थ और शाश्वत होता है। यह आत्मा का आत्मा से नित्य संबंध है, जो किसी शर्त पर निर्भर नहीं करता।

जिज्ञासा (Q&A)

प्रश्न: इस संसार में जीव रूपी पुतला क्यों नाच रहा है और इसे कौन नचा रहा है? ▶ देखें (12:03) ▶ देखें (12:03)
उत्तर: आत्मा या शरीर नहीं नाच रहा, बल्कि जब चेतन आत्मा जड़ शरीर से तादात्म्य कर लेती है, तो अहंकार रूपी जीवात्मा कर्ता बनकर इस संसार में नाचता है। उत्तर: सदगुरुदेव बताते हैं कि न तो जड़ शरीर स्वयं नाच सकता है और न ही शुद्ध आत्मा। यह नाच तब शुरू होता है जब चेतन आत्मा इस पंचभौतिक शरीर में प्रवेश करके उससे तादात्म्य स्थापित कर लेती है। इस संयोग से 'अहंकार' नामक एक उभयात्मक तत्व उत्पन्न होता है, जो स्वयं को शरीर मानकर कर्ता और भोक्ता बन जाता है। यही अहंकार रूपी जीवात्मा प्रकृति के गुणों से प्रेरित होकर संसार रूपी मंच पर नाचता है, जबकि वास्तविक आत्मा अकर्ता और अभोक्ता है।
प्रश्न: इस अहंकार और संसार बंधन से मुक्त होने के लिए हमें क्या करना चाहिए? ▶ देखें (21:02) ▶ देखें (21:02)
उत्तर: इस अहंकार को समाप्त करना होगा, जो 'मैं शरीर हूँ' और 'शरीर संबंधी वस्तु मेरी है' इस दोहरी भ्रांति पर टिका है। हमें चिद्-अभिमान (मैं चिन्मय आत्मा हूँ) को दृढ़ करना होगा। उत्तर: सदगुरुदेव उपाय बताते हैं कि बंधन का मूल कारण अहंकार है, इसलिए इसी को समाप्त करना होगा। अहंकार के दो पक्ष हैं - एक जड़ वृत्त ('मैं शरीर हूँ') और एक चित्त वृत्त ('शरीर से जुड़ी वस्तुएं मेरी हैं')। हमें इस जड़ अभिमान को त्यागकर चिद्-अभिमान को अपनाना होगा। यह दृढ़ता से मानना होगा कि 'मैं यह शरीर नहीं, मैं तो भगवान का नित्य अंश, दिव्य, चिन्मय, आनंदमय आत्मा हूँ'। इस सत्य को स्वीकार कर लेने से ही मुक्ति का मार्ग खुलता है।
✅ करें (Do's)
  • यह दृढ़ता से मानें कि 'मैं शरीर नहीं, बल्कि दिव्य, चिन्मय आत्मा हूँ' और भगवान का नित्य अंश हूँ।
  • संसार में अपने सभी कर्तव्य अनासक्त भाव से करें, जैसे नौकरानी सेठ के बच्चे की देखभाल करती है।
  • अपनी भूली हुई पहचान को याद करें और भगवान से अपने नित्य प्रेममय संबंध को जागृत करने का प्रयास करें।
❌ न करें (Don'ts)
  • 'मैं कर्ता हूँ' और 'मैं भोक्ता हूँ', इस अहंकार जनित भाव में न डूबें।
  • सांसारिक वस्तुओं और संबंधों को 'मेरा' मानकर उनसे आसक्त न हों, क्योंकि वे आगंतुक हैं।
  • भजन को केवल एक बाहरी क्रिया (माला जपना, परिक्रमा) मानकर न करें, बल्कि उसमें भावनात्मक संबंध जोड़ें।

शास्त्र प्रमाण (Scriptural References)

इस खंड में वे श्लोक व कथा-प्रसंग सम्मिलित हैं जो सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित किए गए हैं या सत्संग के भाव को समझने में सहायक संदर्भ के रूप में दिए गए हैं।
Radha Kripa Kataksha Stotra Verse 11 Radha Kripa Kataksha Stotra Verse 11 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक श्री राधा रानी की महिमा का वर्णन करने के लिए उद्धृत किया गया, जो समस्त शक्तियों और आनंद की मूल स्रोत हैं।
अनन्तकोटिविष्णुलोकनम्रपद्मजार्चिते हिमाद्रिजापुलोमजाविरिञ्चजावरप्रदे । अपारसिद्धिवृद्धिदिग्विसप्तलोकपालके कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥
anantakoṭiviṣṇulokanamrapadmajārcite himādrijāpulomajā-viriñcajā-varaprade | apārasiddhivṛddhidig-visaptalokapālake kadā kariṣyasīha māṁ kṛpākaṭākṣabhājanam ||
हे देवी! अनंत कोटि वैकुंठों के श्री विष्णु भी आपके चरणों की वंदना करते हैं। श्री पार्वती, शची (पुलोमजा) और श्री सरस्वती (विरिंचिजा) जैसी देवियाँ भी आपसे वरदान प्राप्त करती हैं। आप अपार सिद्धि-वृद्धि प्रदान करने वाली और समस्त लोकों की पालिका हैं। आप मुझ पर अपनी कृपा-कटाक्ष कब डालेंगी?
भगवद् गीता 3.27 Bhagavad Gita 3.27 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह श्लोक यह समझाने के लिए प्रयुक्त हुआ कि जीव का बंधन अहंकार के कारण है, जो स्वयं को अकर्ता होते हुए भी कर्ता मान लेता है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
prakṛteḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ | ahaṅkāravimūḍhātmā kartāham iti manyate ||
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, परन्तु अहंकार से मोहित हुआ अज्ञानी आत्मा 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेता है।
भगवद् गीता 13.21-22 Bhagavad Gita 13.21-22 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
यह समझाने के लिए कि कैसे पुरुष (आत्मा) प्रकृति के गुणों का संग करके स्वयं को भोक्ता मान लेता है और अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेता रहता है।
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
kārya-kāraṇa-kartṛtve hetuḥ prakṛtir ucyate | puruṣaḥ sukha-duḥkhānāṁ bhoktṛtve hetur ucyate || puruṣaḥ prakṛtistho hi bhuṅkte prakṛtijānguṇān | kāraṇaṁ guṇasaṅgo'sya sadasadyonijanmasu ||
कार्य (शरीर) और कारण (इंद्रियाँ) को उत्पन्न करने में प्रकृति ही हेतु कही जाती है, और पुरुष (जीवात्मा) सुख-दुःखों के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है। प्रकृति में स्थित हुआ पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।
भगवद् गीता 18.17 Bhagavad Gita 18.17 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
इसका उल्लेख यह बताने के लिए किया गया है कि अहंकार का नाश करना ही बंधन से मुक्ति का उपाय है।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
yasya nāhaṅkṛto bhāvo buddhir yasya na lipyate | hatvāpi sa imāṁl lokān na hanti na nibadhyate ||
जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।
भगवद् गीता 6.5-6 Bhagavad Gita 6.5-6 सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित सद्गुरुदेव द्वारा उल्लेखित
सदगुरुदेव यह समझा रहे हैं कि जब हम अपनी आत्मा (मन) पर विजय प्राप्त कर लेते हैं तो हम अपने मित्र बन जाते हैं, अन्यथा हम स्वयं ही अपने शत्रु हैं।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
uddhared ātmanātmānaṁ nātmānam avasādayet | ātmaiva hy ātmano bandhur ātmaiva ripur ātmanaḥ || bandhur ātmātmanas tasya yenātmaivātmanā jitaḥ | anātmanas tu śatrutve vartetātmaiva śatruvat ||
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपना पतन न करे, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियाँ नहीं जीती गई हैं, उसके लिए वह आप ही शत्रु के समान शत्रुता में बरतता है।
स्पष्टीकरण (Clarification)

यह सारांश AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का उपयोग गुरु सेवा में करके तैयार किया गया है। इसमें त्रुटि हो सकती है। कृपया पूर्ण लाभ के लिए पूरा वीडियो अवश्य देखें।

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